हीरे का हार- चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
भाग-3
(अब तक आपने पढ़ा..घर में गुलाबदेई अपने पति लहनासिंह के तीन वर्ष बाद घर लौटने की तैयारी में लगी हुई थी…माँ भी लहनासिंह की राह देख रही थी लेकिन दोनों के मन में आशंका भी बनी हुई थी कि लहनासिंह दोनों पैरों पर चलकर आएगा या एक ही पैर पर..वैसे तो जंग में लहनासिंह के पैर ज़ख़्मी होने और बाद में काटने की ख़बर उन तक पहुँच चुकी थी, फिर भी मन में एक आस बनी हुई थी कि लहनासिंह शायद अपने दोनों पैरों पर चलकर आएगा, लेकिन लहनासिंह उनकी आशाओं पर वास्तविकता की चोट करता हुआ एक पैर पर चलता हुआ आया. अपनी पत्नी और घर के लोगों से मिलकर आँगन में बैठा लहनासिंह युद्ध के बाद ज़ख़्मी अवस्था में वहाँ अस्पताल में बिताये पल याद करने लगा था..उस वक़्त उसे आठ साल की छोकरी याद आया करती थी जो बाद में उसे सूबेदारनी बनकर मिली थी. अब आगे)
(इस कहानी को चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ पूरा नहीं लिख पाए थे…इस कहानी का पहला भाग ही उनका लिखा हुआ है बाक़ी के दोनों भाग जो हम आपके लिए लाये वो कथाकार डॉ. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा लिखा गया है, उन्होंने इस कहानी को पूरा किया था)
वह सोचता रहा था – “स्वप्न में सफेद कौओं का दिखाई देना शुभ लक्षण है या अशुभ का प्रतीक… अस्पताल में अर्ध-निमीलित आँखों में अनेक देवता आते… कभी उसे लगता कि फनियर नाग ने उसे कमर से कस लिया है…शायद यह नपुंसकता का संकेत न हो… वह दहल जाता… माँ… पत्नी… और हीरा… कैसे होंगे… गाँव में वैसे तो ऐसा कुछ नहीं जो भय पैदा करे… लेकिन तीन साल तो बहुत होते हैं… वे कैसे रहती होंगी… युद्ध में तो तनख्वाह भी नहीं पहुँचती होगी… फिर उसे ध्यान आया कि जब वह चलने लगा था तो माँ ने कहा था – बेटा… हमारी चिंता नहीं करना। आँगन में पहाड़िए का बास हमारी रक्षा करेगा… फिर उसे ध्यान आया… कई बार पहाड़िया नाराज हो जाए तो घर को उलटा-पुलटा कर देता है। आप चावल की बोरी को रखें… वह अचानक खुल जाएगी और चावलों का ढेर लग जाएगा। कभी पहाड़िया पशुओं को खोल देगा… अरे नहीं… पहाड़िया तो देवता होता है, जो घर-परिवार की रक्षा करता है। वह आश्वस्त हो गया था”
“मुन्नुआ, तू कुथी चला गिया था?”
‘माँ फ़ौजी तो हुक्म का ग़ुलाम होता है”
“फिरकू तां जर्मन की लड़ाई से वापस आ गया था…उसका तो कोई अंग-भंग वी नई हुआ था…और तू पता नहीं कहाँ-कहाँ भटकता रहा… तिझो घरे दी वी याद नी आई”
“अम्मा… फिरकू तो फिरकी की भाँति घूम गया होगा लेकिन मैं तो वीर माँ का सपूत हूँ…उस पहाड़ी माँ का जो स्वयं बेटे को युद्धभूमि में तिलक लगाकर भेजती है… बहाना बना कर लौटना राजपूत को शोभा नही देता…”
“हाँ, सो तो तमगे से देख रेई हूँ लेकिन…”
“लेकिन क्या अम्मा… तुम चुप क्यों हो गई?”
“गुलाबदेई तो वीरांगना है… उसे तो गर्व होना चाहिए…”
“हाँ…बेटा…फ़ौजीकी औरत तो तमगों के सहारे ही जीती है लेकिन…”
“लेकिन क्या अम्मा… कुछ तो बोलो!”
“उसका हाल तो बेहाल रहा… आदमी के बिना औरत अधूरी है… और फ़ौजी की औरत पर तो कितणी उँगलियाँ उठती हैं… तुम क्या जानो।’ तुम तो नौल के नौलाई रेए”
“हूँ !”
