हाथी की फाँसी- गणेशशंकर विद्यार्थी Ganesh Shankar Vidyarthi ki kahani Haathi Ki Phansi
घनी कहानी, छोटी शाखा: गणेशशंकर विद्यार्थी की कहानी “हाथी की फाँसी” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: गणेशशंकर विद्यार्थी की कहानी “हाथी की फाँसी” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: गणेशशंकर विद्यार्थी की कहानी “हाथी की फाँसी” का तीसरा भाग
भाग-4
(अब तक आपने पढ़ा… राज्य न होने के बाद भी नवाब साहब की नवाबी नहीं गयी है, अपनी कोठी में बैठकर वो मुसाहिबों की तारीफ़ें सुनकर धन लुटाते रहते हैं..जब सैयद नजमुद्दीन ने नवाब साहब को बताया कि शहर से दूर मैदान में अंग्रेज़ हाथी को फाँसी देने वाले हैं और इस आयोजन को देखने के लिए बड़े-बड़े रईस शामिल होंगें तो नवाब साहब ने भी पूरी पलटन तैयार कर ली…इसके लिए मुसाहिबों को कश्मीरी दुशाले दिए गए और जब सब सुबह पाँच बजे वहाँ पहुँचे तो पूरा मैदान साफ़…इंतजार में नवाब साहब और साथियों ने जलपान ग्रहण किया लेकिन तब भी कोई वहाँ नज़र नहीं आने पर नवाब साहब गुस्से में वापसी का आदेश देते हैं…हाथी की फाँसी जैसी ऐतिहासिक घटना के साक्षी बनने गए नवाब साहब के ख़ाली हाथ लौटने से सैयद नजमुद्दीन का क्या हाल होगा?..आइये जानते हैं) Ganesh Shankar Vidyarthi ki kahani Haathi Ki Phansi
उस दिन नवाब साहब बहुत नाराज़ रहे। किसी की हिम्मत न थी कि उनसे कुछ कहता। सैयद नज़मुद्दीन पर तो वे बेतरह बिगड़े। तीसरे पहर वे आकर अपने बाहरी कमरे में बैठे। थोड़ी देर बाद वे दिखाई दिए। आकर ज़मींदोज़ सलाम करके बैठ गये। नवाब साहब देखते ही उन पर बरस पड़े। बोले- “तुम बड़े नामाकूल हो। यह क्या हरकत की थी? हमें कितनी तकलीफ़ हुई और बेगम साहिबा कितनी परेशान हुई! तुमने इस तरह का चकमा क्यों दिया? दूर हो मेरी आँखों के सामने से, नमकहराम कहीं का!”
सैयद नज़मद्दीन ने बहुत आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि “हुज़ूर, ख़ता मुआफ़ हो। मैं समझा नहीं। इस गुलाम से आज तक ज़र्रा बराबर भी नमकहरामी हुई हो तो जो चोर की सज़ा सो इसकी सज़ा। हुज़ूर की नाराज़गी मेरे लिए कहरे ख़ुदा से कम नहीं। ख़ता हो, तो सज़ा मिले, मगर हुज़ूर नाराज़ न हों।
नवाब साहब- “शरम नहीं आती, कितना धोखा दिया! क्या बात गढ़ी कि हाथी को फाँसी होगी। हज़ारों आदमी तमाशा देखने आवेंगे। इतनी रात में, इतनी सर्दी में हम लोग इतनी दूर गये। वहाँ हाथी और हजूम क्याा, तुम्हारी शक्ल तक न दिखलाई दी। बड़े नामाकूल हो। बस, अब इसी में खैरियत है कि तुम यहाँ से चले जाओ और हरगिज़ कभी अपनी सूरत न दिखलाओ”
सैयद नज़मुद्दीन हाथ बाँधकर बोले- “ हुज़ूर , मेरी ज़रा-सी ग़लती नहीं अगर ग़लत हो तो गर्दन-जदनी के क़ाबिल समझा जाऊँ। मैं ठीक पौने पाँच बजे मैदान में पहुँचा। उस वक़्त फाँसी की तैयारी हो चुकी थी। फाँसी की टिकटी खड़ी थी। मशालों की रोशनी तो हो रही थी। बहुत तो नहीं लेकिन पाँच सौ से ज़्यादा आदमी वहाँ जमा थे”
नवाब साहब- “झूठ-झूठ! मुझे तो आदमी क्या, चिडि़या भी न दिखाई दी”
सैयद- “ हुज़ूर, जानबख्शी हो, मेरी बात सुन लीजिए और फिर अगर मेरी ख़ता हो तो मुँह काला करके और गधे पर सवार करा कर शहर-बदर कर दिया जाऊँ”
