Zauq Ki Shayari शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
तू जान है हमारी और जान है तो सब कुछ
ईमान की कहेंगे ईमान है तो सब कुछ
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एहसान ना-ख़ुदा का उठाए मिरी बला
कश्ती ख़ुदा पे छोड़ दूँ लंगर को तोड़ दूँ
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कहते हैं आज ‘ज़ौक़’ जहाँ से गुज़र गया
क्या ख़ूब आदमी था ख़ुदा मग़्फ़िरत करे
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अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे
तुमने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की
तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जाएँगे
हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझ पर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएँगे
__स्टेट्स पर लगाने के लिए बेहतरीन शायरी…____
बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
ना-उमीदी हो तो फिर आराम की उम्मीद है
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लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले
हमसे भी इस बिसात पे कम होंगे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले
नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है हो वही
दानिश तिरी न कुछ मिरी दानिश-वरी चले
माँ पर बेहतरीन शेर..
दुनिया ने किसका राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले
जाते हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से ‘ज़ौक़’
अपनी बला से बाद-ए-सबा अब कभी चले
______ Zauq Ki Shayari
कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
ख़ाक में जब मिल गए दोनों बराबर हो गए
_____राहत इन्दौरी के बेहतरीन शेर
वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें
ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें
फिर मुझे ले चला उधर देखो
दिल-ए-ख़ाना-ख़राब की बातें
मह-जबीं याद हैं कि भूल गए
वो शब-ए-माहताब की बातें
सुनते हैं उस को छेड़-छेड़ के हम
किस मज़े से इताब की बातें
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उमैर नज्मी के बेहतरीन शेर…
न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब
‘ज़ौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा
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इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
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तुम भूल कर भी याद नहीं करते हो कभी
हम तो तुम्हारी याद में सब कुछ भुला चुके
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तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे
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जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
आप की गर यूँ ख़ुशी है मेहरबाँ यूँ ही सही
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शकील बदायूँनी के बेहतरीन शेर
सबको दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
कौन फिरता है ये मुर्दार लिए फिरती है
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कल जहाँ से कि उठा लाए थे अहबाब मुझे
ले चला आज वहीं फिर दिल-ए-बे-ताब मुझे
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हक़ ने तुझको इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
इस के ये मअ’नी कहे इक और सुने इंसान दो
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नाज़ है गुल को नज़ाकत पे चमन में ऐ ‘ज़ौक़’
उस ने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाकत वाले
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मस्जिद में उसने हम को आँखें दिखा के मारा
काफ़िर की शोख़ी देखो घर में ख़ुदा के मारा
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हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें
शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता
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क्या देखता है हाथ मिरा छोड़ दे तबीब
याँ जान ही बदन में नहीं नब्ज़ क्या चले
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शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
वर्ना ईमान गया ही था ख़ुदा ने रक्खा
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ऐ ‘ज़ौक़’ वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ
वर्ना जिगर को रोएगा तू धर के सर पे हाथ
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छोड़ा न दिल में सब्र न आराम ने क़रार
तेरी निगह ने साफ़ किया घर के घर पे हाथ
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ख़त दे के चाहता था ज़बानी भी कुछ कहे
रक्खा मगर किसी ने दिल-ए-नामा-बर पे हाथ
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ऐ ‘ज़ौक़’ मैं तो बैठ गया दिल को थाम कर
इस नाज़ से खड़े थे वो रख कर कमर पे हाथ
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दिखाने को नहीं हम मुज़्तरिब हालत ही ऐसी है
मसल है रो रहे हो क्यूँ कहा सूरत ही ऐसी है
Zauq Ki Shayari