Deep Shayari
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
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निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन,
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
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हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
मिर्ज़ा ग़ालिब
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फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं,
फिर वही ज़िंदगी हमारी है
मिर्ज़ा ग़ालिब
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बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा
शौक़ बहराइची
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वो बेदर्दी से सर काटें ‘अमीर’ और मैं कहूँ उनसे,
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता
अमीर मीनाई
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कश्तियाँ सबकी किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिनका नहीं उनका ख़ुदा होता है
अमीर मीनाई
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गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है ‘अमीर’
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना
अमीर मीनाई
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ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम ‘अमीर’
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है
अमीर मीनाई
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अच्छे ईसा हो मरीज़ों का ख़याल अच्छा है
हम मरे जाते हैं तुम कहते हो हाल अच्छा है
अमीर मीनाई
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साफ़ कहते हो मगर कुछ नहीं खुलता कहना
बात कहना भी तुम्हारा है मुअम्मा कहना
अमीर मीनाई
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कहानी ख़त्म हुई और ऐसी ख़त्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियाँ बजाते हुए
रहमान फ़ारिस
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ख़ुशी से काँप रही थीं ये उँगलियाँ इतनी
डिलीट हो गया इक शख़्स सेव करने में
फ़हमी बदायूनी
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कहानी ख़त्म हुई और ऐसी ख़त्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियाँ बजाते हुए
रहमान फ़ारिस
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चुप-चाप सुनती रहती है पहरों शब-ए-फ़िराक़
तस्वीर-ए-यार को है मिरी गुफ़्तुगू पसंद
दाग़ देहलवी
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आपका ए’तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे
दाग़ देहलवी
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‘दाग़’ की शक्ल देख कर बोले
ऐसी सूरत को प्यार कौन करे
दाग़ देहलवी
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बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं
दाग़ देहलवी
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उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
दाग़ देहलवी
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‘दाग़’ क्यूँ तुमको बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
दाग़ देहलवी
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‘दाग़’ क्यूँ तुमको बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
दाग़ देहलवी
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टहलते फिर रहे हैं सारे घर में
तिरी ख़ाली जगह को भर रहे हैं
फ़हमी बदायूनी
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सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की,
वर्ना ये फ़क़त आग बुझाने के लिए हैं
जाँ निसार अख़्तर
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तुम ये कहते हो कि मैं ग़ैर हूँ फिर भी शायद
निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो
जावेद अख़्तर
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याद उसे भी एक अधूरा अफ़्साना तो होगा
कल रस्ते में उसने हमको पहचाना तो होगा
जावेद अख़्तर
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तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे
अब मिलते हैं जब भी फ़ुर्सत होती है
जावेद अख़्तर
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अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
महशर बदायूँनी
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हमको नीचे उतार लेंगे लोग
इश्क़ लटका रहेगा पंखे से
ज़िया मज़कूर
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उसके गाँव की एक निशानी ये भी है
हर नलके का पानी मीठा होता है
ज़िया मज़कूर
Deep Shayari
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दिल तुझे पा के भी तन्हा होता
दूर तक हिज्र का साया होता
अहमद हमदानी
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जो हम पे गुज़रे थे रंज सारे जो ख़ुद पे गुज़रे तो लोग समझे
जब अपनी अपनी मुहब्बतों के अज़ाब झेले तो लोग समझे
अहमद सलमान
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उस एक कच्ची सी उम्र वाली के फ़लसफ़े को कोई न समझा
जब उस के कमरे से लाश निकली ख़ुतूत निकले तो लोग समझे
अहमद सलमान
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ये शहर सारा तो रौशनी में खिला पड़ा है सो क्या लिखूँ मैं
वो दूर जंगल की झोंपड़ी में जो इक दिया है वो शाइरी है
अहमद सलमान
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है इक तमीज़ कि बाहर निकल नहीं सकता,
तुम्हारा हाथ पकड़ कर मैं चल नहीं सकता
अरग़वान
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Deep Shayari
बदल गया जो ज़माने की आज़माइश से,
मिरे अज़ीज़ ! वो दुनिया बदल नहीं सकता
अरग़वान
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लाश निकलेगी मिरे सीने से,
लेके जाएँगे जलाने वाले
अरग़वान
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यूँ जी बहल गया है तिरी याद से मगर
तेरा ख़याल तेरे बराबर न हो सका
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
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मैं अपने ख़ूँ से जलाऊँगा रहगुज़र के चराग़,
ये कहकशाँ ये सितारे मुझे क़ुबूल नहीं
शकेब जलाली
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यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है,
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
शकील बदायूँनी
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होगा किसी दीवार के साए में पड़ा ‘मीर’
क्या काम मुहब्बत से उस आराम-तलब को
मीर तक़ी मीर
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जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए
मीर तक़ी मीर
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बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
मीर तक़ी मीर
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यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
मीर तक़ी मीर
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देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
मीर तक़ी मीर
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राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
मीर तक़ी मीर
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हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
मीर तक़ी मीर
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इश्क़ इक ‘मीर’ भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है
मीर तक़ी मीर
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बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हमको
देर से इंतिज़ार है अपना
मीर तक़ी मीर
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गुफ़्तुगू रेख़्ते में हमसे न कर
ये हमारी ज़बान है प्यारे
मीर तक़ी मीर
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मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
मीर तक़ी मीर
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‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुमसे प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो
मीर तक़ी मीर
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दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ कर
मीर तक़ी मीर
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ख़ुदा करे वो पेड़ ख़ैरियत से हो
कई दिनों से उसका राब्ता नहीं
तहज़ीब हाफ़ी
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शोर करूँगा और न कुछ भी बोलूँगा
ख़ामोशी से अपना रोना रो लूँगा
तहज़ीब हाफ़ी
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मैं तेरे दुश्मन लश्कर का शहज़ादा
कैसे मुमकिन है ये शादी शहज़ादी
तहज़ीब हाफ़ी
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मैं उसको हर रोज़ बस यही एक झूठ सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है
तहज़ीब हाफ़ी
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मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे
तहज़ीब हाफ़ी
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बिखेर दे मुझे चारों तरफ़ ख़लाओं में
कुछ इस तरह से अलग कर कि जुड़ न पाऊँ मैं
मुहम्मद अल्वी
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चोरी चोरी हमसे तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
हसरत मोहानी
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ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है
इक़बाल
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उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़
हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा
अमीर क़ज़लबाश
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मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जाएगा
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता
यगाना चंगेज़ी
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आँसूओं में हिज्र में बरसात रखिए साल भर,
हमको गर्मी चाहिए हरगिज़ ना जाड़ा चाहिए
नासिख़
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मेरी बातों से कुछ सबक़ भी ले,
मेरी बातों का कुछ बुरा भी मान
राहत इन्दौरी
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चाहिए उसका तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना
देख कर तस्वीर को तस्वीर फिर खींची तो क्या
बहादुर शाह “ज़फ़र”
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अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या
मुनीर नियाज़ी
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ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
शम्अ का जिस्म पिघलने के बाद आई है
इंदिरा वर्मा
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वो दिन कब के बीत गए जब दिल सपनों से बहलता था
घर में कोई आए कि न आए एक दिया सा जलता था
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
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हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मिर्ज़ा ग़ालिब
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न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
मिर्ज़ा ग़ालिब
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बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे,
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे (बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल: बच्चों का खेल)
मिर्ज़ा ग़ालिब
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बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
मिर्ज़ा ग़ालिब
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थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गए,
तेरा पता न पाएँ तो नाचार क्या करें
मिर्ज़ा ग़ालिब
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ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’,
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
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रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
मिर्ज़ा ग़ालिब
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
मिर्ज़ा ग़ालिब
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Deep Shayari