Manchanda Bani Majaz Shayari ~ आज हम जिन दो शा’इरों की ग़ज़लें आपके सामने पेश कर रहे हैं उनके नाम हैं राजिंदर मनचंदा ‘बानी’ और असरार उल हक़ ‘मजाज़’.
राजिंदर मनचंदा ‘बानी’ की ग़ज़ल: चली डगर पर कभी न चलने वाला मैं
चली डगर पर कभी न चलने वाला मैं
नए अनोखे मोड़ बदलने वाला मैं
बहुत ज़रा सी ठेस तड़पने को मेरे
बहुत ज़रा सी मौज, उछलने वाला मैं
बहुत ज़रा सा सफ़र भटकने को मेरे
बहुत ज़रा सा हाथ, सँभलने वाला मैं
बहुत ज़रा सी सुब्ह बिकसने को मेरे
बहुत ज़रा सा चाँद, मचलने वाला मैं
बहुत ज़रा सी राह निकलने को मेरे
बहुत ज़रा सी आस, बहलने वाला मैं
[रदीफ़ – वाला मैं]
[क़ाफ़िया – चलने, बदलने, उछलने, सँभलने,मचलने, बहलने ]
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असरार उल हक़ ‘मजाज़’ की ग़ज़ल: जिगर और दिल को बचाना भी है
जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है
ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है
ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है
न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल-ए-दिल का ठिकाना भी है
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है
ज़माने से आगे तो बढ़िए ‘मजाज़‘
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है
[रदीफ़- भी है]
[क़ाफ़िया- बचाना, मिलाना, आशियाना, ज़माना,ठिकाना, मुस्कुराना, बढ़ाना]
*[दोनों ही ग़ज़लों में पहला शे’र पूरी तरह से रंगीन है, ये ग़ज़ल का मत’ला है, मत’ला के दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया का इस्तेमाल किया जाता है]
**[दूसरी ग़ज़ल के आख़िरी शे’र में शा’इर ने तख़ल्लुस (pen name) का इस्तेमाल किया है, शा’इर का तख़ल्लुस ‘मजाज़‘ है. जिस शे’र में तख़ल्लुस का इस्तेमाल किया जाता है, उसे मक़ता कहा जाता है] ~ Manchanda Bani Majaz Shayari