कॉर्वस- सत्यजीत रे
भाग- 1
15 अगस्त
परिन्दों में मेरी दिलचस्पी बहुत पुरानी है। बचपन में हमारे घर एक पालतू मैना हुआ करती थी और मैंने उसे सौ से भी ज्यादा बांग्ला शब्द सिखा दिए थे। तब मेरा ख़याल यह था कि पक्षी कभी कभार जिन शब्दों का ‘उच्चारण’ कर लिया करते हैं उन शब्दों के मायनों से पक्षियों का कोई वास्ता नहीं हुआ करता । पर हमारी वह मैना एक दिन कुछ ऐसे आश्चर्यजनक ढंग से पेश आई कि मुझे अपनी यह धारणा बदलने पर मजबूर हो जाना पड़ा। दरअसल हुआ यों कि एक दोपहर स्कूल से लौटकर मैं खाना शुरू करने ही वाला था कि मैना डरे हुए स्वर में चिल्लाने लगी “भूचाल…….भूचाल……” ।
हममें से तब किसी को भूकम्प आने की रत्ती भर हलचल महसूस नहीं हुई पर अगली सुबह के अख़बार में यह ख़बर थी कि ‘सीस्मोग्राफ़’ ने पिछली दोपहर भूकंप के हल्के झटके रिकॉर्ड किए थे।
…और तभी से मैं पक्षियों की बुद्धिमत्ता को लेकर और ज़्यादा जिज्ञासु हो उठा पर दूसरे वैज्ञानिक तजुर्बों में मशगूल हो जाने की वजह से मुझे इस दिशा में आगे गंभीर अनुसंधान की फ़ुर्सत मिली ही नहीं।
हाँ, और दूसरी वजह थी न्यूटन, हमारा पालतू बिलाव, जिसे स्वभावतः पक्षी सख़्त नापसन्द हैं। अब आप ही बताइए मैं भला ऐसी बात क्यों करता जो उसे पसन्द न हो? पर अब मुझे महसूस होता है कि बचपन की दहलीज़ पार कर लेने पर मेरा बिल्ला न्यूटन परिन्दों के प्रति कुछ उदासीन-सा हो चला है। शायद इसीलिए मेरी प्रयोगशाला में फिर से कौओं, गौरैयाओं और मैनाओं का आना-जाना शुरू हो गया है। सवेरे-सवेरे मैं उन्हें दाना चुगाता हूँ और चुग्गे के इन्तजार में ये मुँह-अंधेरे से ही मेरी खिड़की के आसपास मंडराने लगते हैं।
हर जानवर में कुछ जन्मजात गुण होते हैं, लेकिन जहाँ तक पक्षियों की बात है, मेरा ख़याल तो यह है कि उनमें कुछ अद्भुत क्षमताएँ हैं। अब बया के घोंसले को ही लीजिए। इसे देखकर कौन दंग नहीं होता? अगर किसी भलेमानुस से ऐसा घोंसला ‘गढ़ने’ के लिए कहा जाय तो मैं समझता हूँ वह तो तौबा ही कर लेगा। क्यों है न? और अगर किसी तरह वह घोंसला बना भी डाले तो कम से कम एक महीना मेहनत मशक्कत तो उसे चाहिए ही।
एक आस्ट्रेलियन चिड़िया है- ‘मैली फाउल’, जो ज़मीन के भीतर अपना घोंसला बनाती है। कीचड़, रेत और घासफूस के ढेर की तरह बने इसके घोंसले में घुसने के लिए एक नन्ही-सी सुरंग होती है। ‘मैली फाउल’, अंडे तो इसके भीतर ही देती है पर उन्हें कभी खुद सेती नहीं। अंडों से बच्चे निकलें इसके लिए ज़रूरी है-गर्मी और इसके लिए वह न जाने किस तरकीब से घोंसले का तापमान लगातार 78 डिग्री फॉरेनहाइट बनाए रखती है-चाहे घोंसले से बाहर का तापमान भले ही कुछ भी क्यों न हो।
