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Jaise Unke Din Phire Hari Shankar Parsayi Hari Shankar Parsayi

जैसे उनके दिन फिरे- हरिशंकर परसाई Jaise Unke Din Phire
घनी कहानी, छोटी शाखा: हरिशंकर परसाई की कहानी “जैसे उनके दिन फिरे” का पहला भाग
भाग- 2

(अब तक आपने पढ़ा..राजा ने अपने बूढ़े होते वय को देखकर अपने चारों बेटों को बुलाया और उन्हें ये कहा कि राजगद्दी में कोई एक ही विराज सकता है। ऐसे में चारों में से एक को चुनने का काम वो ख़ुद न करके इसका निर्णय उनकी योग्यता पर छोड़ते हैं। वो उन चारों को एक वर्ष के लिए राज्य से बाहर जाकर धन अर्जन करने को कहते हैं और जो सबसे अधिक धन कमाएगा उसे ही राजगद्दी सौंपने की बात कहते हैं। साल भर बाद जब सारे राजकुमार लौटकर आते हैं तो उनसे भरे दरबार में धन का हिसाब माँगा जाता है। सबसे बड़ा राजकुमार ईमानदारी और परिश्रम से एक व्यापारी के यहाँ काम करके सौ स्वर्ण मुद्राएँ कमाकर लाता है। उससे छोटा राजकुमार एक राजा का गुण लुटेरा होना समझकर बताता है कि उसने डाकुओं का गिरोह बनाकर लूटपाट की और पाँच लाख स्वर्ण मुद्राएँ कमा लाया है। जब तीसरे राजकुमार की बारी आती है तो वो कहता है कि उसे किसी राजा का गुण धूर्त और बेईमान होना लगता है इसलिए उसने व्यपार किया और उसमें मिलावट करके ख़ूब धन कमाया जिससे उसके पास दस लाख स्वर्ण मुद्राएँ हैं। ये सुनकर सभी दरबारियों की आँखें फटी की फटी राह जाती हैं। बारी आती है सबसे छोटे राजकुमार की..अब आगे)

राजा ने तब सब से छोटे कुमार की ओर देखा। छोटे कुमार की वेश-भूषा और भाव-भंगिमा तीनों से भिन्न थी। वह शरीर पर अत्यन्त सादे और मोटे कपड़े पहने था। पाँव और सिर नंगे थे। उसके मुख पर बड़ी प्रसन्नता और आँखों में बड़ी करूणा थी।

वह बोला, “देव, मैं जब दूसरे राज्य में पहुँचा तो मुझे पहले तो यह सूझा ही नहीं कि क्या करूँ। कई दिन मैं भूखा-प्यासा भटकता रहा। चलते-चलते एक दिन मैं एक अट्टालिका के सामने पहुँचा। उस पर लिखा था ‘सेवा आश्रम’। मैं भीतर गया तो वहाँ तीन-चार आदमी बैठे ढेर-की-ढेर स्वर्ण-मुद्राएँ गिन रहे थे।
मैंने उनसे पूछा, “भद्रो तुम्हारा धन्धा क्या है?”

“उनमें से एक बोला, त्याग और सेवा”

मैंने कहा, “भद्रो त्याग और सेवा तो धर्म है। ये धन्धे कैसे हुए?”

वह आदमी चिढ़कर बोला- “तेरी समझ में यह बात नहीं आयेगी। जा, अपना रास्ता ले”

“स्वर्ण पर मेरी ललचायी दृष्टि अटकी थी।

मैंने पूछा- “भद्रो तुमने इतना स्वर्ण कैसे पाया ?”

वही आदमी बोला- “धन्धे से”

मैंने पूछा- “कौन-सा धन्धा?”

वह गुस्से में बोला- “अभी बताया न! सेवा और त्याग। तू क्या बहरा है?”

“उनमें से एक को मेरी दशा देख कर दया आ गयी। उसने कहा- “तू क्या चाहता है?”

