गत वर्ष जब प्रयाग में प्लेग घुसा और प्रतिदिन सैकड़ों गरीब और अनेक महाजन, जमींदार, वक़ील, मुख़्तार के घरों के प्राणी मरने लगे तो लोग घर छोड़कर भागने लगे। यहाँ तक कि कई डॉक्टर भी दूसरे शहरों को चले गए। एक मुहल्ले में ठाकुर विभवसिंह नामी एक बड़े ज़मींदार रहते थे। उन्होंने भी अपने इलाके पर, जो प्रयाग से पाँच मील की दूरी पर था, चले जाने की इच्छा की। सिवा उनकी स्त्री और एक पाँच वर्ष के बालक के और कोई संबंधी उनके घर में नहीं था। रविवार को प्रात:काल ही सब लोग इलाके पर चलने की तैयारी करने लगे। जल्दी में उनकी स्त्री ने ठण्डे पानी से नहा लिया। बस नहाना था कि ज्वर चढ़ आया। हकीम साहब बुलाये गये और दवा दी गयी। पर उससे कुछ लाभ न हुआ। सायंकाल को गले में एक गिलटी भी निकल आयी। तब तो ठाकुर साहब और उनके नौकरों को अत्यंत व्याकुलता हुई।
डॉक्टर साहब बुलाए गए। उन्होंने देखते ही कहा कि प्लेग की बीमारी है, आप लोगों को चाहिए कि यह घर छोड़ दें। यह कहकर वह चले गए। अब ठाकुर साहब बड़े असमंजस में पड़े। न तो उनसे वहाँ रहते ही बनता था, न छोड़ के जाते ही बनता था। वह मन में सोचने लगे, यदि यहाँ मेरे ठहरने से बहूजी को कुछ लाभ हो तो मैं अपनी जान भी ख़तरे में डालूँ। परंतु इस बीमारी में दवा तो कुछ काम ही नहीं करती, फिर मैं यहाँ ठहरकर अपने प्राण क्यों खोऊँ। यह सोच जब वह चलने के लिए खड़े होते थे तब वह बालक जिसका नाम नवलसिंह था, अपनी माता के मुँह की ओर देखकर रोने लगता था और वहाँ से जाने से इनकार करता था। ठाकुर साहब भी प्रेम के कारण मूक अवस्था को प्राप्त हो जाते थे और विवश होकर बैठे रहते थे।
ठाकुर साहब तो बड़े सहृदय सज्जन पुरुष थे, फिर इस समय उन्होंने ऐसी निष्ठुरता क्यों दिखलायी, इसका कोई कारण अवश्य था, परंतु उन्होंने उस समय उसे किसी को नहीं बतलाया। हाँ, वह बार-बार यही कहते थे कि स्त्री का प्राण तो जा ही रहा है, इसके साथ मेरा भी प्राण जावे तो कुछ हानि नहीं, पर मैं यह चाहता हूँ कि मेरा पुत्र तो बचा रहे। मेरा कुल तो न लुप्त हो जावे। पर वह बिचारा बालक इन बातों को क्या समझता था! वह तो मातृ-भक्ति के बंधन में ऐसा बँधा था कि रात-भर अपनी माता के पास बैठा रोता रहा।
जब प्रात:काल हुआ और ठकुराइन जी को कुछ चेत हुआ तो उन्होंने आँखों में आँसू भर के कहा- “बेटा नवलसिंह! तुम शोक मत करो, तुम किसी दूसरे मकान में चले जाओ, मैं अच्छी होकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आऊँगी”
पर वह लड़का न तो समझाने ही से मानता था, न स्वयं ऐसे स्थान पर ठहरने के परिणाम को जानता था। बहूजी तो यह कहकर फिर अचेत हो गईं, पर बालक वहीं बैठा सिसक-सिसककर रोता रहा। थोड़ी देर बाद फिर डॉक्टर, वैद्य, हकीम आये, पर किसी की दवा ने काम न किया। होते-होते इसी तरह दोपहर हो गई थी। तीसरे पहर को बहूजी का शरीर बिलकुल शिथिल हो गया और डॉक्टर ने मुख की चेष्टा दूर ही से देखकर कहा- “बस अब इनका देहान्त हो गया। उठाने की फ़िक्र करो”
यह सुन सब नौकरानियाँ और नौकर रोने लगे और पड़ोस के लोग एकत्रित हो गये। सबके मुख से यही बात सुन पड़ती थी, “अरे क्या निर्दयी काल ने इस अबला का प्राण ले ही डाला, क्या इसकी सुंदरता, सहृदयता और अपूर्व पतिव्रत धर्म का कुछ भी असर उस पर नहीं हुआ, क्या इस क्रूर काल को किसी के भी सदगुणों पर विचार नहीं होता!!”
एक पड़ोसी, जो कवि था, यह सवैया कहकर अपने शोक का प्रकाश करने लगा –
“सूर को चूरि करै छिन मैं, अरु कादर को धर धूर मिलावै।कोविदहूँ को विदारत है, अरु मूरख को रख गाल चबावै।। रूपवती लखि मोहत नाहिं, कुरूप को काटि तूँ दूर बहावै।
है कोउ औगुण वा गुण या जग निर्दय काल जो तो मन भावै।।”
स्त्रियाँ कहने लगीं- “हा हा, देखो, वह बालक कैसा फूट-फूटकर रो रहा है! क्या इसकी ऐसी दीन दशा पर भी उस निष्ठुर काल को दया नहीं आयी? इस अवस्था में बिचारा कैसे अपनी माता के वियोग की व्यथा सह सकेगा! हा! इस अभागे पर बचपन ही में ऐसी विपत्ति आ पड़ी!”
