कोई दुःख न हो तो बकरी ख़रीद लो- मुंशी प्रेमचंद
भाग-4
(अब तक आपने पढ़ा…दूध की बढ़ती किल्लत और अच्छा दूध न मिलने पर लेखक अपने एक मित्र के साथ मिलकर एक गाय पालने की योजना बनाते हैं और दोनों मिलकर गाय पाल लेते हैं, ये गाय लेखक के मित्र के यहाँ रहती है. इसके बदले ये तय होता है कि मित्र गाय के गोबर का पूरा इस्तेमाल अपने घर के लिए कर सकते हैं और गाय का दूध दोनों में बाँटा जाएगा..और उसका खर्च भी आपस में बाँटा जाए…कुछ दिनों तक तो ये बात सही चलती रहीं, फिर दूध ख़राब आने लगता है…अपने दोस्त को कुछ न कहते हुए वो ये झेलते हैं लेकिन कुछ दिनों में मित्र का तबादला होने पर गाय बेच डी जाती है और रखरखाव में कम मेहनत का ख़याल करके लेखक बकरी पाल लेते हैं..और बकरी के नाज़ उठाते हुए घर बदलकर बस्ती से दूर रहने जाते हैं ताकि बकरी चर पाए..लेकिन यहाँ भी उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है जब बकरी पास के खेत में घुस जाती है…और उन्हें खरी खोटी सुननी पड़ती है..घर में काम करने वाला भी बकरी चराने से मना कर देता है…तो लेखक खुद ही बकरी चराने की ठान लेते हैं, दफ्तर से जल्दी आकर बकरी चराते हैं और बकरी ज़्यादा दूध देती है..इस बात से खुश होकर लेखक बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ने पहूँच जाते हैं जहाँ उन्हें काछी देख लेता है और पत्तियाँ घर पहुँचा देता है…इस शर्म का फिर सामना न करना पड़े इसलिए लेखक बकरी को चराने का विचार ही छोड देते हैं, किन्तु बकरी इतनी आसानी से कैसे जाने दे वो रात में मिमिया-मिमिया कर लेखक का जीना हराम कर देती है और आखिर जाड़ों की रात होने के बावजूद उन्हें बकरी को घुमाने ले जाना पड़ता है. इस बात से लेखक खासे नाराज़ होते हैं…अब आगे)
दूसरे दिन सुबह से ही मुझे यह फ़िक्र सवार हुई कि किसी तरह रात की बेगार से छुट्टी मिले। आज दफ्तर में छुट्टी थी। मैंने एक लम्बी रस्सी मंगवाई और शाम को बकरी के गले में रस्सी डाल एक पेड़ की जड़ से बाँधकर सो गया-अब चरे जितना चाहे। अब चिराग जलते-जलते खोल लाऊँगा। छुट्टी थी ही, शाम को सिनेमा देखने की ठहरी। एक अच्छा-सा खेल आया हुआ था। नौकर को भी साथ लिया वर्ना बच्चे को कौन संभालता।
जब नौ बजे रात को घर लौटे और मैं लालटेन लेकर बकरी लेने गया तो क्या देखता हूँ कि उसने रस्सी को दो-तीन पेड़ों से लपेटकर ऐसा उलझा डाला है कि सुलझना मुश्किल है। इतनी रस्सी भी न बची थी कि वह एक क़दम भी चल सकती।
लाहौलविलाकूवत, जी में आया कि कमबख्त को यहीं छोड़ दूँ, मरती है तो मर जाय, अब इतनी रात को लालटेन की रोशनी में रस्सी सुलझाने बैठे। लेकिन दिल न माना। पहले उसकी गर्दन से रस्सी खोली, फिर उसकी पेंच-दर-पेंच ऐंठन छुड़ाई, एक घंटा लग गया। मारे सर्दी के हाथ ठिठुरे जाते थे और जी जल रहा था वह अलग। यह तरक़ीब तो और भी तक़लीफ़देह साबित हुई।
अब क्या करूँ, अक्ल काम न करती थी। दूध का ख़याल न होता तो किसी को मुफ़्त दे देता। शाम होते ही चुड़ैल अपनी चीख-पुकार शुरू कर देगी और घर में रहना मुश्किल हो जायगा, और आवाज़ भी कितनी कर्कश और मनहूस होती है। शास्त्रों में लिखा भी है, जितनी दूर उसकी आवाज़ जाती है उतनी दूर देवता नहीं आते। स्वर्ग की बसनेवाली हस्तियाँ जो अप्सराओं के गाने सुनने की आदी है, उसकी कर्कश आवाज़ से नफ़रत करें तो क्या ताज्जुब?… मुझ पर उसकी कर्ण कटु पुकारों का ऐसा आंतक सवार था कि दूसरे दिन दफ्तर से आते ही मैं घर से निकल भागा। लेकिन एक मील निकल जाने पर भी ऐसा लग रहा था कि उसकी आवाज़ मेरा पीछा किये चली आती है। अपने इस चिड़चिड़ेपन पर शर्म भी आ रही थी। जिसे एक बकरी रखने की भी सामर्थ्य न हो वह इतना नाज़ुक दिमाग़ क्यों बने और फिर तुम सारी रात तो घर से बाहर रहोगे नहीं, आठ बजे पहुँचोगे तो क्या वह गीत तुम्हारा स्वागत न करेगा?
