Shakeel Badayuni Shayari
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
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ऐ मुहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मुहब्बत का ‘शकील’
मुझको अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
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चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल
हौसला किस का बढ़ाता है कोई
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कैसे कह दूँ कि मुलाक़ात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
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मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे
मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी इसी रौशनी से है ज़िंदगी
मुझे डर है ऐ मिरे चारा-गर ये चराग़ तू ही बुझा न दे
मुझे छोड़ दे मिरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारा-गर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मिरा दर्द और बढ़ा न दे
वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ ‘शकील’ कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे
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कोई आरज़ू नहीं है कोई मुद्दआ’ नहीं है
तिरा ग़म रहे सलामत मिरे दिल में क्या नहीं है
तू बचाए लाख दामन मिरा फिर भी है ये दावा
तिरे दिल में मैं ही मैं हूँ कोई दूसरा नहीं है
मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे
ये मुतालबा है हक़ का कोई इल्तिजा नहीं है
ये उदास उदास चेहरे ये हसीं हसीं तबस्सुम
तिरी अंजुमन में शायद कोई आइना नहीं है
मिरी आँख ने तुझे भी ब-ख़ुदा ‘शकील’ पाया
मैं समझ रहा था मुझ सा कोई दूसरा नहीं है
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जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं
ज़हर पी कर दवा से डरते हैं
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मुझे तो क़ैद-ए-मुहब्बत अज़ीज़ थी लेकिन
किसी ने मुझ को गिरफ़्तार कर के छोड़ दिया
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लखनवी शायरी ~ ग़ुलाम हमदानी ‘मुसहफ़ी’
लखनवी शायरी ~ सैयद इंशा अल्लाह ख़ाँ ‘इंशा’
उन का ज़िक्र उन की तमन्ना उन की याद
वक़्त कितना क़ीमती है आज कल
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अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
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क्या असर था जज़्बा-ए-ख़ामोश में
ख़ुद वो खिच कर आ गए आग़ोश में
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तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
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मुहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम
मुहब्बत जितनी बढ़ती है शिकायत होती जाती है
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लम्हे उदास उदास फ़ज़ाएँ घुटी घुटी
दुनिया अगर यही है तो दुनिया से बच के चल
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ग़म की दुनिया रहे आबाद ‘शकील’
मुफ़लिसी में कोई जागीर तो है
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रहमतों से निबाह में गुज़री
उम्र सारी गुनाह में गुज़री
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दिल के बहलाने की तदबीर तो है
तू नहीं है तिरी तस्वीर तो है
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तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो
आ जाएगा पलट कर गुज़रा हुआ ज़माना
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कोई आरज़ू नहीं है कोई मुद्दआ’ नहीं है
तिरा ग़म रहे सलामत मिरे दिल में क्या नहीं है
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जुनूँ से गुज़रने को जी चाहता है
हँसी ज़ब्त करने को जी चाहता है
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तिरी अंजुमन में ज़ालिम अजब एहतिमाम देखा
कहीं ज़िंदगी की बारिश कहीं क़त्ल-ए-आम देखा
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ज़िंदगी उनकी चाह में गुज़री
मुस्तक़िल दर्द-ओ-आह में गुज़री
Shakeel Badayuni Shayari
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