“क्या तमगे तुम्हारी दूसरी टाँग वापस ला सकते हैं? और तीन साल से सरकार ने सुध-बुध ही कहाँ ली…”
लहनासिंह के पास कोई जवाब नहीं था। सूबेदारनी ने किस अनुनय-विनय से उसे बींध लिया था… हजारासिंह बोधा सिंह की रक्षा करके उसने कौन-सा मोर्चा मार लिया था… वह युद्ध-भूमि में तड़प रहा था और रैड-क्रास वैन बाप-बेटे को लेकर चली गई थी…उसने जो कहा था मैंने कर दिया… सोचकर फूल उठा लेकिन गुलाबदेई के यौवन का अंधड़ कैसे निकला होगा… लोग कहते होंगे… बरसाती नाले-सा अंधड़ आया और वह झरबेरी-सी बिछ गई थी… तूफान में दबी…सहमी सी लँगड़े खरगोश-सी…नहीं…लँगड़ी वह कहाँ है…लँगड़ा तो लहनासिंह आया है…चीन में नैन्सी से बतियाता… खिलखिलाता….
अम्मा फिर रसोई में चली गई थी! गुलाबदेई उसकी लकड़ी की टाँग को सहला रही थी…शायद उसमें स्पंदन पैदा हो जाए… शायद वह फिर दहाड़ने लगे…तभी लहनासिंह ने कहा था,
“गुलाबो… यह नहीं दूसरी टाँग…”
वह दोनों टाँगों को दबाने लगी थी…और अश्रुधारा उसके मुख को धो रही थी…वह फिर बोला –
“गुलाबो… तुम्हें मेरे अपंग होने का दुख है?”
“नहीं तो!”
“फिर रो क्यों रही हो…”
“फ़ौजी की बीबी रोए तो भी लोग हँसते हैं और अगर हँसे तो भी व्यंग्य-वाण छोड़ते हैं… वह तो जैसे लावरिस औरत हो…” वह फूट पड़ी थी !
“मैं तो सदा तुम्हारे पास था!”
“अच्छा!”- अब जरा वह खिलखिलाई।
“हीरे का हीरा पाकर भी तुम बेबस रहीं”
“और तुम्हारे पास क्या था?”
“तुम!”
“नहीं… कोई मेम तुम्हें सुलाती होगी…और तुम मोम-से पिघल जाते होओगे… मर्द होते ही ऐसे हैं”
“ज़रा खुलकर कहो न…”
“गोरी-चिट्टी मेम देखी नहीं कि लट्टू हो गए…”
“तुम्हें शंका है?”
“हूँ… तभी तो इतने साल सुध नहीं ली…”
“मैं तो तुम्हारे पास था हमेशा… हमेशा…”
“और वह सूबेदारनी कौन थी?”
“क्या मतलब?”
“तुम अब भी माँ से कह रहे थे… उसने कहा था… जो कहा था… मैंने पूरा कर दिया…”
“हाँ… मैं जो कर सकता था… वह कर दिया…”
“लेकिन युद्ध में सूबेदारनी कहाँ से आ गई?”
“वह कल्पना थी”
“तो क्या गुलाबो मर गई थी… मैं कल्पना में भी याद नहीं आई”
“मैं तुम्हें उसे मिलाने ले चलूँगा”
“हूँ… मिलोगे खुद और बहाना मेरा… फौजिया तुद घरे नी औणा था”
“मैं अब चला जाता हूँ…”
“मेरे लिए तो तुम कब के जा चुके थे… और आकर भी कहाँ आ पाए…”
“गुलाबो… तुम भूल कर रही हो… मैंने कहा था न…मर्द और कर्द कभी खुन्ने नहीं होते… उन्हें चलाना आना चाहिए…”
“अच्छा… अच्छा… छोड़ो भी न अब… हीरा आ जाएगा…”
और दोनों ओबरी में चले गए। सदियों बाद जो मिले थे। छोटे-छोटे सुख मनोमालिन्य को धो डालते हैं और एक-दूसरे के प्रति आश्वस्ति जीवन का आधार बनाती है – एक मृगतृष्णा का पालन दांपत्य-जीवन को हरा-भरा बना देता है… गुलाबदेई लहलहाने लगी थी… और आँगन में अचानक धूप खिल आई थी।
समाप्त