fbpx
Shayari Mein Wazn Premchand Ki Kahani Eidgah Munshi Premchand Ki Eidgah Premchand Eidgaah Eidgah Kahani Hindi Ki Pahli Kahaniसाहित्य दुनिया

ईदगाह (मुंशी प्रेमचंद) Munshi Premchand Ki Eidgah
घनी कहानी, छोटी शाखा(1): मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का पहला भाग..
भाग -दो
(पहले भाग में आपने पढ़ा, चार-पाँच साल का बिन माँ-बाप का बच्चा हामिद अपनी दादी अमीना के साथ गाँव में रहता है। अपने माँ-बाप की मौत से अनजान हामिद पिता के जल्द रुपये कमाकर लौटने और माँ के अल्लाह मियाँ से ढेर सारी नेमतें लाने की राह में, अपने मन में आशा के दीप जलाए ख़ुश है। दादी किसी तरह ग़रीबी में गुज़र-बसर का प्रबंध कर रही है, साल का बड़ा त्यौहार ईद भी उन्हें चिंताओं में डाल देता है, इधर हामिद आसपास के बच्चों और बड़ों के साथ दादी अमीना से इजाज़त और तीन पैसे लेकर ईदगाह की ओर निकल चुका है। रास्ते में बच्चों की आपसी बातें हो रही हैं, जहाँ उनके नज़रिए से दुनियादारी का नया रूप नज़र आ रहा है। अब आगे..)

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कॉन्स्टेबल क़वायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—“यह कॉन्स्टेबल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हज़रत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं, तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कॉन्स्टेबल हैं, बीस रूपया महीना पाते हैं लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं अल्लाह क़सम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए”
हामिद ने पूछा—“यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?”
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- “अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग ख़ुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सज़ा भी ख़ूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई, एक बरतन तक न बचा, कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्लाह क़सम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ क़र्ज़ लाए तो बरतन-भाँडे आए”
हामिद—“एक सौ तो पचास से ज़्यादा होते हैं?”
“कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?”
अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालों की टोलियाँ नज़र आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेख़बर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें अनोखी थीं। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से हॉर्न की आवाज होने पर भी न चेतते, हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नज़र आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है, नीचे पक्का फ़र्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोज़ेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं हैं, नए आने वाले आकर पीछे की क़तार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है, यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती है जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।

नमाज़ खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मज़ा लो। महमूद, मोहसिन, नूरे और सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हैं; हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई ज़रा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्ख़ियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। उधर दुकानों की क़तार लगी हुई है, तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राजा ओर वक़ील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कित्ते सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, ख़ाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है अभी क़वायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया, कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं, मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेला ही चाहता है। नूरे को वक़ील से प्रेम है, कैसी विद्वत्ता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी ज़ंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहा है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!
मोहसिन कहता है—“मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे”
महमूद—“और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फ़ौरन बंदूक से फ़ायर कर देगा”
नूरे—“और मेरा वक़ील ख़ूब मुक़दमा लड़ेगा”
सम्मी—“और मेरी धोबिन रोज़ कपड़े धोएगी”
हामिद खिलौनों की निंदा करता है—“मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं”
लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि ज़रा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं. विशेषकर जब अभी नया शौक़ है। हामिद ललचता रह जाता है।

क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का तीसरा भाग..
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का चौथा भाग..
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का अंतिम भाग..

Munshi Premchand Ki Eidgah

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *