घंटाघर- चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ Chandradhar Guleri Ghantaghar
घनी कहानी, छोटी शाखा: चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी “घंटाघर” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा। एक इंसान ने अपने जाने के लिए एक मार्ग बनाया और उसके बाद वो एक राजमार्ग बन गया, और उस रास्ते से आगे एक पूज्य स्थान बन गया। वो इंसान तो अपने काम के लिए गया था लेकिन लोग उसे पूज्य स्थल मानकर वहाँ जाने लगे।इसी तरह उसके बाद आने-जाने वालों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए गए अहाते, छत, धर्मशाला, कुएँ, तालाब आदि को वहाँ आकर बसने वाले वेदान्ती किसी न किसी प्रथा से जोड़कर लोगों को भ्रमित करने लगे, इसी तरह एक-एक कर नियम बनने लगे और यात्रियों को समय का पता लगाने की सुविधा हो ये सोचकर बनाया गया घंटाघर भी इसी तरह के नियमों से घिर गया। कोई सिर्फ़ उसकी घंटी की मधुर आवाज़ से संतुष्ट होने लगा तो किसी ने उसकी आरती उतारने का नियम बनवा दिया। वहीं वो जगह जो पवित्र मानी जाने लगी थी उसमें सभी का प्रवेश मना था और कोई उसकी दीवार को छूने कोहि नियम बताए लगा इस पर भी कोई उत्तरी दीवार को छूना सही बताता तो कोई दक्षिणी..बात यहाँ भी नहीं थमी थी। अब आगे..)
और भी समय बीता। घंटाघर सूर्य के पीछे रह गया। सूर्य क्षितिज पर आ कर लोगों को उठाता और काम में लगता, घंटाघर कहा करता कि अभी सोए रहो। इसी से घंटाघर के पास कई छोटी-मोटी घड़ियाँ बन गईं। प्रत्येक में की टिक-टिक बकरी और झलटी को मात करती। उन छोटी-मोटियों से घबरा के लोग सूर्य की ओर देखते और घंटाघर की ओर देख कर आह भर देते।
अब यदि वह पुराना घंटाघर, वह प्यारा पाला-पोसा घंटा ठीक समय न बतावे तो चारों दिशाएँ उससे प्रतिध्वनि के मिस से पूछती हैं कि “तू यहाँ क्यों है”
वह घृणा से उत्तर देता है कि “मैं जो कहूँ वही समय है”-
वह इतने ही में संतुष्ट नहीं है कि उसका काम वह नहीं कर सकता और दूसरे अपने आप उसका काम दे रहे हैं, वह इसी में तृप्त नहीं है कि उसका ऊँचा सिर वैसे ही खड़ा है, उसके माँगने को वही वेतन मिलता है, और लोग उसके यहाँ आना नहीं भूले हैं। अब यदि वह इतने पर भी संतुष्ट नहीं, और चाहे कि लोग अपनी घड़ियों के ठीक समय को बिगाड़ उनकी गति को रोकें ही नहीं, प्रत्युत उन्हें उल्टी चलावें, सूर्य उनकी आज्ञानुसार एक मिनट में चार डिग्री पीछे हटे, और लोग जागकर भी उसे देख कर सोना ठीक समझें, उसका बिगड़ा और पुराना काल सबको संतोष दे, तो वज्र निर्घोष से अपने संपूर्ण तेज से, सत्य के वेग से मैं कहूँगा-
“भगवन, नहीं कभी नहीं। हमारी आँखों को तुम ठग सकते हो, किंतु हमारी आत्मा को नहीं। वह हमारी नहीं है। जिस काम के लिए आप आए थे वह हो चुका, सच्चे या झूठे, तुमने अपने नौकरों का पेट पाला। यदि चुपचाप खड़े रहना चाहो तो खड़े रहो, नहीं तो यदि तुम हमारी घड़ियों के बदलने का हठ करोगे तो, सत्यों के पिता और मिथ्याओं के परम शत्रु के नाम पर मेरा-सा तुम्हारा शत्रु और कोई नहीं है। आज से तुम्हारे मेरे में अंधकार और प्रकाश की-सी शत्रुता है, क्योंकि यहाँ मित्रता नहीं हो सकती। तुम बिना आत्मा की देह हो, बिना देह का कपड़ा हो, बिना सत्य के झूठे हो! तुम जगदीश्वर के नहीं हो, और न तुम पर उसकी सम्मति है, यह व्यवस्था किसी और को दी हुई है। जो उचक्का मुझे तमंचा दिखा दे, मेरी थैली उसी की, जो दुष्ट मेरी आँख में सूई डाल दे, वह उसे फोड़ सकता है, किंतु मेरी आत्मा मेरी और जगदीश्वर की है, उसे तू, हे बेतुके घंटाघर, नहीं छल सकता अपनी भलाई चाहे तो हमारा धन्यवाद ले, और-और और चला जा!!” Chandradhar Guleri Ghantaghar