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हाथी की फाँसी- गणेशशंकर विद्यार्थी Haathi Ki Phansi
घनी कहानी, छोटी शाखा: गणेशशंकर विद्यार्थी की कहानी “हाथी की फाँसी” का पहला भाग
भाग-2

(अब तक आपने पढ़ा…पुराने ज़माने के नवाबों वाले शौक़ रखने वाले नवाब साहब का राज्य तो उनके हाथ से चला गया था लेकिन उनकी कोठी भी किसी राजमहल से कम न थी और उनका दिल। भी किसी नवाब का ही दिल था। मसाहिबों को बस ये करना होता कि किसी तरह नवाब साहब को बहलाकर उनसे अपना मतलब निकाल लिया करते। जैसे एक रोज़ मुन्ने मिर्ज़ा ने उन्हें अपना एक ऐसा सपना कह सुनाया जिसमें नवाब साहब की सरपरस्ती जाने माने बुज़ुर्गवार कर रहे थे वो भी मक्का शरीफ़ में, बस इन बातों को सुनकर नवाब साहब फूले न समाए और साथ ही बाक़ी मौजूद लोगों ने भी तारीफ़ में क़सीदे कस दिए। इस तरह से नवाब साहब ख़ुश हुए और ग़रीबों को मनपसंद खाना खिलाने का हुक्म दे दिया जो कितना ग़रीबों तक पहुँचा और कितना दूसरों तक इसका हिसाब नवाब साहब तो रखते ही नहीं। कुछ इसी तरह महफ़िल रोज़ चला करती। अब आगे…)

Haathi Ki Phansi
नवाब साहब की महफ़िल जमी थी। मुसाहिब लोग करीने से अदब के साथ बैठे हुए थे। नवाब साहब मसनद लगाए लखनऊ की बढ़िया ख़ुशबूदार तंबाकू-वाले हुक्के की लंबी सटक को मुँह में लगाए यारों की ख़ुशगप्पियाँ सुन रहे थे। कभी-कभी बीच में ख़ुद भी कुछ इरशाद कर दिया करते थे। पिछले सफ़र का ज़िक्र था। नवाब साहब और उनके हाली-मुहाली बंबई गये थे। पहले बंबई की ख़ूबसूरत इमारतों, उसकी शानदार सड़कों, चौपाटी, जहाज़ों आदि का ज़िक्र होता रहा और फिर उसके बाद जी.आई.पी.आर. की बढ़िया गाड़ियों की तारीफ़ होती रही। बीच में नवाब साहब ने फरमाया-

“अल्लाह! रेल भी कितने आराम की चीज़ है। अजी यह किसने बनाई और कब से बनी है?”

मुन्ने मिर्जा- “हुज़ूर, ठेकेदारों ने बनाई है, बहुत दिन हुए तब बनी थी”

हाफ़िज़- “ठेकेदार बनावेंगे अपना सिर! हुज़ूर, फिरंगियों ने रेल चलाई। उनके दिमाग़ से रेल निकली”

मियाँ यासीन- “ हुज़ूर, इन्हें नहीं मालूम। रोम के सुल्तान ने सबसे पहले रेल चलाई। रोम के सुल्तानों से बढ़कर दुनिया में कोई बादशाह नहीं। फिरंगी उसके सामने क्या है? फिरंगियों की इस पोशाक को आपने ग़ौर से मुलाहिजा फ़रमाया है”

नवाब- “क्यों? क्या बात है?”

मियाँ यासीन- “इनकी पतलून अपने साथ एक तवारीख़ी वाक़या रखती है किसी ज़माने में रोम के सुल्तान ने फिरंगियों को पकड़-पकड़कर ग़ुलाम बनाया था और उनको यह पतलून इसलिए पहनाई कि हमेशा दस्तन–बस्ताक खड़े रहें”

मियाँ- “हाँ, हुज़ूर और ये रेलें जब पहले-पहल रोम के सुल्तान ने चलाई तब उनसे यह काम नहीं लिया जाता था जो इस वक़्त लिया जाता है।”

नवाब साहब- “जो उनसे क्या काम लिया जाता था?” Haathi Ki Phansi

मियाँ यासीन- “ हुज़ूर, हज़रते सुल्तान उस वक़्त इसे अपनी मुअज्जिज रिआया की शान के ख़िलाफ़ समझते थे कि उसका कोई फ़र्द रेल पर सवार हो। रोम की लाइंतहा सल्तनत का कोई भी इज़्ज़तदार आदमी रेल पर सवार नहीं हुआ करता था। रेलों पर फिरंगियों के ज़रिए शहरों का कूड़ा-करकट और मैला ढोकर बाहर जंगल में फेंका जाया करता था। यह तो अब कुछ दिनों से फिरंगियों ने रेल के भाप में मलका हासिल कर लिया है और उसे सजाकर उससे आदमियों की सवारी का काम लेने लगे। लेकिन हुज़ूर अब भी रोम की वसीयत सल्तनत में अरब, हस्तक, तातार, ईरान, ईराक, कराकश वग़ैरह दुनिया के बड़े-बड़े मुल्कों में रेल में किसी भले आदमी का सवार होना बहुत मायूस समझा जाता है”