मैंने कहा- “मैं भी आप का धन्धा सीखना चाहता हूँ। मैं भी बहुत सा स्वर्ण कमाना चाहता हूँ” Jaise Unke Din Phire

उस दयालु आदमी ने कहा- “तो तू हमारे विद्यालय में भरती हो जा। हम एक सप्ताह में तुझे सेवा और त्याग के धन्धे में पारंगत कर देंगे। शुल्क कुछ नहीं लिया जायेगा, पर जब तेरा धन्धा चल पड़े तब श्रद्धानुसार गुरुदक्षिणा दे देना”

“पिताजी, मैं सेवा-आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने लगा। मैं वहाँ राजसी ठाठ से रहता, सुन्दर वस्त्र पहनता, सुस्वादु भोजन करता, सुन्दरियाँ पंखा झलतीं, सेवक हाथ जोड़े सामने खड़े रहते। अन्तिम दिन मुझे आश्रम के प्रधान ने बुलाया और कहा-“वत्स, तू सब कलाएँ सीख गया। भगवान् का नाम लेकर कार्य आरम्भ कर दे”

उन्होंने मुझे ये मोटे सस्ते वस्त्र दिये और कहा- “बाहर इन्हें पहनना। कर्ण के कवच-कुण्डल की तरह ये बदनामी से तेरी रक्षा करेंगे। जब तक तेरी अपनी अट्टालिका नहीं बन जाती, तू इसी भवन में रह सकता है, जा, भगवान् तुझे सफलता दें”

“बस, मैंने उसी दिन ‘मानव-सेवा-संघ’ खोल दिया। प्रचार कर दिया कि मानव-मात्र की सेवा करने का बीड़ा हमने उठाया है। हमें समाज की उन्नति करना है, देश को आगे बढ़ाना है। ग़रीबों, भूखों, नंगों, अपाहिजों की हमें सहायता करनी है। हर व्यक्ति हमारे इस पुण्यकार्य में हाथ बँटायें, हमें मानव-सेवा के लिए चन्दा दें। पिताजी, उस देश के निवासी बडे भोले हैं। ऐसा कहने से वे चन्दा देने लगे। मझले भैया से भी मैंने चन्दा लिया था, बड़े भैया के सेठ ने भी दिया और बड़े भैया ने भी पेट काट कर दो मुद्राएँ रख दीं। लुटेरे भाई ने भी मेरे चेलों को एक सहस्र मुद्राएँ दी थीं। क्योंकि एक बार राजा के सैनिक जब उसे पकड़ने आये तो उसे आश्रम में मेरे चेलों ने छिपा लिया था। पिताजी, राज्य का आधार धन है। राजा को प्रजा से धन वसूल करने की विद्या आनी चाहिए। प्रजा से प्रसन्नतापूर्वक धन खींच लेना, राजा का आवश्यक गुण है। उसे बिना नश्तर लगाए ख़ून निकालना आना चाहिए। मुझमें यह गुण है, इसलिए मैं ही राजगद्दी का अधिकारी हूँ। मैंने इस एक साल में चन्दे से बीस लाख स्वर्ण-मुद्राएँ कमाई जो मेरे पास हैं”

‘बीस लाख’ सुनते ही दरबारियों की आँखें इतनी फटीं कि कोरों से खून टपकने लगा।

तब राजा ने मन्त्री से पूछा- “मन्त्रिवर आपकी क्या राय है? चारों में कौन कुमार राजा होने के योग्य है?”

मन्त्रिवर बोले- “महाराज इसे सारी राजसभा समझती है कि सब से छोटा कुमार ही सबसे योग्य है। उसने एक साल में बीस लाख मुद्राएँ इकट्ठी कीं। उसमें अपने गुणों के सिवा शेष तीनों कुमारों के गुण भी हैं-बड़े जैसा परिश्रम उसके पास है, दूसरे कुमार के समान वह साहसी और लुटेरा भी है। तीसरे के समान बेईमान और धूर्त भी। अतएव उसे ही राजगद्दी दी जाए”

मन्त्री की बात सुनकर राजसभा ने ताली बजाई। दूसरे दिन छोटे राजकुमार का राज्याभिषेक हो गया। तीसरे दिन पड़ोसी राज्य की गुणवती राजकन्या से उसका विवाह भी हो गया। चौथे दिन मुनि की दया से उसे पुत्ररत्न प्राप्त हुआ और वह सुख से राज करने लगा। कहानी थी सो ख़त्म हुई। जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें।

समाप्त Jaise Unke Din Phire

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