यह कहकर लड़के को साथ लेकर और मित्रों से विदा होकर ठाकुर साहब इलाके पर पधारे और पुरोहित जी सत्यसिंह सहित आठ नौकरों को लेकर उनके घर पर गए। सीढ़ी बनवाते और कफ़न इत्यादि मँगवाते सायंकाल हो गया। जब नाइन बहूजी को कफनाने लगी, उसने कहा- “इनका शरीर तो अभी बिल्कुल ठण्डा नहीं हुआ है और आँखें अधखुली-सी हैं, मुझे भय मालूम होता है”
पुरोहित जी और नौकरों ने कहा- “यह तेरा भ्रम है, मुर्दे में जान कहाँ से आई। जल्दी लपेट ताकि गंगातट ले चलकर इसका सतगत करें। रात होती जाती है, क्या मुर्दे के साथ हम लोगों को भी मरना है! ठाकुर साहब तो छोड़ ही भागे, अब हम लोगों को इन पचड़ों से क्या मतलब है, किसी तरह फूँक-फाँककर घर चलना है। क्या इसके साथ हमें भी जलना है?”
सत्यसिंह ने कहा- “भाई, जब नाइन ऐसा कहती है, तो देख लेना चाहिए, शायद बहूजी की जान न निकली हो। ठाकुर साहब तो जल्दी से छोड़ भागे, डॉक्टर दूर ही से देखकर चला गया, ऐसी दशा में अच्छी तरह जाँच कर लेनी चाहिए”
सब नौकरों ने कहा- “सत्यसिंह, तुम तो सठिया गए हो, ऐसा होना असम्भव है। बस, देर न करो, ले चलो”
यह कहकर मुर्दे को सीढ़ी पर रख कंधे पर उठा, सत्यसिंह का वचन असत्य और रामनाम सत्य कहते हुए दशाश्वमेध घाट की ओर ले चले। रास्ते में एक नौकर कहने लगा, “सात बज गये हैं, दग्ध करते-करते तो बारह बज जावेंगे!”
दूसरे ने कहा- “फूँकने में निस्संदेह सारी रात बीत जाएगी”
तीसरे ने कहा- “यदि ठाकुर साहब कच्चा ही फेंकने को कह गये होते तो अच्छा होता”
चौथे ने कहा- “मैं तो समझता हूँ कि शीतला, हैजा, प्लेग से मरे हुए मृतक को कच्चा ही बहा देना चाहिए”
पाँचवें ने कहा- “यदि पुरोहित जी की राय हो तो ऐसा ही कर दिया जाए”
पुरोहित जी ने, जिसे रात्रि समय श्मशान में जाते डर मालूम होता था, कहा- “जब पाँच पंच की ऐसी राय है तो मेरी भी यही सम्मति है और विशेषकर इस कारण कि जब एक बार ठाकुर साहब को नरेनी अर्थात् पुतला बनाकर जलाने का कर्म करना ही पड़ेगा तो इस समय दग्ध करना अत्यावश्यक नहीं है”
छठे और सातवें ने कहा कि “बस चलकर मुर्दे को कच्चा ही फेंक दो, ठाकुर साहब से कह दिया जाएगा कि जला दिया गया”
परंतु सत्यसिंह जो यथानाम तथा गुण बहुत सच्चा और ईमानदार नौकर था, कहने लगा- “मैं ऐसा करना उचित नहीं समझता, मालिक का कहना और मुर्दे की गति करना हमारा धर्म है। यदि आप लोग मेरा कहना न मानें तो मैं यहीं से घर लौट जाता हूँ, आप लोग चाहे जैसा करें और चाहे जैसा ठाकुर साहब से कहें, यदि वह मुझसे पूछेंगे तो मैं सच-सच कह दूँगा”
यह सुनकर नौकर घबराये और कहने लगे कि “भाई तीस रुपए में से, जो ठाकुर साहब ने दिए हैं, तुम सबसे अधिक हिस्सा ले लो लेकिन यह वृतान्त ठाकुर साहब से मत कहना”
सत्यसिंह ने कहा- “मैं हरामखोर नहीं हूँ। ऐसा मुझसे कदापि नहीं होगा, लो मैं घर जाता हूँ, तुम लोगों के जी में जो आए सो करना”
जब यह कहकर वह बुड्ढा नौकर चला गया तो बाकी नौकर जी में बहुत डरे और पुरोहित जी से कहने लगे, “अब क्या करना चाहिए, बुड्ढ़ा तो सारा भेद खोल देगा और हम लोगों को मौकूफ करा देगा”
पुरोहित जी ने कहा- “तुम लोग कुछ मत डरो, अच्छा हुआ कि बुड्ढ़ा चला गया, अब चाहे जो करो; ठाकुर साहब से मैं कह दूँगा कि मुर्दा जला दिया गया। वह मेरा विश्वास बुड्ढ़े से अधिक करते हैं; तीस में से सात तो सीढ़ी और कफन में खर्च हुए हैं। दो-दो रुपए तुम सात आदमी ले लो, बाकी नौ रुपए मुझे नवग्रह का दान दे दो, मुर्दे को जल में डालकर राम-राम कहते हुए कुछ देर रास्ते में बिताकर कोठी पर लौट जाओ, ताकि पड़ोसी लोग समझें कि अवश्य ये लोग मुर्दे को जला आए”
यह सुनकर वे सब प्रसन्न हुए और तेईस रुपए आपस में बॉंटकर मुर्दे को ऐसे अवघट घाट पर ले गए जहाँ न कोई डोम कफ़न माँगने को था, न कोई महाब्राह्मण दक्षिणा माँगने को। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ऐसी जल्दी की कि सीढ़ी-समेत मुर्दे को जल में डाल दिया और राम-राम कहते हुए कगारे पर चढ़ आये क्योंकि एक तो वहाँ अँधेरी रात वैसे ही भयानक मालूम होती थी, दूसरे वे लोग यह डरते थे कि कहीं सरकारी चौकीदार आकर गिरफ्तार न कर ले, क्योंकि सरकार की तरफ से कच्चा मुर्दा फेंकने की मनाही थी। निदान वे बेईमान नौकर इस तरह स्वामी की आज्ञा भंग करके उस अविश्वसनीय पुरोहित के साथ घर लौटे।
अब सुनिए उस मुर्दे की क्या गति हुई। उस सीढ़ी के बाँस ऐसे मोटे और हल्के थे जैसे नौका के डाँड और उस स्त्री का शरीर कृशित होकर ऐसा हलका हो गया था कि उसके बोझ से वह सीढ़ी पानी में नहीं डूबी और इस तरह उतराती चली गई जैसे बाँसों का बेड़ा बहता हुआ चला जाता है। यदि दिन का समय होता तो किनारे पर के लोग अवश्य इस दृश्य से विस्मित होते और कौवे तो कुछ खोद-खाद मचाते। परंतु रात का समय था, इससे वह शव-सहित सीढ़ी का बेड़ा धीरे-धीरे बहता हुआ त्रिवेणी पार करके प्राय: पाँच मील की दूरी पर पहुँचा। पर यह तो कोई अचम्भे की बात न थी।
क्रमशः