उस समय नवलसिंह की अपूर्व दशा थी। कभी तो बहूजी की डरावनी सूरत देखकर भय से भागना चाहता था, कभी माता के मुख की आकृति स्मरण करके प्रेमाश्रु बहाने लगता था और भोलेपन से पूछता था कि “माता, तुम मर के फिर जी उठी हो और चुड़ैल हो गयी हो? हम लोग तो तुमको घर ही पर छोड़ आये थे, तुम अकेली गिरती-पड़ती यहाँ कैसे आ गई हो?”
बहू जी ने कहा, “बेटा, मैं नहीं जानती कि मैं कैसे इस दशा को प्राप्त हुई हूँ। यदि मेरा शरीर बदल गया है और मैं चुड़ैल हो गई हूँ तो भी मेरा हृदय पहिले ही का-सा है और मैं तुम्हारी ही तलाश में खिसकते-खिसकते इधर आई हूँ।”
इधर तो इस प्रकार प्रेमालिंगन और प्रश्नोत्तर हो रहा था, उधर ग्राम्य स्त्रियों ने दूर ही से घटना देखकर हाहाकार मचाया और कहने लगीं, “अरे, नवल जी को चुड़ैल ने पकड़ लिया! चलियो! दौड़ियो! बचाइयो! अरे, यह क्या अनर्थ हुआ! हम लोग क्या जानती थीं कि वह डाइन वाटिका में आ बैठी है। नहीं तो नवलजी को क्यों उधर जाने देतीं।”
इसी तरह सब दूर ही से कौआ-रोर मचा रही थीं, परंतु डर के मारे कोई निकट नहीं जाती थी। इतने ही में विभवसिंह और उनके साथ जो गाँव के आदमी टहलने गए थे, वापस आ गये। यह कोलाहल देखकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ।
उस दासी के मुँह से वृत्तान्त सुनकर ठाकुर साहब ने कहा, “मुझे प्रेत योनि में तो विश्वास नहीं है। पर ईश्वर की अद्भुत माया है। शायद सच ही हो।”
यह कहकर और झट बँगले में से तमंचा लेकर वह उसी नारंगी के पेड़ की ओर झपटे, जहाँ नवलसिंह को चुड़ैल पकड़े हुए थी और गाँववाले भी लाठी ताने उसी ओर दौड़े। पिता को आते देखकर लड़के ने चाहा कि अपनी माता के हाथों से अपने को छुड़ाकर और दौड़कर अपने पिता से शुभ संदेश कहे। लेकिन उसकी माता उसे नहीं छोड़ती थी।
ठाकुर साहब ने दूर ही से यह हाथापाई देखकर समझा कि अवश्य चुड़ैल उसे जोर से पकड़े है और ललकारकर कहा, “बेटा, घबराओ मत, मैं आया।” जब पास पहुँचे, उन्होंने चाहा कि चुड़ैल को गोली मारकर गिरा दें।
पर लड़के ने चिल्ला के कहा, “इन्हें मारो मत, मारो मत, माता है माता।”
ठाकुर साहब को उस घबराहट में लड़के की बात समझ में नहीं आयी और चूँकि वह पिस्तौल तान चुके थे, उन्होंने फ़ायर कर ही दिया। आवाज़ होते ही बहूजी अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ीं और लड़का चौंककर जमीन पर बैठ गया।
ठाकुर साहब ने उसे गोद में उठा लिया और कहा, “बेटा, डरो मत, अब तुम बच गये। बताओ तो यह कौन है, क्या वास्तव में चुड़ैल है?”
बहूजी को अचेत देखकर अब आदमी चिल्लाकर कहने लगे, “चुड़ैल मर गई, चुड़ैल मर गई।”
यह सुनकर स्त्रियाँ भी समीप आयीं और चारों ओर खड़ी हो देखने लगीं। उनमें से वह दासी बोली, “यही दुष्टिन चुड़ैल है जो घाट पर बैठी थी और यहाँ आकर नवलजी को निगलना चाहती थी।”
दूसरी स्त्रियाँ कहने लगीं, “हमने तो सुना था कि डायनों और चुड़ैलों के बड़े-बड़े दाँत और नख होते हैं। इसके तो वैसे नहीं हैं। यह निगोड़ी किस प्रकार की चुड़ैल है!”
एक ने कहा, “यह डाइन की बच्ची है। बढ़ने पर इसके भी दाँत बड़े होते।”
इधर तो यह ठिठोलियाँ हो रही थीं कि उधर जब नवलसिंह को निश्चय हुआ कि माता गोली की चोट से मर गयी तो वह शोक के मारे अचेत हो गया। अब सब लोग भयातुर होकर उसकी ओर देखने लगे। कोई कहता था कि यह पिस्तौल की आवाज से डर गया है, कोई कहता था कि इसे चुड़ैल लग गयी है।
निदान जब वह कुछ होश में आया तो रो-रो के कहने लगा, “यह तो मेरी माता है। मैंने तो मना किया था, आपने इन्हें गोली से क्यों मारा?”
ठाकुर साहब ने कहा, “तुम्हारी माता तो मर गयी और पुरोहित जी की चिट्ठी कल रात ही को आ गयी कि उनको गंगा के तट पर ले जाकर जला दिया, यह चुड़ैल तुम्हारी माता कैसे हो सकती है?”
लड़के ने कहा, “आप समीप जाकर पहिचानिए तो कि यह कौन है?”
क्रमशः