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पड़ोसन के मुँह से किसी और स्त्री के पति की बुराई भी शशिकला को अच्छी न लगी. वो इस बात को समझने में नाकाम थी कि एक स्त्री पुरुष के बारे में ऐसी राय कैसे रख सकती है. कम उम्र में जयगोपाल बाबू से शशिकला की शादी हुई थी और बाल-बच्चे भी हो गए थे लेकिन कुछ समय से जयगोपाल बाबु पैसे कमाने की जुगत में बाहर चले गए थे और तब से ही उसे जुदाई सताने लगी थी. शशिकला लम्बे समय तक अपने माता-पिता की एकलौती बेटी रही लेकिन शशिकला की बुज़ुर्ग माँ ने जब बेटे को जन्म दिया तो शशिकला और पति जयगोपाल को ये ख़ुशी जैसा न लगे. इसके बाद ही जयगोपाल पैसे कमाने के लिए आसाम के बाग़ीचों में नौकरी करने चल पड़ा. कुछ ही दिनों में शशिकला की माँ का स्वर्गवास हो गया और बच्चे के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी शशिकला पर आ गयी. धीरे-धीरे शशिकला बच्चे से घुल गयी, अब आगे…

शिशु का नाम हुआ नीलमणि। जब वह दो वर्ष का हुआ तब उसके पिता असाध्यम रोगी हो गये। बहुत ही शीघ्र चले आने के लिए जयगोपाल बाबू को लिखा गया। जयगोपाल बाबू जब मुश्किल से उस सूचना को पाकर ससुराल पहुँचे, तब श्वसुर कालीप्रसन्न मौत की घड़ियां गिन रहे थे।

मरने से पूर्व कालीप्रसन्न ने अपने एकमात्र नाबालिग पुत्र नीलमणि का सारा भार दामाद जयगोपाल बाबू पर छोड़ दिया और अपनी अचल संपत्ति का एक चौथाई भाग अपनी बेटी शशिकला के नाम कर दिया।

इसलिए चल-अचल संपत्ति की सुरक्षा के लिए जयगोपाल बाबू को आसाम की नौकरी छोड़कर ससुराल चले आना पड़ा।

बहुत दिनों के उपरान्त पति-पत्नी में मिलन हुआ। किसी जड़-पदार्थ के टूट जाने पर, उनके जोड़ों को मिलाकर किसी प्रकार उसे जोड़ा जा सकता है, किन्तु दो मानवी हृदयों को, जहां से फट जाते हैं, विरह की लंबी अवधि बीत जाने पर फिर वहां ठीक पहले जैसा जोड़ नहीं मिलता? कारण हृदय सजीव पदार्थ है; क्षणों में उसकी परिणति होती है और क्षण में ही परिवर्तन।

इस नए मिलन पर शशि के मन में अबकी बार नए ही भावों का श्रीगणेश हुआ। मानो अपने पति से उसका पुन: विवाह हुआ हो। पहले दाम्पत्य में पुरानी आदतों के कारण जो एक जड़ता-सी आ गई थी, विरह के आकर्षण से वह एकदम टूट गई, और अपने पति को मानो उसने पहले की अपेक्षा कहीं अधिक पूर्णता के साथ पा लिया। मन-ही-मन में उसने संकल्प किया कि चाहे कैसे ही दिन बीतें, वह पति के प्रति उद्दीप्त स्नेह की उज्ज्वलता को तनिक भी म्लान न होने देगी।

किन्तु इस नए मिलन में जयगोपाल बाबू के मन की दशा कुछ और ही हो गई। इससे पूर्व जब दोनों अविच्छेद रूप से एक साथ रहा करते थे, जब पत्नी के साथ उसके पूरे स्वार्थ और विभिन्न कार्यों में एकता का संबंध था, जब पत्नी के साथ उसके जीवन का एक नित्य सत्य हो रही थी और जब वह उसे पृथक् करके कुछ करना चाहते थे तो दैनिकचर्या की राह में चलते-चलते अवश्य उनका पांव अकस्मात गहरे गर्त में पड़ जाता। उदाहरणत: कहा जा सकता है कि परदेश जाकर पहले-पहल वह भारी मुसीबत का शिकार हो गये। वहां उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो अकस्मात उन्हें किसी ने गहरे जल में धक्का दे दिया है। लेकिन क्रमश: उनके उस विच्छेद में नए कार्य को थेकली लगा दी गई।

केवल इतना ही नहीं; अपितु पहले जो उनके दिन व्यर्थ आलस्य में कट जाया करते थे, उधर दो वर्ष से अपनी आर्थिक अवस्था सुधारने की कोशिश के रूप में उनके मन में एक प्रकार की ज़बर्दस्त क्रांति का उदय हुआ। उनके मन के सम्मुख मालदार बनने की एकनिष्ठ इच्छा के सिवा और कोई चीज नहीं थी। इस नए उन्माद की तीव्रता के आगे पिछला जीवन उनको बिल्कुल ही सारहीन-सा दृष्टिगत होने लगा।

नारी जाति की प्रकृति में खास परिवर्तन ले आता है स्नेह, और पुरुष जाति की प्रकृति में कोई खास परिवर्तन होता है, तो उसकी जड़ में रहती है कोई-न-कोई दुष्ट-प्रवृत्ति।

