आज से हमने “साहित्य दुनिया” पर एक नयी सीरीज़ शुरू करने की सोची है. हम अब लगातार अपने पाठकों के लिए मशहूर शा’इरों की ग़ज़लें भी साझा किया करेंगे. इस सिलसिले को शुरू करते हुए हम आज दो ग़ज़लें आपके सामने पेश कर रहे हैं, एक ग़ज़ल जिगर मुरादाबादी की है जबकि दूसरी ग़ज़ल साहिर लुधियानवी की है. Jigar Moradabadi Sahir Ludhianvi
जिगर मुरादाबादी की ग़ज़ल: “इक लफ़्ज़े मुहब्बत का, अदना ये फ़साना है”
इक लफ़्ज़े मुहब्बत का, अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लेना
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है
[रदीफ़ – है]
[क़ाफ़िया – फ़साना, ज़माना, बहाना, फ़साना, जाना]
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साहिर लुधियानवी की ग़ज़ल: “ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां ना कर सके”
ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां ना कर सके
हम अपने जौहरों को नुमायाँ ना कर सके
होकर ख़राब-ए-मै तेरे ग़म तो भुला दिए
लेकिन ग़म-ए-हयात को दरमाँ ना कर सके
टूटा तिलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह
फिर आरज़ू की शम्म’आ फ़रोज़ाँ ना कर सके
हर शै क़रीब आके कशिश अपनी खो गयी
वो भी इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ाँ ना कर सके
किस दर्जा दिलशिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां ना कर सके
मायूसियों ने छीन लिए दिल के वलवले
वो भी निशात-ए-रूह का सामाँ ना कर सके
[रदीफ़- ना कर सके]
[क़ाफ़िया- अर्ज़ां, नुमायाँ, दरमाँ, फ़रोज़ाँ, गुरेज़ाँ, अरमां, सामाँ]
**[दोनों ही ग़ज़लों में पहला शे’र पूरी तरह से रंगीन है, ये ग़ज़ल का मत’ला है, मत’ला के दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया का इस्तेमाल किया जाता है] Jigar Moradabadi Sahir Ludhianvi