विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं

Vinod Kumar Shukla Poems
1.

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।

___________________

2.

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने

उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर

नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा

कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब

असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर

खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।

जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं

उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा—

इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।

__________________

3.

आँख बंद कर लेने से
अंधे की दृष्टि नहीं पाई जा सकती

जिसके टटोलने की दूरी पर है संपूर्ण
जैसे दृष्टि की दूरी पर।

अँधेरे में बड़े सवेरे एक खग्रास सूर्य उदय होता है
और अँधेरे में एक गहरा अँधेरे में एक गहरा अँधेरा फैल जाता है

चाँदनी अधिक काले धब्बे होंगे
चंद्रमा और तारों के।

टटोलकर ही जाना जा सकता है क्षितिज को
दृष्टि के भ्रम को

कि वह किस आले में रखा है
यदि वह रखा हुआ है।

कौन से अँधेरे सींके में
टँगा हुआ रखा है

कौन से नक्षत्र का अँधेरा।
आँख मूँदकर देखना

अंधे की तरह देखना नहीं है।
पेड़ की छाया में, व्यस्त सड़क के किनारे

तरह-तरह की आवाज़ों के बीच
कुर्सी बुनता हुआ एक अंधा

संसार से सबसे अधिक प्रेम करता है
वह कुछ संसार स्पर्श करता है और

बहुत संसार स्पर्श करना चाहता है।

__________________

4.

कितना बहुत है
परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं

एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ
अतिरिक्त एक पत्ती नहीं

एक कोंपल नहीं अतिरिक्त
एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद।

अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद—
न उसका एक कलश गंगाजल,

बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्र
न उसका एक अंजुलि जल

और इतना सारा एक आकाश
न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक।

कितनी कमी है
तुम ही नहीं हो केवल बंधु

सब ही
परंतु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।

_________________

5.

दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है
कहकर मैं अपने घर से चला।

यहाँ पहुँचते तक
जगह-जगह मैंने यही कहा

और यहाँ कहता हूँ
कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है।

जहाँ पहुँचता हूँ
वहाँ से चला जाता हूँ।

दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है—
बार-बार यही कह रहा हूँ

और कितना समय बीत गया है
लौटकर मैं घर नहीं

घर-घर पहुँचना चाहता हूँ
और चला जाता हूँ।

Vinod Kumar Shukla Poems

Leave a Comment