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कोई दुःख न हो तो बकरी ख़रीद लो- मुंशी प्रेमचंद
भाग-3

(अब तक आपने पढ़ा…लेखक दूध की परेशानी से बचने के लिए अपने दोस्त के साथ मिलकर गाय पालते हैं, कुछ समय के लिए तो दूध की आपूर्ति ठीक होती है..लेकिन कुछ वक़्त बाद घर में मिलावटी और घटिया क़िस्म का दूध आने लगता है. पत्नी के द्वारा बार-बार चेताने पर भी संकोच में लेखक अपने दोस्त के सामने कुछ नहीं कह पाते. आखिरकार दोस्त के तबादले के कारण गाय बेचना पड़ता है. दूध के लिए बकरी पालने का विचार इसी समय लेखक को आता है और वो एक बहुत हृष्ट-पुष्ट बकरी खरीदते हैं…कुछ दिनों तक बकरी का दूध पाकर लेखक और उनका परिवार खुश रहता है लेकिन कुछ ही समय में बकरी का दूध कम हो जाता है.. बाद में उन्हें सलाह मिलती है कि बकरी को घुमाना फिराना ज़रूरी है. इसके लिए लेखक अपना घर बस्ती के बाहरी इलाके में ले लेते हैं इससे उनके ऑफिस की दूरी बढ़ जाती है पर वो दूध के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं..घर का नौकर रोज़ बकरी चराने ले जाता लेकिन वो उसे छोड़कर सो जाया करता जिससे बकरी किसी के खेत में घुस जाती है और वो लोग अपनी फसल नष्ट होने से नाराज़ होकर लेखक पर चढ़ाई क्र देते हैं. लेखक की पत्नी उनसे लड़कर उन्हें भगा देती हैं, पर लेखक को अपनी ग़लती का एहसास है. नौकर बकरी चराने से सीधे मना कर देता है आख़िरकार लेखक ख़ुद ही हर शाम ऑफिस से जल्दी घर आकर बकरी चराने का फैसला करते हैं…अब आगे)

दूसरे दिन मैं दफ्तर से ज़रा जल्द चला आया और चटपट बकरी को लेकर बाग़ में जा पहुँचा। जाड़े के दिन थे। ठण्डी हवा चल रही थी। पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियाँ गिरी हुई थीं। बकरी एक पल में वहाँ जा पहुँची । मेरी दलेल हो रही थी, उसके पीछे-पीछे दौड़ता फिरता था। दफ्तर से लौटकर ज़रा आराम किया करता था, आज यह कवायद करनी पड़ी, थक गया, मगर मेहनत सफल हो गई, आज बकरी ने कुछ ज़्यादा दूध पिया।

यह ख़याल आया, अगर सूखी पत्तियाँ खाने से दूध की मात्रा बढ़ गई तो यकीनन हरी पत्तियाँ खिलाई जाएँ तो इससे कहीं बेहतर नतीजा निकले। लेकिन हरी पत्तियाँ आयें कहाँ से? पेड़ों से तोडूँ तो बाग़ का मालिक जरूर एतराज़ करेगा, क़ीमत देकर हरी पत्तियाँ मिल न सकती थीं। सोचा, क्यों एक बार बाँस के लग्गे से पत्तियाँ तोड़ें। मालिक ने शोर मचाया तो उससे आरज़ू-मिन्नत कर लेंगे; राज़ी हो गया तो खैर, नहीं तो देखी जायगी। थोड़ी-सी पत्तियाँ तोड़ लेने से पेड़ का क्या बिगड़ जाता है?

चुनाचे एक पड़ोसी से एक पतला-लम्बा बाँस माँग लाया, उसमें एक अंकुश बॉँधा और शाम को बकरी को साथ लेकर पत्तियाँ तोड़ने लगा। चोर ऑंखों से इधर-उधर देखता जाता था, कहीं मालिक तो नहीं आ रहा है। अचानक वही काछी एक तरफ से आ निकला और मुझे पत्तियाँ तोड़ते देखकर बोला-

“यह क्या करते हो बाबूजी, आपके हाथ में यह लग्गा अच्छा नहीं लगता…बकरी पालना हम ग़रीबों का काम है कि आप जैसे शरीफ़ों का?”

