Mirza Jafar Ali Hasrat Sher मिर्ज़ा जाफ़र अली ‘हसरत’ लखनऊ के थे. वो रायस्वरुप सिंह ‘दीवाना’ के शिष्य थे. उन्होंने दो दीवान छोड़े हैं. ‘जुरअत’ और ‘हसन’ इनके शिष्य थे.
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तुम्हें ग़ैरों से कब फ़ुर्सत हम अपने ग़म से कब ख़ाली,
चलो बस हो चुका मिलना, न तुम ख़ाली न हम ख़ाली
मिर्ज़ा जाफ़र अली ‘हसरत’
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मस्त मैं तो हो गया तेरी निगह से साक़िया
अब नहीं मुझ में रहा है और पैमाने का होश
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आख़िर तेरे ग़म में मर गए हम,
भरना था जो दुःख सो भर गए हम
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ख़ुदा हाफ़िज़ है क्यूँ महफ़िल में उसका नाम आता है,
तड़पने से मेरे दिल को अभी आराम आया था
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बहारें हमको भूलीं, याद है इतना कि गुलशन में,
गिरेबाँ चाक करने का भी एक हंगाम आया था
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किस-किस तरह से हमने किया अपना जी निसार,
लेकिन गईं न दिल से तेरे बदगुमानियाँ
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जो बेताबी दिले उश्शाक़ की बातिल समझते थे,
मेरे सीने पे आकर इन दिनों वे हाथ धर देखें
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हुए हम बेतुके बन्दे बिरहमन से राह करते हैं,
हरम के रहने वालों तुमसे इश्क़ अल्लाह करते हैं
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दश्त में कर चलने की तदबीर होना हो सो हो,
तोड़ दीवाने तू अब ज़ंजीर होना हो सो हो
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सुराग़ पूछूँ मैं क्या अश्को-आह्का दिल से,
कि इस दयार से हो कितने क़ाफ़िले निकले
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मौत आ जाए कहीं इस दिले शैदाई को,
रोज़ समझाए कहाँ तक कोई सौदाई की
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आती है बात बात पर हरदम,
रंजिशें दरम्यान क्या कीजे ?
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न जाने क्या तुझे उल्फ़त थी गुल से ए बुलबुल,
कि अपने जी से गई, पर चमन से तू न गई
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पटकने दे मुझे सर उसके आस्ताने का,
ख़बर करूँ हूँ मैं अपनी इसी बहाने से
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तेरा तो तब ऐतबार कीजे,
जब होवे कुछ ऐतबार अपना
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ए दिल अगर तड़पना तेरा यही रहेगा,
काहे को तू जियेगा, काहे को जी रहेगा
Mirza Jafar Ali Hasrat Sher