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Rukmini Devi Arundale Biography ~ आज हम सखी विशेष में जिनका ज़िक्र करने वाले हैं वो हैं रुक्मिणी देवी अरुंडेल। ये एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने भरतनाट्यम को एक अलग पहचान दी। 29 फ़रवरी 1904 को मदुरै तमिलनाडू में जन्मी रुक्मिणी देवी, के पिता नीलकंठ शास्त्री एक इंजीनियर और स्कॉलर थे और माँ सीशामल्ल संगीत प्रेमी थीं। पिता के स्थानांतरण के कारण रुक्मिणी देवी को कई जगहों पर रहने का मौक़ा मिला और इसी दौरान वो अलग-अलग संस्कृति से परिचित भी हुईं। रुक्मिणी देवी अरुंडेल देश की जानी-मानी भरतनाट्यम नृत्यांगना थीं। नृत्यांगना होने के साथ-साथ वे दर्शनशास्त्री और भारतीय शास्त्रीय नृत्य भरतनाट्यम की कोरियोग्राफर भी थीं।
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पिता के रिटायरमेंट के बाद जब वो स्थायी रूप से चेन्नई में रहने लगे। पिता की तरह ही रुक्मिणी देवी भी थियोसोफ़िकल सोसायटी की पक्षधर थीं। इसके कारण ही उनकी एक बिलकुल अलग संस्कृति, थिएटर, संगीत और नृत्य से मुलाक़ात हुई। यहीं उनकी मुलाक़ात अपने भावी पति डॉक्टर जॉर्ज अरुंडेल से हुई, जो कि ब्रिटिश थियोसोफ़िस्ट थे। 1920 को उन्होंने शादी कर ली और इसके बाद वो दुनिया भर की यात्रा करती रहीं। 1928 में उन्होंने एक मशहूर बैले डान्सर का नृत्य देखा और बाद में उनके साथ ही मुंबई से आस्ट्रेलिया की जहाज़ यात्रा में डान्स भी सीखा। यही वो समय था जब रुक्मिणी देवी का ध्यान भारतीय नृत्य कला की ओर गया।

Sri Rukmani Devi, the famous Bharatanatyam dancer as she appeared on October 6, 1940.

1933 में पहली बार उन्होंने मद्रास संगीत अकादमी में एक नृत्यशैली देखा जो कि साधीर कहा जाता है। इसे देखते ही उन्होंने इस विषय में जानकारी इकट्ठा की। दो साल बाद इसे सीखकर 1935 में रुक्मिणी देवी ने तमाम विरोधों के बावजूद अपनी पहली पब्लिक पर्फ़ॉर्मन्स दी। इसजे बाद 1936 में उन्होंने कलाक्षेत्र नाम की एक संगीत और नृत्य अकादमी शुरू की जो अब भी है। यहाँ आपको ये भी बता दें कि नृत्यशैली साधीर भरतनाट्यम की एक विधा है। लेकिन जिस समय इसे रुक्मिणी देवी ने अपनाया था उस समय इसे अच्छा नहीं माना जाता था।

देवदासियाँ ये नृत्य किया करती थीं। इसकी कई भाव- भंगिमाएँ सभ्य समाज में खुलेआम करने जैसी नहीं मानी जाती थीं। शृंगार और उत्तेजना जगाने वाली कई भंगिमाएँ इस शैली की विशेषता थीं। रुक्मिणी देवी ने इसमें परिवर्तन किया उन्होंने इसे संगीत और अभिनय से जोड़ा। उन्होंने इसमें कई वाद्यों को शामिल किया जैसे कि वायलिन। वहीं मंचसंरचना, वेशभूषा, गहने सभी में उन्होंने बदलाव किए। इसके लिए उन्होंने ख़ुद कई अलग-अलग शिक्षकों से शिक्षा भी ली और इसे भरत नाट्यम का अंग बनाया।

Rukmini Devi Arundale Biography

रुक्मिणी देवी ने इस नृत्य शैली में पौराणिक गाथाओं का मंचन शुरू किया। उन्होंने वाल्मीकि रामायण, जयदेव की गीत गोविंद, कुमार सम्भव, उषा परिणयम जैसी कथाओं को इसमें शामिल किया। रामायण की कई महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे सीता स्वयंवर, राम वनगमन, सबरी मोक्ष जैसी घटनाओं का मंचन देखना अपने आप में एक अनोखा अनुभव हुआ करता था। इस बदलाव ने भरतनाट्यम को देश ही नहीं विदेशों में भी पहचान दिलायी। उनके इस योगदान के कारण ही आज भरतनाट्यम एक अलग पहचान रखता है।

1952 और 1956 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया, वो पहली महिला थीं जो इस पद पर बैठीं।1977 में उनका नाम राष्ट्रपति पद के लिए भी नामित करने का विचार था लेकिन उन्होंने इसके लिए विनम्रता से मना कर दिया क्योंकि वो अपनी कला को अपना समय देना चाहती थीं। इसके अलावा वो पशु पक्षियों के प्रति भी जागरूक रहीं और लोगों को जागक करती रहीं। वो भारत में पशु कल्याण बोर्ड की चेयरमेन रहीं। 1956 में उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से नवाज़ा गया। संगीत नाट्य अकादमी अवार्ड(1957), 1967 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप(1967), प्राणी मित्र(1968) जैसे कई पुरस्कारों से उन्हें समय- समय पर सम्मानित किया गया। जनवरी 1994 में रुक्मिणी देवीकी शताब्दी के अवसर पर उनके स्वर स्थापित कलाक्षेत्र फ़ाउंडेशन को भारतीय सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त इंस्टिट्यूट घोषित किया गया।

24 फ़रवरी 1986 को 81 साल की उम्र में रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने इस दुनिया को तो अलविदा कह दिया लेकिन वो जिस बदलाव का कारण बनीं वो उन्हें अमर बना चुका है। 1987 में उनके नाम पर एक डाक-टिकट भी जारी की गयी। रुक्मिणी देवी, एक ऐसे महिला हैं जिन्होंने न सिर्फ़ बदलाव लाना चाहा बल्कि वो उस बदलाव को लाने का कारण बनी और उन्होंने अपनी पूरी मेहनत से इस लक्ष्य को प्राप्त भी किया। ऐसी हर महिला के बारे में हम जितना कह दें कमी ही रहती हैं कुछ न कुछ छूट ही जाता है।
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