मैं कट गया, कुछ जवाब न सूझा।

इसमें क्या बुराई है, अपने हाथ से अपना काम करने में क्या शर्म वगैरह जवाब कुछ हलके, बेहकीकत, बनावटी मालूम हुए। सफ़ेदपोशी के आत्मगौरव ने ज़बान बन्द कर दी। काछी ने पास आकर मेरे हाथ से लग्गा ले लिया और देखते-देखते हरी पत्तियों का ढेर लगा दिया और पूछा-“पत्तियाँ कहाँ रख जाऊँ?”

मैंने झेंपते हुए कहा- “तुम रहने दो? मैं उठा ले जाऊँगा”

उसने थोड़ी-सी पत्तियॉं बगल में उठा लीं और बोला- “आप क्या पत्तियाँ रखने जायेंगे, चलिए मैं रख आऊँ”

मैंने बरामदे में पत्तियाँ रखवा लीं। उसी पेड़ के नीचे उसकी चौगुनी पत्तियाँ पड़ी हुई थी। काछी ने उनका एक गट्ठा बनाया और सर पर लादकर चला गया। अब मुझे मालूम हुआ, यह देहाती कितने चालाक होते हैं। कोई बात मतलब से ख़ाली नहीं।

मगर दूसरे दिन बकरी को बाग़ में ले जाना मेरे लिए कठिन हो गया। काछी फिर देखेगा और न जाने क्या-क्या फिकरे चुस्त करे। उसकी नज़रों में गिर जाना मुँह से कालिख लगाने से कम शर्मनाक न था। हमारे सम्मान और प्रतिष्ठा की जो कसौटी लोगों ने बना रक्खी है, हमको उसका आदर करना पड़ेगा, नक्कू बनकर रहे तो क्या रहे?

लेकिन बकरी इतनी आसानी से अपनी निर्द्वन्द्व आज़ाद चहलकदमी से हाथ न खींचना चाहती थी जिसे उसने अपनी साधारण दिनचर्या समझना शुरू कर दिया था। शाम होते ही उसने इतने जोर-शोर से प्रतिवाद का स्वर उठाया कि घर में बैठना मुश्किल हो गया। गिटकिरीदार ‘मे-मे’ का निरन्तर स्वर आ-आकर कान के पर्दों को क्षत-विक्षत करने लगा। कहां भाग जाऊँ?

बीवी ने उसे गालियां देना शुरू कीं।

मैंने ग़ुस्से में आकर कई डण्डे रसीदे किये, मगर उसे सत्याग्रह स्थागित न करना था न किया। बड़े संकट में जान थी।

आख़िर मजबूर हो गया। अपने किये का, क्या इलाज! आठ बजे रात, जाड़ों के दिन। घर से बाहर मुँह निकालना मुश्किल और मैं बकरी को बाग़ में टहला रहा था और अपनी क़िस्मत को कोस रहा था। अँधेरे में पाँव रखते मेरी रूह काँपती है। एक बार मेरे सामने से एक साँप निकल गया था। अगर उसके ऊपर पैर पड़ जाता तो ज़रूर काट लेता। तब से मैं अँधेरे में कभी न निकलता था। मगर आज इस बकरी के कारण मुझे इस ख़तरे का भी सामना करना पड़ा। ज़रा भी हवा चलती और पत्ते खड़कते तो मेरी आँखें ठिठुर जातीं और पिंडलियां काँपने लगतीं। शायद पिछले जन्म में मैं बकरी रहा हूँगा और यह बकरी मेरी मालकिन रही होगी। उसी का प्रायश्चित इस ज़िन्दगी में भोग रहा था। बुरा हो उस पण्डित का, जिसने यह बला मेरे सिर मढी। गिरस्ती भी जंजाल है। बच्चा न होता तो क्यों इस मूजी जानवर की इतनी ख़ुशामद करनी पड़ती। और यह बच्चा बड़ा हो जायगा तो बात न सुनेगा, कहेगा, आपने मेरे लिए क्या किया है? कौन-सी जायदाद छोड़ी है?

यह सज़ा भुगतकर नौ बजे रात को लौटा। अगर रात को बकरी मर जाती तो मुझे ज़रा भी दु:ख न होता।

क्रमशः

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