fbpx

Munir Niazi Gulzar Ghazal ~ “साहित्य दुनिया” केटेगरी के अंतर्गत “दो शा’इर, दो ग़ज़लें” सिरीज़ में हम आज जिन दो शा’इरों की ग़ज़लें आपके सामने पेश कर रहे हैं वो हैं मुनीर नियाज़ी और सम्पूर्ण सिंह कालरा “गुलज़ार”. दोनों ही बहुत मो’अतबर नाम हैं. पढ़िए ग़ज़लें..

मुनीर नियाज़ी की ग़ज़ल: “बैठ जाता है वो जब महफ़िल में आ के सामने”

बैठ जाता है वो जब महफ़िल में के सामने
मैं ही बस होता हूँ उस की इस अदा के सामने

तेज़ थी इतनी कि सारा शहर सूना कर गई
देर तक बैठा रहा मैं उस हवा के सामने

रात इक उजड़े मकाँ पर जा के जब आवाज़ दी
गूँज उट्ठे बाम-ओ-दर मेरी सदा के सामने

वो रंगीला हाथ मेरे दिल पे और उस की महक
शम-ए-दिल बुझ सी गई रंग-ए-हिना के सामने

मैं तो उस को देखते ही जैसे पत्थर हो गया
बात तक मुँह से न निकली बेवफ़ा के सामने

याद भी हैं ऐ ‘मुनीर‘ उस शाम की तन्हाइयाँ
एक मैदाँ इक दरख़्त और तू ख़ुदा के सामने

[रदीफ़- के सामने] 
[क़ाफ़िये- आ, अदा, हवा, सदा, हिना, बेवफ़ा, ख़ुदा ]

……………………………………………………………….

…………………………………………………………….

गुलज़ार की ग़ज़ल: “बीते रिश्ते तलाश करती है”

Munir Niazi Gulzar Ghazal
Munir Niazi

बीते रिश्ते तलाश करती है
ख़ुशबू ग़ुंचे तलाश करती है

जब गुज़रती है उस गली से सबा
ख़त के पुर्ज़े तलाश करती है

अपने माज़ी की जुस्तुजू में बहार
पीले पत्ते तलाश करती है

एक उम्मीद बार बार आ कर
अपने टुकड़े तलाश करती है

बूढ़ी पगडंडी शहर तक आ कर
अपने बेटे तलाश करती है

[रदीफ़- तलाश करती है]
[क़ाफ़िये- रिश्ते,  ग़ुंचे, पुर्ज़े, पत्ते, टुकड़े, बेटे]

*[दोनों ही ग़ज़लों में पहला शे’र पूरी तरह से रंगीन है, ये ग़ज़ल का मत’ला है, मत’ला के दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया का इस्तेमाल किया जाता है]
**[ग़ज़ल के आख़िरी शे’र को मक़ता कहा जाता है. पहली ग़ज़ल के आख़िरी शे’र में शा’इर ने तख़ल्लुस (pen name) का इस्तेमाल किया है, शा’इर का तख़ल्लुस मुनीर’  है.  अक्सर मक़ते में शा’इर अपने तख़ल्लुस का इस्तेमाल करते हैं]
***[हर शेर में दो लाइनें होती हैं, लाइन को मिसरा कहा जाता है.. पहली लाइन को मिसरा ए ऊला (ऊला मिसरा) और दूसरी लाइन को मिसरा ए सानी (सानी मिसरा) कहा जाता है.] ~ Munir Niazi Gulzar Ghazal

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *