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Premchand ki Dhaporshankhढपोरशंख, मुंशी प्रेमचंद

ढपोरशंख- मुंशी प्रेमचंद
भाग-5

(Premchand ki Dhaporshankh अब तक आपने पढ़ा…लेखक यहाँ अपने एक मित्र ढपोरशंख की कहानी सुना रहे हैं। ढपोरशंख ने जब लेखक को अपने एक दोस्त के विषय में बताया तो उनकी पत्नी ने उस दोस्त करुणाकर को धोखेबाज़ कहा इस बात पर फ़ैसला करने के लिए लेखक को पाँच बनाकर लेखक को ढपोरशंख करुणाकर की कहानी बताने बैठे हैं।वो बताते हैं कि एक पुस्तक की समीक्षा को लिखने के अनुरोध के पत्र से शुरू हुआ ये सिलसिला करुणाकर के दुःख, दर्द और आपबीती के खातों के सिलसिले में बदल गया। ढपोरशंख और उनकी पत्नी करुणाकर की बातों से प्रभावित होकर उससे लगाव लगा बैठे और एक वक़्त नौकरी के सिलसिले में ज़रूरत पड़ने पर उसे सौ रुपए तार से देकर मदद तक की। फिर अपनी ज़िंदगी की आपाधापी से तंग आकर करुणाकर आख़िर ढपोरशंख के घर आ जाता है और उसे किसी होटल में व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी संभालनते हुए ढपोरशंख अपनी जेब से रुपए ख़र्च करता है इस आस में कि करुणाकर की तनख़्वाह आते ही वो लौटा देगा। इधर कुछ महीने होटल में रहने के बाद करुणाकर ढपोरशंख के दूसरे मित्र माथुर जिससे अब करुणाकर की भी अच्छी दोस्ती हो गयी थी उसके घर बसने का विचार करता है। वहाँ बसते ही वो रोज़ माथुर की व्यथा और दुःख भरी ज़िंदगी की कहानियाँ लेकर ढपोरशंख को सुनाने आने लगता है और एक रोज़ उसके लिए भी मदद के कुछ रुपए माँग ले जाता है। किसी तरह ढपोरशंख करुणाकर को अपने एक आगरा के मित्र के यहाँ लेखन के काम में जोड़ देता है, जाते हुए भी करुणाकर कुछ रुपए उधार ले जाता है। ढपोरशंख अब भी उस बात से व्यथित नहीं होता बल्कि सोचता है कि अपने आगरा वाले दोस्त से कहकर सीधे तनख़्वाह से एक किस्त अपनी उधार की रक़म वापसी के लिए रखने कह देगा। इसी बीच उसे कुछ ही रोज़ में करुणाकर नज़र आता है, उसे देखकर ढपोरशंख के मन में ख़याल आता है कि कहीं उसने बाक़ियों की तरह ये नौकरी भी तो नहीं छोड़ दी। वो उससे मिलकर हाल पूछता है। अब आगे….)

जोशी ने बैठकर एक सिगार जलाते हुए कहा, ‘बहुत अच्छी तरह हूँ। मेरे बाबू साहब बड़े ही सज्जन आदमी हैं। मेरे लिए अलग एक कमरा खाली करा दिया है। साथ ही खिलाते हैं। बिलकुल भाई की तरह रखते हैं। आजकल किसी काम से दिल्ली गये हैं। मैंने सोचा, यहाँ पड़े-पड़े क्या करूँ, तब तक आप ही लोगों से मिलता आऊँ। चलते वक़्त बाबू साहब ने मुझसे कहा था, मुरादाबाद से थोड़े-से बर्तन लेते आना, मगर शायद उन्हें रुपये देने की याद नहीं रही। मैंने उस वक़्त माँगना भी उचित न समझा। आप एक पचास रुपये दे दीजिएगा। मैं परसों तक जाऊँगा और वहाँ से जाते-ही-जाते भिजवा दूँगा। आप तो जानते हैं, रुपये के मुआमले में वे कितने खरे हैं”

मैंने ज़रा रुखाई के साथ कहा, “रुपये तो इस वक़्त मेरे पास नहीं हैं”

देवीजी ने टिप्पणी की -“क्यों झूठ बोलते हो? तुमने रुखाई से कहा, था कि रुपये नहीं हैं?”

ढपोरशंख ने पूछा, “और क्या चिकनाई के साथ कहा था?”

देवीजी – “तो फिर काग़ज़ के रुपये क्यों दे दिये थे?..बड़ी रुखाई करनेवाले”

ढपोरशंख -“अच्छा साहब, मैंने हँसकर रुपये दे दिये। बस, अब ख़ुश हुईं। तो भई, मुझे बुरा तो लगा; लेकिन अपने सज्जन मित्र का वास्ता था। मेरे ऊपर बेचारे बड़ी कृपा रखते हैं। मेरे पास पत्रिका का काग़ज़ ख़रीदने के लिए पचास रुपये रखे हुए थे। वह मैंने जोशी को दे दिये। शाम को माथुर ने आकर कहा, जोशी तो चले गये। कहते थे, बाबू साहब का तार आ गया है। बड़ा उदार आदमी है। मालूम ही नहीं होता कोई बाहरी आदमी है। स्वभाव भी बालकों का-सा है। भांजी की शादी तय करने को कहते थे। लेन-देन का तो कोई ज़िक्र है ही नहीं, पर कुछ नज़र तो देनी ही पड़ेगी। बैरिस्टर साहब, जिनसे विवाह हो रहा है, दिल्ली के रहने वाले हैं। उनके पास जाकर नज़र देनी होगी। जोशीजी चले जायँगे। आज मैंने रुपये भी दे दिये। चलिए, एक बड़ी चिन्ता सिर से टली” Premchand ki Dhaporshankh

मैंने पूछा, “रुपये तो तुम्हारे पास न होंगे?”

माथुर ने कहा, “रुपये कहाँ थे साहब! एक महाजन से स्टाम्प लिखकर लिये, दो रुपये सैकड़े सूद पर”

देवीजी ने क्रोध भरे स्वर में कहा, “मैं तो उस दुष्ट को पा जाऊँ तो मुँह नोच लूँ। पिशाच ने इस ग़रीब को भी न छोड़ा”

ढपोरशंख बोला, “यह क्रोध तो आपको अब आ रहा है न। तब तो आप भी समझती थीं कि जोशी दया और धर्म का पुतला है”

देवीजी ने विरोध किया – “मैंने उसे पुतला-पुतली कभी नहीं समझा। हाँ, तुम्हारी तकलीफ़ों के भुलावे में पड़ जाती थी”

ढपोरशंख – “तो साहब, इस तरह कोई दो महीने गुज़रे, इस बीच में भी जोशी दो-तीन बार आये; मगर मुझसे कुछ माँगे नहीं। हाँ, अपने बाबू साहब के संबंध में तरह-तरह की बातें कीं, जिनसे मुझे दो-चार गल्प लिखने की सामग्री मिल गई”

मई का महीना था। एक दिन प्रात:काल जोशी आ पहुँचे। मैंने पूछा, तो मालूम हुआ, उनके बाबू साहब नैनीताल चले गये। इन्हें भी लिये जाते थे; पर उन्होंने हम लोगों के साथ यहाँ रहना अच्छा समझा और चले आये।

देवीजी ने फुलझड़ी छोड़ी -“क़ितना त्यागी था बेचारा। नैनीताल की बहार छोड़कर यहाँ गर्मी में प्राण देने चला आया”-

ढपोरसंख ने इसकी ओर कुछ ध्यान न देकर कहा, “मैंने पूछा, कोई नई बात तो नहीं हुई वहाँ?”

जोशी ने हँसकर कहा, “भाग्य में तो नई-नई विपत्तियाँ लिखी हैं। उनसे कैसे जान बच सकती है। अबकी भी एक नई विपत्ति सिर पड़ी। यह कहिए, आपका आशीर्वाद था, जान बच गई, नहीं तो अब तक जमुनाजी में बहा चला जाता होता। एक दिन जमुना किनारे सैर करने चला गया। वहाँ तैराकी का मैच था। बहुत-से आदमी तमाशा देखने आये हुए थे। मैं भी एक जगह खड़ा होकर देखने लगा। मुझसे थोड़ी दूर पर एक और महाशय एक युवती के साथ खड़े थे। मैंने बातचीत की, तो मालूम हुआ, मेरी ही बिरादरी के हैं। यह भी मालूम हुआ, मेरे पिता और चाचा, दोनों ही से उनका परिचय है। मुझसे स्नेह की बातें करने लगे तुम्हें इस तरह ठोकरें खाते तो बहुत दिन हो गये; क्यों नहीं चले जाते, अपने माँ-बाप के पास। माना कि उनका लोक-व्यवहार तुम्हें पसन्द नहीं; लेकिन माता-पिता का पुत्र पर कुछ-न-कुछ अधिकार तो होता है। तुम्हारी माताजी को कितना दु:ख हो रहा होगा” Premchand ki Dhaporshankh

सहसा एक युवक किसी तरफ से आ निकला और वृद्ध महाशय तथा युवती को देखकर बोला, “आपको शर्म नहीं आती कि आप अपनी युवती कन्या को इस तरह मेले में लिये खड़े हैं”

वृद्ध महाशय का मुँह ज़रा-सा निकल आया और युवती तुरन्त घूँघट निकालकर पीछे हट गई। मालूम हुआ कि उसका विवाह इसी युवक से ठहरा हुआ है। वृद्ध उदार, सामाजिक विचारों के आदमी थे, परदे के कायल न थे। युवक, वयस में युवक होकर भी खूसट विचारों का आदमी था, परदे का कट्टर पक्षपाती। वृद्ध थोड़ी देर तक तो अपराधी भाव से बातें करते रहे, पर युवक प्रतिक्षण गर्म हो जाता था। आख़िर बूढ़े बाबा भी तेज़ हुए।

युवक ने आँखें निकालकर कहा, “मैं ऐसी निर्लज्जा से विवाह करना अपने लिए अपमान की बात समझता हूँ”

वृद्ध ने क्रोध से काँपते हुए स्वर में कहा, “और मैं तुम-जैसे लंपट से अपनी कन्या का विवाह करना लज्जा की बात समझता हूँ”

युवक ने क्रोध के आवेश में वृद्ध का हाथ पकड़कर धक्का दिया। बातों से न जीतकर अब वह हाथों से काम लेना चाहता था। वृद्ध धक्का खाकर गिर पड़े। मैंने लपककर उन्हें उठाया और युवक को डाँटा। वह वृद्ध को छोड़कर मुझसे लिपट गया। मैं कोई कुश्तीबाज तो हूँ नहीं। वह लड़ना जानता था। मुझे उसने बात-की-बात में गिरा दिया और मेरा गला दबाने लगा। कई आदमी जमा हो गये थे। जब तक कुश्ती होती रही, लोग कुश्ती का आनंद उठाते रहे; लेकिन जब देखा मुआमला संगीन हुआ जाता है, तो तुरन्त बीच-बचाव कर दिया।

क्रमशः Premchand ki Dhaporshankh

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