इससे भी आश्चर्यजनक और रहस्यमय है – ग्रेबी। न जाने क्यों यह चिड़िया अपने पंख नोंचकर खा जाती है और अपने बच्चों को खिला देती है। ग्रेबी जब पानी में कोई खतरा मंडराता देखती है तो अत्यन्त रहस्यमय तरीक़े से एकदम हल्की होकर शरीर की सारी हवा बाहर निकाल देती है। नतीजा यह होता है कि भार कम हो जाने के वजह से यह पानी में गर्दन तब डूबी आराम से तैरती रहती है।
हम सब चिड़ियों के दिशा-ज्ञान, गिद्ध की पैनी-दृष्टि, बाज की शिकारी-वृत्ति और कोयल की कूक से ख़ूब परिचित हैं। मैं कई दिनों से सोच रहा हूँ कि पक्षियों की तरफ ही अब क्यों न अपना थोड़ा बहुत ध्यान केन्द्रित करूँ? सोच रहा हूँ कि क्या उन्हें उनके जन्मजात गुणों से आगे भी नई चीज़ें सिखलाई जा सकती हैं? क्या आदमी की बुद्धि और समझदारी जैसी कोई चीज़ उनमें पैदा की जा सकती है? क्या ऐसी कोई मशीन बनाना संभव है, जो ऐसा कर दिखलाए?
20 अगस्त
पक्षियों को सिखलाने-पढ़ाने वाली मेरी मशीन बनाने का काम चल रहा है। मेरी आस्था मामूली तौर तरीक़ों में है। मेरा यंत्र भी बहुत मामूली ही होगा। इसके दो हिस्से होंगे। पिंजरे की तरह का एक भाग तो होगा पक्षी के रहने के लिए, और दूसरे हिस्से से होगा विद्युत सम्पर्क-जो पक्षी के मस्तिष्क में बुद्धि की लहरें प्रसारित करता रहेगा।
पिछले एक महीने से मैं ध्यानपूर्वक उन पक्षियों का अध्ययन कर रहा हॅूं, जो मेरी प्रयोगशाला में दाना चुगने के लिए आया करते हैं। कौवों, गौरियों, और मैनाओं के अलावा कबूतर, कमेड़ियां, तोते और बुलबुल वग़ैरह यहाँ अक्सर देखने को मिल जाते हैं। पर इनमें से अगर किसी ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है तो वह है-एक कौआ।यह सीधा सादा सामान्य-सा कौआ है। मैं इसे पहचानने भी लगा हूँ। इसकी दाहिनी आँख के नीचे छोटा-सा सफ़ेद एक निशान है, जिससे यह आसानी से और तुरन्त पहचान में आ जाता है। इसके अलावा दूसरे कौओं से इसका व्यवहार भी काफी अलग सा है। मैंने इसके अलावा किसी और कौए को पंजे के नीचे पैंसिल दबाए मेज़ पर लकीरें खींचते नहीं देखा। कल तो मैं इसकी हरकत देखकर आश्चर्य से ठगा-सा ही रह गया। हुआ यों कि मैं अपनी मशीन के काम में व्यस्त था कि कमरे में हल्की खरखराहट-सी सुनाई पड़ी। देखा तो पाया, यह हजरत माचिस के अधखुले डिब्बे से दियासलाई की एक सींक थामे उसे जलाने के लिए रोगन पर घिस रहे थे। अन्ततः मुझे उसे उड़ाने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा। पर उड़ते समय इसने चोंच से जो विशिष्ट-सी आवाज़ निकाली-वह काँव-काँव करने वाले किसी मामूली कौवे की आवाज़ क़तई नहीं थी। एक बार तो ऐसा लगा जैसे कौआ शैतानी से ‘हॅंस’ रहा हो।
सचमुच बड़ा होशियार है यह! ऐसा ही पक्षी तो मैं अपने परीक्षणों के लिए चाहता हूँ…. आगे-आगे देखते हैं होता है क्या?