जयगोपाल बाबू दो वर्ष पश्चात् आकर पत्नी से मिले तो उन्हें हू-ब-हू पहली-सी पत्नी नहीं मिली। उनकी पत्नी शशि के जीवन में उनके नवजात साले ने एक नई ही परिधि स्थित कर दी है, जो पहले से भी कहीं अधिक विस्तृत और संकीर्णता से कोसों दूर है। शशि के मन के इस भाव से वह बिल्कुल ही अनभिज्ञ थे और न इससे उनका मेल ही बैठता था। शशि अपने इस नवजात शिशु के स्नेह में से पति को भाग देने का बहुत यत्न करती, पर उसमें इसे सफलता मिली या नहीं, कहना कठिन है।

शशि नीलमणि को गोदी में उठाकर हंसती हुई पति के सामने आती और उनकी गोद में देने की चेष्टा करती, किन्तु नीलमणि पूरी ताकत के साथ दीदी के गले से चिपट जाता और अपने सम्बन्ध की तनिक भी परवाह न करके दीदी के कन्धे से मुंह को छिपाने का प्रयत्न करता।

शशि की इच्छा थी कि उसके इस छोटे से भाई को मन बहलाने की जितनी ही प्रकार की विद्या आती है, सबकी सब बहनोई के आगे प्रकट हो जाए। लेकिन न तो बहनोई ने ही इस विषय में कोई आग्रह दिखाया और न साले ने ही कोई दिलचस्पी दिखाई। जयगोपाल बाबू की समझ में यह बिल्कुल न आया कि इस दुबले-पतले चौड़े माथे वाले मनहूस सूरत काले-कलूटे बच्चे में ऐसा कौन-सा आकर्षण है, जिसके लिए उस पर प्यार की इतनी फ़िज़ूलख़र्ची की जा रही है।

प्यार की सूक्ष्म से सूक्ष्म बातें नारी-जाति चट से समझ जाती है। शशि तुरन्त ही समझ गई कि जयगोपाल बाबू को नीलमणि के प्रति कोई खास रुचि नहीं है और वह शायद मन से उसे चाहते भी नहीं हैं। तब से वह अपने भाई को बड़ी सतर्कता से पति की दृष्टि से बचाकर रखने लगी। जहां तक हो सकता, जयगोपाल की विराग दृष्टि उस पर नहीं पड़ने पाती।

और इस प्रकार वह बच्चा उस अकेली का एकमात्र स्नेह का आधर बन गया। उसकी वह इस प्रकार देखभाल रखने लगी, जैसे वह उसका बड़े यत्न से इकट्ठा किया हुआ गुप्त धन है। सभी जानते हैं कि स्नेह जितना ही गुप्त और जितना ही एकान्त का होता, उतना ही तेज़ हुआ करता है।

नीलमणि जब कभी रोता तो जयगोपाल बाबू को बहुत ही झुंझलाहट आती। अत: शशि झट से उसे छाती से लगाकर खूब प्यार कर-करके हंसाने का प्रयत्न करती; खासकर रात को उसके रोने से यदि पति की नींद उचटने की सम्भावना होती और पति यदि उस रोते हुए शिशू के प्रति हिंसात्मक भाव से क्रोध या घृणा ज़ाहिर करता हुआ तीव्र स्वर में चिल्ला उठता, तब शशि मानो अपराधिनी-सी संकुचित और अस्थिर हो जाती और उसी क्षण उसे गोदी में लेकर दूर जाकर प्यार के स्वर में कहती- ‘सो जा मेरा राजा बाबू, सो जा’ वह सो जाता।

बच्चों-बच्चों में बहुधा किसी-न-किसी बात पर झगड़ा हो ही जाता है? शुरू-शुरू में ऐसे अवसरों पर शशि अपने भाई का पक्ष लिया करती थी; कारण उसकी माँ नहीं है। जब न्यायाधीश के साथ-साथ न्याय में भी अन्तर आने लगा तब हमेशा ही निर्दोष नीलमणि को कड़ा-से-कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता। यह अन्याय शशि के हृदय में तीर के समान चुभ जाता और इसके लिए वह दण्डित भाई को अलग ले जाकर, उसे मिठाई देकर खिलौने देकर, गाल चूम करके, दिलासा देने का प्रयत्न किया करती।

परिणाम यह देखने में आता है कि शशि नीलमणि को जितना ही अधिक चाहती, जयगोपाल बाबू उतना ही उस पर जलते-भुनते रहते और वह जितना ही नीलमणि से घृणा करते, गुस्सा करते शशि उतना ही उसे अधिक प्यार करती।

जयगोपाल बाबू उन इंसानों में से हैं जो कि अपनी पत्नी के साथ कठोर व्यवहार नहीं करते और शशि भी उन स्त्रियों में से है जो स्निग्ध स्नेह के साथ चुपचाप पति की बराबर सेवा किया करती है। किन्तु अब केवल नीलमणि को लेकर अन्दर-ही-अन्दर एक गुठली-सी पकने लगी जो उस दम्पति के लिए व्यथा दे रही है।

इस प्रकार के नीरव द्वन्द्व का गोपनीय आघात-प्रतिघात प्रकट संघर्ष की अपेक्षा कहीं अधिक कष्टदायक होता है, यह बात उन समवयस्कों से छिपाना कठिन है जो कि विवाहित दुनिया की सैर कर चुके हों।

क्रमशः

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