प्लेग की चुड़ैल- मास्टर भगवानदास Plague ki chudail kahani
घनी कहानी, छोटी शाखा: मास्टर भगवानदास की कहानी “प्लेग की चुड़ैल” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मास्टर भगवानदास की कहानी “प्लेग की चुड़ैल” का दूसरा भाग
भाग-3
(अब तक आपने पढ़ा..प्रयाग में प्लेग के तेज़ी से फैलने पर सभी अपने इलाक़े लौटने लगे थे।ठाकुर विभवसिंह भी अपने परिवार के साथ लौटने की तैयारी में थे कि उनकी पत्नी को प्लेग जकड़ लेता है। अपने पाँच वर्षीय पुत्र के मातृ प्रेम के कारण न चाहते हुए भी ठाकुर विभवसिंह को पत्नी के लिए वहाँ रुकना पड़ता है, किंतु पत्नी के स्वर्ग सिधारते ही, ठाकुर साहब अपने मित्रों और पुरोहित से सलाह करके अंतिम क्रिया का काम नौकरों के भरोसे सौंपकर वहाँ से निकल जाते हैं। इधर ठकुराइन को कफ़न पहनाने आयी नाईन उनके शरीर को ठंडा न पाकर सभी को सूचित करती है। लेकिन जब पति को पत्नी की फ़िक्र नहीं तो नौकर क्यों कर फ़िक्र करते, सभी उन्हें लेकर गंगा घाट निकल जाते हैं और रास्ते में बातों के दौरान यह तय होता है कि इस शव को सीधे गंगा में बहा दिया जाए। विश्वासपात्र नौकर सत्यसिंह इस बात पर राज़ी नहीं होता और वहाँ से चला जाता है। पुरोहित और नौकर शव को पानी में बहा देते हैं।बाँस से बँधा हुआ शव बहता हुआ पाँच मील दूर एक किनारे लग जाता है। अब आगे..) Plague ki chudail kahani
अत्यंत आश्चर्यजनक घटना तो यह हुई कि गंगाजल की शीतलता उस सोपान-स्थित शरीर के लिए, जिसे लोगों ने निर्जीव समझ लिया था, ऐसी उपकारी हुई कि जीव का जो अंश उसमें रह गया था वह जग उठा और बहूजी को कुछ होश आया। परंतु अपने को इस अद्भुत दशा में देख वह भौचक-सी रह गयीं। उनके शरीर का यह हाल था कि प्राणान्तक ज्वराग्नि तो बुझ गई थी, परंतु गले में की गिलटी ऐसी पीड़ा दे रही थी कि उसके कारण वह कभी-कभी अचेत-सी हो जाती थी। परंतु जब प्राण बचना होता है तो अनायास प्राणरक्षा के उपाय उपस्थित हो जाते हैं। निदान वह सीढ़ी बहते-बहते ऐसी जगह आ पहुँची जहाँ करौंदे का एक बड़ा भारी पेड़ तट पर खड़ा था और उसकी एक घनी डाली झुककर जल में स्नान कर रही थी और अपने क्षीरमय फल-फूल गंगाजी को अर्पण कर रही थी। वह सीढ़ी जाकर डाली से टकरायी और उसी में उलझकर रुक गई। और उस डाली में का एक काँटा बहू जी की गिल्टी में इस तरह चुभ गया जैसे किसी फोड़े में नश्तर। गिल्टी के फूटते ही पीड़ाजनक रुधिर निकल गया और बहू जी को फिर चेत हुआ। झट उन्होंने अपना मुँह फेरकर देखा तो अपने को उस हरी शाखा की शीतल छाया में ऐसा स्थिर और सुखी पाया जैसे कोई श्रान्त पथिक हिंडोले पर सोता हो।
सूर्योदय का समय था, जल में किनारे की ओर कमल प्रफुल्लित थे। और तटस्थ वृक्षों पर पक्षीगण कलरव कर रहे थे। उस अपूर्व शोभा को देखकर बहूजी अपने शरीर की दशा भूल गयीं और मन में सोचने लगीं कि क्या मैं स्वर्गलोक में आ गई हूँ, या केवल स्वप्न अवस्था में हूँ, और यदि मैं मृत्युलोक ही में इस दशा को प्राप्त हुई हूँ तो भी परमेश्वर मुझे इसी सुखमय अवस्था में सर्वदा रहने दे। परंतु इस संसार में सुख तो केवल क्षणिक होता है :
“सुख की तो बौछार नहीं है, दुख का मेह बरसता है।
यह मुर्दे का गाँव रे बाबा, सुख महँगा दुख सस्ता है।।”
