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(कहानी के पहले भाग में आपने पढ़ा कि किस तरह हींगवाला ख़ान सावित्री को हींग की ज़रूरत न होने पर भी हींग बेच जाता है. सावित्री के बच्चों को ये बात अच्छी नहीं लगती और उन्हें लगता है कि माँ ने पैसे ज़ाया कर दिए. बच्चे ज़िद करने लगते हैं कि उन्हें भी पैसे दिए जाएँ क्यूँकि ख़ान को दिए गए पैसे फ़ज़ूल-ख़र्ची ही रही. बच्चों की बचकानी बात को सावित्री हँसी में टाल देती है. कई महीनें बीत जाते हैं, इस बीच होली पर दंगा भी हो जाता है. सावित्री को हींगवाले की याद आने लगती है, वो ये भी सोच रही होती है कि कहीं दंगे में ख़ान को कुछ हो न गया हो… अब आगे)

एक दिन सवेरे-सवेरे सावित्री उसी मौलसिरी के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी कुछ बुन रही थी । उसने सुना, उसके पति किसी से कड़े स्वर में कह रहे हैं- ”क्या काम है ?’ भीतर मत जाओ । यहाँ आओ। ” उत्तर मिला-”हींग है, हेरा हींग । ” और ख़ान तब तक आंगन मैं सावित्री के सामने पहुँच चुका था । ख़ान को देखते ही सावित्री ने कहा- ”बहुत दिनों में आए ख़ान ! हींग तो कब की खत्म हो गई ।”

ख़ान बोला- ”अपने देश गया था अम्मां, परसों ही तो लौटा हूँ ।” सावित्री ने कहा- ” यहाँ तो बहुत ज़ोरों का दंगा हो गया है ।” ख़ान बोला-”सुना, समझ नहीं है लड़ने वालों में ।”
सावित्री बोली-”खान, तुम हमारे घर चले आए । तुम्हें डर नहीं लगा ?”

दोनों कानों पर हाथ रखते हुए ख़ान बोला-”ऐसी बात मत करो अम्मां । बेटे को भी क्या माँ से डर हुआ है, जो मुझे होता ?” और इसके बाद ही उसने अपना डिब्बा खोला और एक छटांक हींग तोलकर सावित्री को दे दी । रेज़गारी दोनों में से किसी के पास नहीं थी । ख़ान ने कहा कि वह पैसा फिर आकर ले जाएगा । सावित्री को सलाम करके वह चला गया ।

इस बार लोग दशहरा दूने उत्साह के साथ मनाने की तैयारी में थे । चार बजे शाम को माँ काली का जुलूस निकलने वाला था । पुलिस का काफी प्रबंध था । सावित्री के बच्चों ने कहा- “हम भी काली का जुलूस देखने जाएंगे ।”

सावित्री के पति शहर से बाहर गए थे । सावित्री स्वभाव से भीरु थी । उसने बच्चों को पैसों का, खिलौनों का, सिनेमा का, न जाने कितने प्रलोभन दिए पर बच्चे न माने, सो न माने । नौकर रामू भी जुलूस देखने को बहुत उत्सुक हो रहा था । उसने कहा- “भेज दो न माँ जी, मैं अभी दिखाकर लिए आता हूँ ।” लाचार होकर सावित्री को जुलूस देखने के लिए बच्चों को बाहर भेजना पड़ा । उसने बार-बार रामू को ताक़ीद की कि दिन रहते ही वह बच्चों को लेकर लौट आए ।

बच्चों को भेजने के साथ ही सावित्री लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । देखते-ही-देखते दिन ढल चला । अंधेरा भी बढ़ने लगा, पर बच्चे न लौटे अब सावित्री को न भीतर चैन था, न बाहर । इतने में उसे कुछ आदमी सड़क पर भागते हुए जान पड़े । वह दौड़कर बाहर आई, पूछा-”ऐसे भागे क्यों जा रहे हो ? जुलूस तो निकल गया न ।”

एक आदमी बोला-”दंगा हो गया जी, बड़ा भारी दंगा!’ सावित्री के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए । तभी कुछ लोग तेज़ी से आते हुए दिखे । सावित्री ने उन्हें भी रोका । उन्होंने भी कहा-”दंगा हो गया है!”

अब सावित्री क्या करे ? उन्हीं में से एक से कहा-”भाई, तुम मेरे बच्चों की ख़बर ला दो । दो लड़के हैं, एक लड़की । मैं तुम्हें मुँह मांगा इनाम दूँगी।” एक देहाती ने जवाब दिया-”क्या हम तुम्हारे बच्चों को पहचानते हैं माँ जी? ” यह कहकर वह चला गया ।

सावित्री सोचने लगी, सच तो है, इतनी भीड़ में भला कोई मेरे बच्चों को खोजे भी कैसे? पर अब वह भी करें, तो क्या करें? उसे रह-रहकर अपने पर क्रोध आ रहा था । आखिर उसने बच्चों को भेजा ही क्यों ? वे तो बच्चे ठहरे, ज़िद तो करते ही, पर भेजना उसके हाथ की बात थी । सावित्री पागल-सी हो गई । बच्चों की मंगल-कामना के लिए उसने सभी देवी-देवता मना डाले । शोर-ग़ुल बढ़कर शांत हो गया । रात के साथ-साथ नीरवता बढ़ चली । पर उसके बच्चे लौटकर न आए । सावित्री हताश हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी । उसी समय उसे वही चिरपरिचित स्वर सुनाई पड़ा- “अम्मा!”

सावित्री दौड़कर बाहर आई उसने देखा, उसके तीनों बच्चे ख़ान के साथ सकुशल लौट आए हैं । ख़ान ने सावित्री को देखते ही कहा-”वक्त अच्छा नहीं हैं अम्मां! बच्चों को ऐसी भीड़-भाड़ में बाहर न भेजा करो ।” बच्चे दौड़कर माँ से लिपट गए ।

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