Ab Aur Kya Kisi Se Marasim Badhayen Hum
अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल: अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम,
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम
सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था,
सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम
इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब,
इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम
तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़,
आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम
वो लोग अब कहाँ हैं जो कहते थे कल ‘फ़राज़‘,
है है ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएँ हम
Ab Aur Kya Kisi Se Marasim Badhayen Hum
[रदीफ़- हम]
[क़ाफ़िये- बढ़ाएँ, जाएँ, सदाएँ, जाएँ, लुटाएँ , रुलाएँ]
बहज़ाद लखनवी की ग़ज़ल: ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
Aye Jazba E Dil Gar Main Chahoon Har Cheez Muqabil Aa jaaye
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए,
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए
ऐ दिल की ख़लिश चल यूँही सही चलता तो हूँ उन की महफ़िल में,
उस वक़्त मुझे चौंका देना जब रंग पे महफ़िल आ जाए
ऐ रहबर-ए-कामिल चलने को तय्यार तो हूँ पर याद रहे,
उस वक़्त मुझे भटका देना जब सामने मंज़िल आ जाए
हाँ याद मुझे तुम कर लेना आवाज़ मुझे तुम दे लेना,
इस राह-ए-मोहब्बत में कोई दरपेश जो मुश्किल आ जाए
इस जज़्बा-ए-दिल के बारे में इक मशवरा तुम से लेता हूँ,
उस वक़्त मुझे क्या लाज़िम है जब तुझ पे मिरा दिल आ जाए
ऐ बर्क़-ए-तजल्ली कौंध ज़रा क्या तू ने मुझ को भी मूसा समझा है,
मैं तूर नहीं जो जल जाऊँ जो चाहे मुक़ाबिल आ जाए
आता है जो तूफ़ाँ आने दो कश्ती का ख़ुदा ख़ुद हाफ़िज़ है,
मुमकिन तो नहीं इन मौजों में बहता हुआ साहिल आ जाए
[रदीफ़- आ जाए]
[क़ाफ़िये- मुक़ाबिल, मंज़िल, महफ़िल, मंज़िल, मुश्किल, दिल, मुक़ाबिल, साहिल]