नवाब साहब- “अच्छा कहो”
सैयदजी- “तो मैं जिस वक़्त पहुँचा उस वक्त फाँसी होने की पूरी तैयार हो चुकी थी। मेरे पहुँचने से मुश्किल से कोई पाँच मिनट के बाद ही हाथी लाया गया। उसके पैरों में मोटी-मोटी लोहे की ज़ंजीरें पड़ी हुई थीं। उसके चारो तरफ 109 तिलंगे थे जिनके हाथों में बहुत पैने बल्लम थे। धीरे-धीरे हाथी टिकटी पर लाया गया। उसके गले में फाँसी का फंदा छोड़ा गया। फिर दो फिरंगी आए। टिकटी के पास एक पहियेदार मशीन रखी हुई थी जिसमें फाँसी की रस्सा लिपटा हुआ था। एक फिरंगी मशीन के पास खड़ा हो गया और दूसरा हाथ में घड़ी लेकर सामने। ज्यों ही पाँच के घंटे पर मुँगरी पड़ी, त्यों ही घड़ी वाले फिरंगी ने ज़ोर से कहा, “वन”
उसके “वन” कहते ही सब चुपचाप खड़े हो गये। उसने फिर कहा, ‘टू’ और उसके बाद ही उसने कहा, ‘थ्री।‘ उसका तीन कहना था कि मशीन के पास खड़े फिरंगी ने कुछ इशारा किया और मशीन घूमने लगी। इधर मशीन घूमने लगी, उधर हाथी की गर्दन ऊपर उठने लगी और दम की दम में वह फड़फड़ाता हुआ ऊपर लटक गया। उसकी जान निकलने में मुश्किल से एक मिनट लगा। यह सब काम पाँच बजकर एक मिनट पर ख़त्म हो गया।
नवाब- “क्याा कहा, पाँच बजकर एक मिनट पर?”
सैयद- “जी हाँ, हुजूर, फिरंगी लोग वक़्त के बड़े पाबंद होते हैं। इसलिए हमेशा अपने पास घड़ी रखते हैं। क्या मजाल जो वक़्त वे मुकर्रर करें उससे उनका काम एक पल के लिए इधर से उधर हो जाए”
नवाब साहब (मुसाहिबों से) – “हम लोग किस वक़्त पहुँचे थे?”
मुन्नेा मिर्जा- “हुज़ूर, हम लोग साढ़े पाँच के बाद पहुँचे होंगे”
सैयद (जल्दी से)- “तो बात यह है। हुज़ूर तो साढ़े पाँच बजे पहुँचे। उस वक़्त तक तो सब कुछ ख़त्म हो चुका था। हुज़ूर देखते तो क्या देखते, लोग तो उस समय तक अपने-अपने घर तक जा चुके थे और मैदान साफ़ हो गया होगा”
नवाब साहब- “क्या” हाथी की लाश को भी इतनी जल्द उठा ले गये?”
सैयद- “ हुज़ूर, गड्ढा खुदा तैयार था। उधर हाथी मरा, उधर उसे घसीटकर गड्ढे में डाल दिया। पाँच मिनट में उसे तोप दिया गया”
सैयद- “ हुज़ूर, मैंने मैदान छान डाला और जब मैंने देखा कि हुज़ूर तशरीफ़ नहीं लाए, तब यह समझ करके कि सर्दी की वजह से हुज़ूर ने आने का इरादा तर्क कर दिया होगा, मैं वापस चल दिया। गुलामज़ादे की हालत की वजह से सुबह को हकीमजी के यहाँ पहुँचना था। उसकी दवा-दारू से दोहपर को जाकर फुर्सत मिली। बस, अब खाना पाकर इधर ही आ रहा हूँ”
नवाब साहब- “तो तुमने हाथी को फाँसी पर चढ़ते अपनी आँखों से देखा?”
सैयद- “ हुज़ूर, ख़ुदा की क़सम, इन्हीं आँखों से देखा। अजब वाक़या था, ज़िन्दगी-भर नहीं भुलूँगा। कलंक इस बात का है कि हुज़ूर वक़्त से न पहुँचे”
नवाब- “लेकिन ऐसी भी क्या जल्दी” थी, ज़रा सवेरा हो लेने देते, तब उसे फाँसी देते”
सैयद- “ हुज़ूर, फिरंगियों के काम ऐसे ही होते हैं। वे अपने कामों को चाहे जलजला आवे और चाहे बिजली गिरे, एक मिनट भी इधर-उधर नहीं होने देते”
नवाब साहब हाथी की फाँसी का मंज़र अपनी आँखों न देख पाने के लिए मन मसोसकर रह गए.
समाप्त
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