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Ghalib Aur Zauq ki Ghazalen ~ “साहित्य दुनिया” केटेगरी के अंतर्गत “दो शा’इर, दो ग़ज़लें” सिरीज़ में हम आज जिन दो शा’इरों की ग़ज़लें आपके सामने पेश कर रहे हैं वो एक ही दौर के हैं और उर्दू शा’इरी में उस्ताद माने जाते हैं. शेख़ इब्राहिम “ज़ौक़” जो कि आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह “ज़फ़र” के उस्ताद थे और हमारे सबके अज़ीज़ मिर्ज़ा असदउल्लाह ख़ाँ “ग़ालिब”.

Ghalib Ke Baare Mein Parag Agrawal Ghalib Aur Zauq ki Ghazalen
Ghalib
मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल:  बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना

गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की
दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना

वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना

जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना

इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना

ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात
तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना

इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना

की मिरे क़त्ल के बा’द उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशेमाँ होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना

[रदीफ़- होना]
[क़ाफ़िये- आसाँ,  इंसाँ, बयाबाँ, हैराँ,  मिज़्गाँ, उर्यां , गुलिस्ताँ, दाँ,  पशेमाँ, गरेबाँ]

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“ज़ौक़” की ग़ज़ल: अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे

तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे

ख़ाली ऐ चारागरो होंगे बहुत मरहम-दाँ
पर मिरे ज़ख़्म नहीं ऐसे कि भर जाएँगे

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे

आग दोज़ख़ की भी हो जाएगी पानी पानी
जब ये आसी अरक़-ए-शर्म से तर जाएँगे

सामने चश्म-ए-गुहर-बार के कह दो दरिया
चढ़ के गर आए तो नज़रों से उतर जाएँगे

लाए जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आँखें
और अगर कुछ नहीं दो फूल तो धर जाएँगे

रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-माह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे

ज़ौक़‘ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे

[रदीफ़- जाएँगे]
[क़ाफ़िये- मर, किधर, ठहर, भर, मुकर, तर, उतर, धर, उतर, संवर]

*[दोनों ही ग़ज़लों में पहला शे’र पूरी तरह से रंगीन है, ये ग़ज़ल का मत’ला है, मत’ला के दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया का इस्तेमाल किया जाता है]
**[ग़ज़ल के आख़िरी शे’र को मक़ता कहा जाता है. दोनों ही ग़ज़लों के आख़िरी शे’र में शा’इर ने तख़ल्लुस (pen name) का इस्तेमाल किया है, अक्सर मक़ते में शा’इर अपने तख़ल्लुस का इस्तेमाल करते हैं]
***[हर शेर में दो लाइनें होती हैं, लाइन को मिसरा कहा जाता है.. पहली लाइन को मिसरा ए ऊला (ऊला मिसरा) और दूसरी लाइन को मिसरा ए सानी (सानी मिसरा) कहा जाता है.] ~ Ghalib Aur Zauq ki Ghazalen

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