थोड़ी ही देर बाद पक्षीगण उड़ गए और लहरों के उद्वेग से कमलों की शोभा मंद हो गई। सीढ़ी का हिंडोलना भी अधिक हिलने लगा, जिससे कृशित शरीर को कष्ट होने लगा, बहू जी का जी ऊबने लगा। उनका वश क्या था, शरीर में शक्ति नहीं थी कि तैरकर किनारे पर पहुँचें, हालाँकि चार ही हाथ की दूरी पर एक छोटा-सा सुंदर घाट बना हुआ था। वह मन में सोचने लगीं कि शायद मुझको मृतक समझ मेरे पति ने मुझे इस तरह बहा दिया है, परंतु उनको ऐसी जल्दी नहीं करनी चाहिए थी; मेरे शरीर की अवस्था की जाँच उन्हें भली-भाँति कर लेनी चाहिए थी; भला उन्होंने मेरा त्याग किया तो किया, उनको बहुत-सी स्त्रियाँ मिल जाएँगी, परन्तु मेरे नादान बच्चे की क्या दशा हुई होगी! अरे, वह मेरे वियोग के दु:ख को कैसे सह सकता होगा! हा! वह कहीं रो-रो के मरता होगा! उसको मेरे सदृश माता कहाँ मिल सकती है, विमाता तो उसको और भी दु:खदायिनी होगी! हे परमेश्वर! यदि मैं मृत्युलोक ही में हूँ तो मेरे बालक को शांति और मुझे ऐसी शक्ति प्रदान कर कि मैं इस दशा से मुक्त होकर अपने प्राणप्रिय पुत्र से मिलूँ। इतना कहते ही एक ऐसी लहर आयी कि कई घूँट पानी उनके मुख में चला गया। जल के पीते ही शरीर में कुछ शांति-सी आ गई और पुत्र के मिलने की उत्कण्ठा ने उनको ऐसा उत्तेजित किया कि वह हाथों से धीरे-धीरे उस सीढ़ी-रूपी नौका को खेकर किनारे पर पहुँच गयीं। परंतु श्रम से मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ीं। ~ Plague ki chudail kahani
कुछ देर बाद जब होश आया तो उस स्थान की रमणीयता देखकर फिर उन्हें यही जान पड़ा कि मैं मरने के पश्चात स्वर्गलोक में आ गई हूँ। जल का मंद-मंद प्रवाह आकाशगंगा की शोभा दिखाता था और किनारे-किनारे के स्थिर जल में फूले हुए कमल ऐसे देख पड़ते थे जैसे आकाश में तारे –
“गंगा के जल गात पै दल जलजात सुहात।
जैसे गोरे देह पे नील वस्त्र दरसात।।”
तट पर अम्ब-कदम्ब-अशोकादि वृक्षों की श्रेणियाँ दूर तक चली गयी थीं और उनके समीप के उपवन की शोभा ‘जहाँ बसन्त ऋतु रह्यौ लुभाई’ ऐसी मनोहर थी कि मनुष्य का चित्त देखते ही मोहित हो जाता था।
कहीं करौंदे, कहीं कोरैया, इन्द्रबेला आदि के वृक्ष अपने फूलों की सुगंध से स्थानों को सुवासित कर रहे थे, कहीं बेला, कहीं चमेली, केतकी, चम्पा के फूलों से लदी हुई डालियाँ एक-दूसरे से मिली हुई यों देख पड़ती थीं जैसे पुष्पों की माला पहने हुए सुन्दर बालिकाएँ एक से एक हाथ मिलाए खड़ी हैं। उनके बीच-बीच में ढाक के वृक्ष लाल फूलों से ढके हुए यों देख पड़ते थे जैसे संसारियों के समूह में विरक्त वनवासी खड़े हों। इधर तो इन विरक्तों के रूप ने बहूजी को अपनी वर्तमान दशा की ओर ध्यान दिलाया, उधर कोकिला की कूक ने हृदय में ऐसी हूक पैदा की कि एक बार फिर बहूजी पति के वियोग की व्यथा से व्याकुल हो गयीं और कहने लगीं, कि इस शोक-सागर में डूबने से बेहतर यही होगा कि गंगाजी में डूब मरूँ, फिर सोचा कि पहले यह तो मैं विचार लूँ कि मेरा मरना भी संभव है या नहीं। यदि मैं स्वर्गलोक के किसी भाग में आ गयी हूँ तो यहाँ मृत्यु कैसे आ सकती है, परंतु यह स्वर्गलोक नहीं जान पड़ता क्योंकि स्वर्ग में शारीरिक और मानसिक दु:ख नहीं होते, और मैं यहाँ दोनों से पीड़ित हो रही हूँ। इनके अतिरिक्त मुझे क्षुधा भी मालूम होती है। बस निस्संदेह मृत्युलोक ही में इस दशा को प्राप्त हुई हूँ। यदि मैं मनुष्य ही के शरीर में अब तक हूँ और मरकर पिशाची नहीं हो गई हूँ तो मेरा धर्म यही है कि मैं अपने अल्पवयस्क बालक को ढूँढ़कर गले से लगाऊँ, परंतु मैं शारीरिक शक्तिहीन अबला इस निर्जन स्थान में किसे पुकारूँ, किधर जाऊँ!
“हे करुणामय जगदीश! तू ही मेरी सुध ले। यदि तूने द्रौपदी, दमयन्ती आदि अबलाओं की पुकार सुनी है तो मेरी भी सुन।” यह कहकर गंगाजी की ओर मुँह फेर घाट पर बैठ गयीं और जल की शोभा देखने लगीं।
क्रमशः Plague ki chudail kahani
घनी कहानी, छोटी शाखा: मास्टर भगवानदास की कहानी “प्लेग की चुड़ैल” का चौथा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मास्टर भगवानदास की कहानी “प्लेग की चुड़ैल” का पाँचवा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मास्टर भगवानदास की कहानी “प्लेग की चुड़ैल” का अंतिम भाग