सहसा एक नीची शाखों वाला पेड़ देखकर मुझे बरबस उस पर चढ़ने की इच्छा हुई। सपाट तनों पर चढ़ना मुश्किल होता है, यहाँ तो छ: सात फुट की ऊँचाई पर शाखें फूट गयी थीं। हरी-हरी पत्तियों से पेड़ लदा खड़ा था और पेड़ भी था गूलर का जिसकी पत्तियों से बकरियों को खास प्रेम है। मैं इधर तीस साल से किसी रुख पर नहीं चढ़ा। वह आदत जाती रही। इसलिए आसान चढ़ाई के बावजूद मेरे पाँव काँप रहे थे पर मैंने हिम्मत न हारी और पत्तियों को तोड़-तोड़ नीचे गिराने लगा। यहाँ अकेले में कौन मुझे देखता है कि पत्तियाँ तोड़ रहा हूं। अभी अंधेरा हुआ जाता है। पत्तियों का एक गट्ठा बगल में दबाऊँगा और घर जा पहुँचूँगा। अगर इतने पर भी बकरी ने कुछ चीं-चपड़ की तो उसकी शामत ही आ जायगी।
मैं अभी ऊपर ही था कि बकरियों और भेड़ों का एक गोल न जाने किधर से आ निकला और पत्तियों पर पिल पड़ा। मैं ऊपर से चीख रहा हूँ मगर कौन सुनता है। चरवाहे का कहीं पता नहीं । कहीं दुबक रहा होगा कि देख लिया जाऊँगा तो गालियाँ पड़ेंगी। झल्लाकर नीचे उतरने लगा। एक-एक पल में पत्तियाँ गायब होती जाती थी। उतरकर एक-एक की टांग तोडूंगा। यकायक पाँव फिसला और मैं दस फ़िट की ऊँचाई से नीचे आ रहा। कमर में ऐसी चोट आयी कि पाँच मिनट तक आँखों तले अंधेरा छा गया। खैरियत हुई कि और ऊपर से नहीं गिरा, नहीं तो यहीं शहीद हो जाता। बारे, मेरे गिरने के धमाके से बकरियाँ भागीं और थोड़ी-सी पत्तियाँ बच रहीं।
जब ज़रा होश ठिकाने हुए तो मैंने उन पत्तियों को जमा करके एक गट्ठा बनाया और मजदूरों की तरह उसे कंधे पर रखकर शर्म की तरह छिपाये घर चला। रास्ते में कोई दुर्घटना न हुई। जब मकान कोई चार फलांग रह गया और मैंने क़दम तेज़ किए कि कहीं कोई देख न ले तो वह काछी समाने से आता दिखायी दिया। कुछ न पूछो उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई। रास्ते के दोनो तरफ खेतों की ऊंची मेड़ें थीं जिनके ऊपर नागफनी निकलेगा और भगवान् जाने क्या सितम ढाये। कहीं मुड़ने का रास्ता नहीं. मैंने किनारे पकड़ लिए और सिर झुकाकर इस तरह निकल जाना चाहता था कि कोई मजदूर है। तले की साँस तले थी, ऊपर की ऊपर, जैसे वह काछी कोई खूंखार शेर हो। बार-बार ईश्वर को याद कर रहा था कि हे भगवान्, तू ही आफत के मारे हुओं का मददगार है, इस मरदूद की ज़बान बन्द कर दे। एक क्षण के लिए, इसकी आँखों की रोशनी गायब कर दे…आह, वह यंत्रणा का क्षण जब मैं उसके बराबर एक गज़ के फ़ासले से निकला! एक-एक क़दम तलवार की धार पर पड़ रहा था शैतानी आवाज कानों में आयी-
“कौन है रे, कहाँ से पत्तियाँ तोड़े लाता है?”
मुझे मालूम हुआ, नीचे से ज़मीन निकल गयी है और मैं उसके गहरे पेट में जा पहुँचा हूँ। रोएं बर्छियां बने हुए थे, दिमाग में उबाल-सा आ रहा था, शरीर को लकवा-सा मार गया, जवाब देने का होश न रहा।
क्रमशः