ठाकुर साहब तो मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े थे। नौकरों ने उनके मुँह पर गुलाब जल छिड़का और थोड़ी देर में वह सचेत हुए। उनकी मित्र मण्डली में से तो कई महाशय उस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे। उनके पड़ोसियों ने जो वहाँ एकत्र हो गए थे, यह सम्मति दी कि स्त्री के मृत शरीर को गंगा तट पर ले चलकर दाह क्रिया करनी चाहिए। परन्तु डॉक्टर साहब ने, जो वहाँ फिर लौटकर आए थे, कहा कि पहले तो इस मकान को छोड़कर दूसरे में चलना चाहिए, पीछे और सब खटराग किया जावेगा। ठाकुर साहब को भी वह राय पसंद आयी, क्योंकि उन्होंने तो रात ही से भागने का इरादा कर रखा था, वह तो केवल उस लड़के के अनुरोध से रुके हुए थे। परंतु क्या उस लड़के को उस समय भी वहाँ से ले चलना सहज था? नहीं, वह तो अपनी मृत माता के निकट से जाना ही नहीं चाहता। बार-बार उसी पर जाकर गिर पड़ता था और उसकी अधखुली आँखों की ओर देख-देखकर रोता और ‘माता! माता’ कहकर पुकारता था।
उसका रुदन सुनकर देखने वालों की छाती फटती थी और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहती थी। अंत में ठाकुर साहब ने उस बालक को पकड़कर गोद में उठा लिया और गाड़ी में बिठलाकर दूसरे मकान की ओर रवाना हुए।
अलबत्ता चलती बार ठाकुर साहब ने स्त्री के मृत शरीर की ओर देखकर कुछ अँग्रेजी में कहा था, जिसका एक शब्द मुझे याद है, फेअरवेल (Farewell)।
नौकर सब ठाकुर साहब ही के साथ रवाना हो गये, परन्तु उनका एक पुराना नौकर उस मकान की रक्षा के लिए वहीं रह गया। पड़ोसी लोग भी इस दुर्घटना से दु:खी होकर अपने घरों को लौट गये, परंतु उनके एक पड़ोसी के हृदय पर इन सब बातों का ऐसा असर हुआ कि वह वहीं बैठा रह गया और मन में सोचने लगा कि ऐसी दशा में पड़ोसी का धर्म क्या है? इस देश का यह रिवाज है कि जब तक मुहल्ले में मुर्दा पड़ा रहता है तब तक कोई नहाता-खाता नहीं। जब उसकी दाह क्रिया का सब सामान ठीक हो जाता है और लोग उसको वहाँ से उठा ले जाते हैं, तब पड़ोसी लोग अपने-अपने दैनिक कार्यों को करने में तत्पर होते हैं। परन्तु यहाँ का यह हाल देखकर वह बहुत विस्मित होता था और सोचता था कि यदि ठाकुर साहब भय के मारे अपने इलाके पर भाग गए तो मृतक की क्या दशा होगी। क्या इस पुण्यवती स्त्री का शरीर ठेले पर लद के जाएगा? उसने उस बुड्ढे नौकर के आगे अपनी कल्पनाओं को प्रकाशित किया। उसने उत्तर दिया कि अभी ठाकुर साहब की प्रतीक्षा करनी चाहिए, देखें वह क्या आज्ञा देते हैं।
वह पड़ोसी भी यही यथार्थ समझ के चुप हो गया और संसार की असारता और प्राणियों के प्रेम की निर्मूलता पर विचार करने लगा। उस समय उसे नानक जी का यह पद याद आया, ‘सबै कुछ जीवत का ब्योहार,’ और सूरदास का ‘कुसमय मीत काको कौन’ भी स्मरण आया। पर समय की प्रतिकूलता देख वह इन पदों को गा न सका। मन-ही-मन गुनगुनाता रहा।
इतने ही में ठाकुर साहब के दो नौकर वापस आए और उन्होंने बूढ़े नौकर से कहा कि हम लोग पहरे पर मुकर्रर हैं और तुमको ठाकुर साहब ने बुलाया है, वह मत्तन सौदागर के मकान में ठहरे हैं, वहीं तुम जाओ। उस बुड्ढ़े का नाम सत्यसिंह था।
जब वह उक्त स्थान पर पहुँचा तो उसने देखा कि ठाकुर साहब के चन्द मित्र, जो वकील, महाजन और अमले थे, इकट्ठे हुए हैं और वे सब एकमत होकर यही कह रहे हैं कि आप अपने इलाके पर चले जाइए; दाह-क्रिया के झंझट में मत पडि़ए, यह कर्म आपके नौकर कर देंगे, क्योंकि जब प्राण बचा रहेगा तो धर्म की रक्षा हो जाएगी। तब ठाकुर साहब ने इस विषय में पुरोहित जी की सम्मति पूछी, उन्होंने भी उस समय हाँ में हाँ मिलाना ही उचित समझा और कहा कि, “धर्मशास्त्रानुसार ऐसा हो सकता है; इस समय चाहे जो दग्ध कर दे, इसके अनन्तर जब सुभीता समझा जाएगा, आप एक पुतला बनाकर दग्ध-क्रिया कर दीजिएगा”
इतना सुनते ही ठाकुर साहब ने पुरोहित जी ही से कहा- “यह तीस रुपए लीजिए और मेरे आठ नौकर साथ ले जाकर कृपा करके आप दग्ध क्रिया करवा दीजिए और मुझे इलाके पर जाने की आज्ञा दीजिए।”
क्रमशः