नवाब साहब- “क्यों जी, अब इन फिरंगियों ने रेल को बहुत फरोज दे डाला है”

हरचरन भाट पीछे बैठे हुए थे। उन्होंने चुप रहना उचित न समझा। वे कुछ देर से कुछ सोच रहे थे। इस बार मियाँ यासीन या और कोई नवाब साहब की बात का कोई उत्तर देने के लिए ज़बान हिलाए उससे पहले ही रायजी ने कहा-” हुज़ूर फिरंगियों ने तरक्की की तो ज़रूर, मगर काली माई की मर्ज़ी के बिना रेल का पहिया घूम नहीं सकता। रेल जब अपने स्थान से चलती है तब सबसे पहले काली माइया के नाम पर इंजन के सामने एक काला बकरा काटा जाता है और उसके ख़ून का टीका इंजन के माथे पर लगाया जाता है। अगर ऐसा न हो, रेल टस-से-मस न हो”

सैयद नज़मुद्दीन से न रहा गया। वे बीच में ही रायजी की बात काटकर बोले, “ हुज़ूर, ये रायजी हैं पूरे चोंच। क्या बात लाए हैं! कालीजी के लिए बकरा कटता है और इंजन के माथे पर टीका लगाया जाता है। बूढ़े हो रहे हो, लेकिन रहे निरे बुद्धू ही। इंजन भाप के ज़ोर से चलता है। उसके लिए न काली माई के बकरे की ज़रूरत है और न गोरी माई की बिल्ली की। हुज़ूर यह सब अक़्ल का करिश्मा है। रोम और ईरान से इस अक़्ल का सिलसिला हुआ। फिरंगियों ने तो नक़ल की। लेकिन खुदा की कसम, ऐसी नक़ल की कि इस वक़्त उनकी दुनिया-भर में धूम है। इस वक़्त तो इस मुल्क में जिधर देखो उधर फिरंगी और उसकी अक़्ल के नज़ारे नज़र आते हैं। हाँ, हुज़ूर अब बहुत देर हो गयी है। मुझे एक ख़बर और गोश-गुज़ार करना है। कहीं भूल न जाऊँ इसलिए फ़ौरन ही कह देना ज़रूरी समझता हूँ। परसों अपने शहर में एक बड़ा अजीब वाक़या होने वाला है?

नवाब साहब (बहुत जल्दी से) – “वह क्या? वह क्या है? ख़ैरियत तो है?”

सैयद नजमुद्दीन –”जी हुज़ूर सब ख़ैरियत है। घबराने की कोई भी बात नहीं। बात ये है कि शहर से दूर मैदान में हाथी को फाँसी दी जाएगी, लेकिन ये काम सुबह पाँच बजे होगा और बहुत भीड़ हो जाएगी, बड़े-बड़े रईस जाने वाले हैं”

नवाब साहब- “अच्छा! रईस लोग जा रहे हैं तो हम भी चलेंगे। दारोगा को हुक्म दो कि तैयारी करे। पाँच बजे बहुत अँधेरा रहता है। जाड़े के दिन हैं। वक़्त बहुत खराब है”

सैयद- “ये फिरंगी बड़े चलते-पुर्ज़े होते हैं। उन्हों ने यह वक़्त जानबूझकर रखा, जिससे लोग पहुँच न सकें और इस दिलचस्प तमाशे को न देख सकें।”

नवाब- “ख़ैर, कोई हर्ज़ नहीं। हम लोग चलेंगे। बावर्ची पहले से पहुँच जाए और खाना तैयार रखे। दारोगा वहाँ आराम का पूरा इंतजाम रखे”

मुन्ने मियाँ- “जी, जाड़ा बहुत है। हम लोग, कोई बात नहीं, जहाँ हुज़ूर हों, वहाँ हम खादिमों का पहुँचना हर तरह लाज़मी है। अगर जाड़े से कुछ तकलीफ़….।

नवाब- “नहीं जी, जाड़े से तकलीफ़ क्यों हो। दारोगा, इन लोगों को कश्मीर के दुशाले की जोड़ियाँ दे देना और वहाँ आराम करने का सब बंदोबस्त कर रखना”

क्रमशः Haathi Ki Phansi
घनी कहानी, छोटी शाखा: गणेशशंकर विद्यार्थी की कहानी “हाथी की फाँसी” का तीसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: गणेशशंकर विद्यार्थी की कहानी “हाथी की फाँसी” का अंतिम भाग

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