Acharya Chatursen Kahaani न मालूम सी एक ख़ता- आचार्य चतुरसेन
भाग-2
Acharya Chatursen Kahaani (अब तक आपने पढ़ा..बादशाह की नयी बेगम सलीमा उनके साथ कश्मीर के दौलतख़ाने में रह रही होती हैं। बादशाह के दो दिन तक शिकार से न लौटने पर विरह में व्याकुल बादशाह की राह ताकती सलीमा अपनी बाँदी को बुलाकर उसके साथ संगीत से मन बहलाने की बात सोचती है। सलीमा साक़ी से शरबत की माँग करती है और उसमें गुलाब डालने की कहती है..साक़ी गुलाब के सतह कुछ और भी मिला देती है। संगीत की तान सुनते-सुनते ही सलीमा बेगम बेसुध हो जाती हैं। गीत ख़त्म कर जाती हुई साक़ी उनके रूप को देखकर ठिठकती है और उनके चेहरे का पसीना पोंछते हुए उनका मुख चूम लेती है। बादशाह उसकी ये करतूत देख लेते हैं और उन्हें देखते ही बाँदी जड़ हो जाती है..अब आगे)
घनी कहानी, छोटी शाखा: आचार्य चतुरसेन की कहानी ‘न मालूम सी एक ख़ता’ का पहला भाग
बादशाह ने कहा- “तू कौन है? और यह क्या कर रही थी?”
साक़ी चुप खड़ी रही।
बादशाह ने कहा- “जवाब दे!”
साक़ी ने धीमे स्वर में कहा- “जहाँपनाह- कनीज़ अगर कुछ जवाब न दे, तो?”
बादशाह सन्नाटे में आ गए- “बांदी की इतनी हिम्मत?”
उन्होंने फिर कहा- “मेरी बात का जवाब नहीं? अच्छा, तुझे निर्वस्त्र करके कोड़े लगाए जाएँगे।!”
साक़ी ने अकम्पित स्वर में कहा- “मैं मर्द हूँ”
बादशाह की ऑंखों में सरसों फूल उठी। उन्होंने अग्निमय नेत्रों से सलीमा की ओर देखा। वह बेसुध पड़ी सो रही थी। उसी तरह उसका भरा यौवन खुला पडा था। उनके मुँह से निकला- “उफ़्फ़! फाहशा! और तत्काल उनका हाथ तलवार की मूठ पर गया।
फिर उन्होंने कहा- “दोज़ख़ के कुत्ते! तेरी यह मजाल!”
फिर कठोर स्वर से पुकारा- “मादूम!”
एक भयंकर रूप वाली तातारी औरत बादशाह के सामने अदब से आ खडी हुई। बादशाह ने हुक्म दिया- “इस मरदूद को तहख़ाने में डाल दे, ताकि बिना खाए-पिए मर जाए”
मादूम ने अपने कर्कश हाथों से युवक का हाथ पकड़ा और ले चली। थोडी देर बाद दोनों एक लोहे के मज़बूत दरवाज़े के पास आ खड़े हुए। तातारी बांदी ने चाभी निकाल दरवाजा खोला और क़ैदी को भीतर ढकेल दिया। कोठरी की गच क़ैदी का बोझ ऊपर पडते ही काँपती हुई नीचे धसकने लगी!
Acharya Chatursen Kahaani
प्रभात हुआ। सलीमा की बेहोशी दूर हुई। चौंककर उठ बैठी। बाल सँवारा, ओढ़नी ठीक की और चोली के बटन कसने को आईने के सामने जा खड़ी हुई; खिड़कियाँ बंद थीं।
सलीमा ने पुकारा- “साक़ी! प्यारी साक़ी बडी गर्मी है, ज़रा खिड़की तो खोल दे। निगोड़ी नींद ने तो आज ग़ज़ब ढा दिया। शराब कुछ तेज़ थी।
किसी ने सलीमा की बात न सुनी। सलीमा ने ज़रा ज़ोर से पुकारा- “साक़ी!”
जवाब न पाकर सलीमा हैरान हुई। वह ख़ुद खिड़की खोलने लगी। मगर खिड़कियाँ बाहर से बंद थीं। सलीमा ने विस्मय से मन-ही-मन कहा “क्या बात है लौंडियाँ सब क्या हुईं?”
वह द्वार की तरफ चली। देखा, एक तातारी बांदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खडी है। बेगम को देखते ही उसने सिर झुका लिया।
सलीमा ने क्रोध से कहा- “तुम लोग यहाँ क्यों हो?”
