अनुपमा का प्रेम- शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय Anupama ka prem
घनी कहानी, छोटी शाखा: शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानी “अनुपमा का प्रेम” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..अनुपमा ग्यारह वर्ष की उम्र से ही उपन्यास पढ़ती आयी है इसका असर उसके मन पर भी पड़ा है। वो अपनी काल्पनिक दुनिया में जीती है उपन्यास की नायिका की भाँति वो अपने जीवन में तरह-तरह के भावों को जगह देती है। उसे लगता है कि जीवन का सारा प्रेम, सारी ममता जैसे भाव उसके जीवन में भी किसी कहानी की नायिका की तरह ही हैं। ऐसे में ही उसे ये ख़याल हो आता है कि अब उसे ये प्रेम किसी पात्र को देना चाहिए। इस तरह वो किसी को अपने मन में बसा भी लेती है जिसे उसके बारे में पता भी नहीं होता। अपनी काल्पनिक दुनिया में जीती हुई अनुपमा ख़ुद ही विरह-वेदना का अनुभव करने लगती है और घर के बग़ीचे में बाल खुला कर घूमती है। उसकी ये हालत देख परिवार के लोगों को चिंता होती है। घर की बहु के सुझाव पर अनुपमा के लिए रिश्ते देखे जाने लगते हैं, अच्छे घर की होने की वजह से इस बात में देर भी नहीं होती और एक रिश्ता मिल जाता है। अपने रिश्ते की बात सुनकर अनुपमा शादी से इनकार करती है लेकिन उसकी बात माँ को मज़ाक़ लगती है। अब आगे..)
गृहिणी के चले जाने पर बड़ी बहू बोली– “तुम विवाह नहीं करोगी?”
अनुपमा पूर्ववत गम्भीर मुँह किए बोली– “किसी प्रकार भी नहीं”
“क्यों?”
“चाहे जिसे हाथ पकड़ा देने का नाम ही विवाह नहीं है, मन का मिलन न होने पर विवाह करना भूल है!”- बड़ी बहू चकित होकर अनुपमा के मुँह की ओर देखती हुई बोली- “हाथ पकड़ा देना क्या बात होती है? पकड़ा नहीं देंगे तो क्या ल़ड़कियाँ स्वयं ही देख-सुनकर पसंद करने के बाद विवाह करेंगी?”
“अवश्य!”
“तब तो तुम्हारे मत के अनुसार, मेरा विवाह भी एक तरह की भूल हो गया? विवाह के पहले तो तुम्हारे भाई का नाम तक मैने नही सुना था”
“सभी क्या तुम्हारी ही भाँति हैं?”
बहू एक बार फिर हँसकर बोली– “तब क्या तुम्हारे मन का कोई आदमी मिल गया है?” – अनुपमा बड़ी बहू के हास्य-विद्रूप से चिढ़कर अपने मुँह को चौगुना गम्भीर करती हुई बोली– “भाभी मज़ाक़ क्यों कर रही हो, यह क्या मज़ाक़ का समय है?”
“क्यों क्या हो गया?” Anupama ka prem
“क्या हो गया? तो सुनो…”- अनुपमा को लगा, उसके सामने ही उसके पति का वध किया जा रहा है, अचानक कतलू खाँ के किले में, वध के मंच के सामने खड़े हुए विमला और वीरेन्द्र सिंह का दृश्य उसके मन में जग उठा,
अनुपमा ने सोचा- “वे लोग जैसा कर सकते हैं, वैसा क्या वह नही कर सकती? सती-स्त्री संसार में किसका भय करती है? देखते-देखते उसकी आँखें अनैसर्गिक प्रभा से धक्-धक् करके जल उठीं, देखते-देखते उसने आँचल को कमर में लपेटकर कमरबन्द बाँध लिया। यह दृश्य देखकर बहू तीन हाथ पीछे हट गई। क्षण भर में अनुपमा बग़ल वाले पलंग के पाये को जकड़कर, आँखें ऊपर उठाकर, चीत्कार करती हुई कहने लगी– “प्रभु, स्वामी, प्राणनाथ! संसार के सामने आज मैं मुक्त-कण्ठ से चीत्कार करती हूँ, तुम्ही मेरे प्राणनाथ हो! प्रभु तुम मेरे हो, मैं तुम्हारी हूँ। यह खाट के पाए नहीं, ये तुम्हारे दोनों चरण हैं, मैने धर्म को साक्षी करके तुम्हे पति-रूप में वरण किया है, इस समय भी तुम्हारे चरणों को स्पर्श करती हुई कह रही हूँ, इस संसार में तुम्हें छोड़कर अन्य कोई भी पुरुष मुझे स्पर्श नहीं कर सकता। किसमें शक्ति है कि प्राण रहते हमें अलग कर सके। अरी माँ, जगत जननी…!”
बड़ी बहू चीत्कार करती हुई दौड़ती बाहर आ पड़ी– “अरे, देखते हो, ननदरानी कैसा ढंग अपना रही हैं”-
देखते-देखते गृहिणी भी दौड़ी आई। बहूरानी का चीत्कार बाहर तक जा पहुँचा था– “क्या हुआ, क्या हुआ, क्या हो गया?” – कहते गृहस्वामी और उनके पुत्र चन्द्रबाबू भी दौड़े आए। कर्ता-गृहिणी, पुत्र, पुत्रवधू और दास-दासियों से क्षण भर में घर में भीड़ हो गई। अनुपमा मूर्छित होकर खाट के समीप पड़ी हुई थी। गृहिणी रो उठी– “मेरी अनु को क्या हो गया?” डॉक्टर को बुलाओ, पानी लाओ, हवा करो’ इत्यादि। इस चीत्कार से आधे पड़ोसी घर में जमा हो गए।
बहुत देर बाद आँखें खोलकर अनुपमा धीरे-धीरे बोली– “मैं कहाँ हूँ?”
उसकी माँ उसके पास मुँह लाती हुई स्नेहपूर्वक बोली- “कैसी हो बेटी? तुम मेरी गोदी में लेटी हो”
अनुपमा दीर्घ नि:श्वास छोड़ती हुई धीरे-धीरे बोली- “ओह तुम्हारी गोदी में? मैं समझ रही थी, कहीं अन्यत्र स्वप्न- नाट्य में उनके साथ बही जा रही थी?”- पीड़ा-विगलित अश्रु उसके कपोलों पर बहने लगे।
माता उन्हें पोंछती हुई कातर-स्वर में बोली- “क्यों रो रही हो, बेटी?”
अनुपमा दीर्घ नि:श्वास छोड़कर चुप रह गई। बड़ी बहू चन्द्रबाबू को एक ओर बुलाकर बोली- “सबको जाने को कह दो, ननद रानी ठीक हो गई हैं”
क्रमश: सब लोग चले गए।
रात को बहू अनुपमा के पास बैठकर बोली- “ननद रानी, किसके साथ विवाह होने पर तुम सुखी होओगी?”
अनुपमा आँखें बन्द करके बोली- “सुख-दुख मुझे कुछ नही है, वही मेरे स्वामी हैं…”
“सो तो मैं समझती हूँ, परन्तु वे कौन हैं?”
“सुरेश! मेरे सुरेश…”
“सुरेश! राखाल मजमूदार के लड़के?”
“हाँ, वे ही”
रात में ही गृहिणी ने यह बात सुनी। दूसरे दिन सवेरे ही मजमूदार के घर जा उपस्थित हुई।
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कहानी “अनुपमा का प्रेम” का अंतिम भाग
Anupama ka prem