सैयद इंशा अल्लाह ख़ाँ ‘इंशा’ ( Insha Allah Khan Shayari ) का जन्म 1752 में हुआ था. इंशा के पिता का नाम मीर माशा अल्लाह ख़ाँ था. ये उच्च वंशीय थे और इनके बारे में कहा जाता है कि इनके पूर्वज समरकंद से आकर दिल्ली में बसे थे. इनका ख़ानदान निहायत शरीफ़ था और ख़ानदानी प्रतिष्ठा ऐसी थी कि घर की औरतों के कपड़े घर में ही धुलते थे या फिर जला दिए जाते थे. किसी भी सूरत में धोबी को स्त्रियों के कपड़े न दिए जाते थे.
फ़िराक़ गोरखपुरी अपनी किताब में लिखते हैं इंशा का जन्म दिल्ली में हुआ, हालाँकि विकिपीडिया पर दी गई जानकारी में इनका जन्म-स्थान मुर्शिदाबाद लिखा गया है. पिता मीर माशा कुछ वक़्त के लिए मुर्शिदाबाद के दरबार में चले गए लेकिन मुग़ल बादशाह शाह आलम के ज़माने में वापिस दिल्ली आ गए. इस समय तक इंशा जवान हो चुके थे. शिक्षा तो अच्छे से हुई लेकिन इनका ज़्यादा मन शेर-ओ -शाइरी में ही लगा.
इंशा की ख़ास बातों में एक बात ये भी है कि इन्होने कभी किसी को उस्ताद न बनाया. इंशा के बारे में फ़िराक़ का मानना है कि इन्हें अपनी शायरी पर बड़ा गर्व था बस यही सोचकर उन्होंने कोई उस्ताद न रखा कि पुराने शाइर उनकी क़द्र नहीं करेंगे. इनकी शाइरी के क़ायल बादशाह शाह आलम भी थे. बादशाह इंशा को इतना पसंद करने लगे कि अपने से दूर नहीं होने देना चाहते थे, इसकी एक वजह तो इंशा की शाइरी थी लेकिन एक और वजह इंशा की मज़े की बातें भी थीं.
इंशा लेकिन रवायती शाइरों को कुछ न समझते थे और एक समय ऐसा भी आया जब इंशा ने इन शाइरों से कलमी लड़ाई छेड़ दी, इतना ही नहीं इंशा ने तो बादशाह से कह दिया कि आप अपनी ग़ज़लें मुशाइरों में भेजते हैं तो ये लोग उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं. बादशाह ने इसके बाद मुशाइरों में ग़ज़लें भेजना बंद कर दीं. शाइरों को इंशा की ये हरकत बिलकुल अच्छी न लगी. दूसरी ओर शाह आलम को इंशा ने बातों के जाल में फँसा रखा था. बादशाह से ये मीठी बातें करते और कुछ पैसे इसी तरह निकाल लेते लेकिन ये सब बहुत दिन तो चलने वाला था नहीं इसलिए इन्होने दूसरी जुगाड़ ढूंढना शुरू किया. लखनऊ के नवाब आसिफ़ुद्दौला के बारे में जब इन्होने सुना तो ये लखनऊ पहुँच गए. आसिफुद्दौला और सुलेमान शिकोह के दरबार में ये पहुँच गए. मिर्ज़ा सुलेमान शिकोह पहले मुसहफ़ी से अपनी कविताओं में संशोधन कराते थे लेकिन अब मामला पलट गया था.
मुसहफ़ी ने शाइरी के ज़रिये इंशा पर हमला बोला तो इंशा उनके पीछे पड़ गए. हद तो ये हुई कि दोनों जुलूस बनाकर अपने अपने साथियों के साथ बाक़ायदा गश्त करने लगे. कुछ दिन बाद इंशा को नवाद सआदत अली ख़ान के दरबार में पहुँचा दिया गया. नवाब साहब से इंशा की ख़ूब पटी. इंशा हंसी-ठिठोली की बातें किया करते थे तो नवाब साहब का भी ख़ूब मनोरंजन होता था लेकिन इसी तरह की बातों में एक दिन इंशा ने कुछ ऐसा कह दिया कि नवाब सआदत इनसे नाराज़ हो गए. असल में इंशा ने मज़ाक़ में कुछ ऐसा कह दिया जिससे ऐसा इशारा होता था कि नवाब किसी दासी के पुत्र हैं. नवाब नाराज़ तो पहले ही हो गए थे, फिर एक रोज़ बहाना मिला तो इन्हें दरबार के अलावा कहीं भी न जाने का आदेश दे दिया.
इंशा के लिए ये दौर जेल की तरह था. इसी समय इनके जवान बेटे की मौत हो गई, जवान बेटे की मौत ने इंशा को बुरी तरह तोड़ दिया. इंशा की दिमाग़ी हालत बहुत ख़राब हो गई. फिर एक रोज़ जब नवाब साहब की सवारी इनके घर के सामने से गुज़र रही थी, इन्होने उनके मुँह पर ही उन्हें भला-बुरा कह डाला. नवाब ने महल वापिस लौटते ही इनका वेतन बंद कर दिया. इंशा के आख़िरी दिन मुसीबत से गुज़रे. नीम-पागलपन की दशा में कई बरस रहे और फिर 1817 में दुनिया को अलविदा कह दिया.
लखनवी शायरी ~ ग़ुलाम हमदानी ‘मुसहफ़ी’
इंशा के बारे में फ़िराक़ का कहना है कि ये बड़े विद्वान पुरुष थे. अगर इनकी विनोद-प्रियता इतनी न बढ़ी होती तो इनका बहुत सम्मान होता. इंशा को उर्दू के अलावा फ़ारसी और अरबी का तो ज्ञान था ही, कई अन्य भारतीय भाषाओं पर भी इंशा की अच्छी पकड़ थी. भाषा पर इंशा की कमांड इसी बात से समझी जा सकती है कि इन्होने देशज शब्दों में एक पूरी किताब ‘रानी केतकी की कहानी’ लिख डाली. इस पूरी किताब में एक भी शब्द संस्कृत, अरबी या फ़ारसी का नहीं है. इंशा ने एक छोटा दीवान ऐसा भी लिखा जिसमें फ़ारसी लिपि का कोई भी बिंदी वाला अक्षर प्रयोग नहीं किया. इंशा के काव्य को अगर किसी ने ख़राब किया तो उनकी बेपरवाह विनोद-प्रियता ने. इसी ने उनका निजी जीवन बर्बाद किया तो इसी की वजह से उनकी कविताओं से गंभीरता जाती रही. हालाँकि जब दरबारदारी ख़त्म हुई, उसके बाद जो उन्होंने कहा वो बेजोड़ है.
Insha Allah Khan Shayari
शाइरी का नमूना ..
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कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गए बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं
न छेड़ ऐ निकहत-ए-बाद-ए-बहारी राह लग अपनी
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं हम बे-ज़ार बैठे हैं
ख़याल उनका परे है अर्श-ए-आज़म से कहीं साक़ी
ग़रज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं
कहीं बोसे की मत जुरअत दिला कर बैठियो उन से
अभी इस हद को वो कैफ़ी नहीं हुश्यार बैठे हैं
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अच्छा जो ख़फ़ा हमसे हो तुम ऐ सनम अच्छा
लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा
मशग़ूल किया चाहिए इस दिल को किसी तौर
ले लेवेंगे ढूँड और कोई यार हम अच्छा
गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई
हर तौर ग़रज़ आप से मिलना ही कम अच्छा
अग़्यार से करते हो मिरे सामने बातें
मुझ पर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा
हम मोतकिफ़-ए-ख़ल्वत-ए-बुत-ख़ाना हैं ऐ शैख़
जाता है तो जा तू पए-तौफ़-ए-हरम अच्छा
जो शख़्स मुक़ीम-ए-रह-ए-दिलदार हैं ज़ाहिद
फ़िरदौस लगे उन को न बाग़-ए-इरम अच्छा
कह कर गए आता हूँ कोई दम को अभी मैं
फिर दे चले कल की सी तरह मुझ को दम अच्छा
इस हस्ती-ए-मौहूम से मैं तंग हूँ ‘इंशा’
वल्लाह कि इस से ब-मरातब अदम अच्छा
Insha Allah Khan Shayari