“बादशाह के हुक़्म से”
“क्या..?? बादशाह आ गए.?”
“जी हाँ”
“मुझे इत्तिला क्यों नहीं की?”
‘हुक़्म नहीं था”
“बादशाह कहाँ हैं?”
“जीनतमहल के दौलतख़ाने में”
सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा- “ठीक है, ख़ूबसूरती की हाट में जिनका कारबार है, वे मुहब्बत को क्या समझेंगे? तो अब जीनतमहल की क़िस्मत खुली?”
तातारी स्त्री चुपचाप खडी रही। सलीमा फिर बोली- “मेरी साक़ी कहाँ है?”
“क़ैद में”
“क्यों?”
“जहाँपनाह का हुक़्म”
“उसका क़ुसूर क्या था?”
“मैं अर्ज नहीं कर सकती”
“क़ैदख़ाने की चाभी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूँ”
“आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक़्म नहीं है”
“तब क्या मैं भी क़ैद हूँ?”
“जी हाँ” Acharya Chatursen Kahaani
सलीमा की ऑंखों में ऑंसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर गड़ गई और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा :
“हुज़ूर! क़ुसूर माफ़ फ़रमाएँ। दिनभर थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुज़ूर के इस्तक़बाल में हाज़िर न रह सकी। और मेरी उस लौंडी को भी जाँ बख़्शी की जाए। उसने हुज़ूर के दौलतख़ाने में लौट आने की इत्तला मुझे वाजिबी तौर पर न देकर बेशक भारी क़ुसूर किया है। मगर वह नई कमसिन, ग़रीब और दुखिया है”
– कनीज़ सलीमा
चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह ने आगे होकर कहा- “लाई क्या है?”
बांदी ने दस्तबस्ता अर्ज़ की- “खुदावन्द! सलीमा बीबी की अर्ज़ी है!”
बादशाह ने गुस्से से होंठ चबाकर कहा- “उससे कह दे कि मर जाए!”
इसके बाद ख़त में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँह फेर लिया
बांदी सलीमा के पास लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बांदी को बाहर जाने का हुक़्म दिया और दरवाज़ा बंद करके फूट-फूटकर रोई। घंटों बीत गए, दिन छिपने लगा।
सलीमा ने कहा- “हाय! बादशाहों की बेगम होना भी क्या बदनसीबी है। इंतजारी करते-करते ऑंखें फूट जाएँ, मिन्नतें करते-करते ज़बान घिस जाए, अदब करते-करते जिस्म टुकड़े-टुकड़े हो जाए फिर भी इतनी-सी बात पर कि मैं ज़रा सो गई, उनके आने पर जग न सकी, इतनी सज़ा! इतनी बेइज़्ज़ती! तब मैं बेगम क्या हुई? जीनत और बांदियाँ सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज़्ज़ती के बाद मुँह दिखाने लायक कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफसोस- मैं किसी ग़रीब किसान की औरत क्यों न हुई!”
धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ प्रतिज्ञा के चिन्ह उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपिन की तरह चपेट खाकर उठ खडी हुई। उसने एक और ख़त लिखा:
“दुनिया के मालिक!
आपकी बीवी और कनीज़ होने की वजह से मैं आपके हुक़्म को मानकर मरती हूँ। इतनी बेइज़्ज़ती पाकर एक मल्लिका का मरना ही मुनासिब भी है। मगर इतने बड़े बादशाह को औरतों को इस क़दर नाचीज़ तो न समझना चाहिए कि एक अदनी-सी बेवक़ूफ़ी की इतनी कड़ी सज़ा दी जाए। मेरा क़ुसूर सिर्फ़ इतना ही था कि मैं बेख़बर सो गई थी। ख़ैर, सिर्फ़ एक बार हुज़ूर को देखने की ख़्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज़ करूँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रखे”
-सलीमा
खत को इत्र से सुवासित करके ताज़े फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया कि जिससे किसी कि उस पर फ़ौरन ही नज़र पड़ जाए। इसके बाद उसने जवाहरात की पेटी से एक बहुमूल्य अँगूठी निकाली और कुछ देर तक ऑंखें गड़ा-गड़ाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई। Acharya Chatursen Kahaani
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: आचार्य चतुरसेन की कहानी ‘न मालूम सी एक ख़ता’ का अंतिम भाग