Ahmad Salman Shayari
जो हम पे गुज़रे थे रंज सारे जो ख़ुद पे गुज़रे तो लोग समझे
जब अपनी अपनी मुहब्बतों के अज़ाब झेले तो लोग समझे
वो जिन दरख़्तों की छाँव में से मुसाफ़िरों को उठा दिया था
उन्हीं दरख़्तों पे अगले मौसम जो फल न उतरे तो लोग समझे
उस एक कच्ची सी उम्र वाली के फ़लसफ़े को कोई न समझा
जब उस के कमरे से लाश निकली ख़ुतूत निकले तो लोग समझे
वो ख़्वाब थे ही चँबेलियों से सो सब ने हाकिम की कर ली बै’अत
फिर इक चँबेली की ओट में से जो साँप निकले तो लोग समझे
वो गाँव का इक ज़ईफ़ दहक़ाँ सड़क के बनने पे क्यूँ ख़फ़ा था
जब उनके बच्चे जो शहर जाकर कभी न लौटे तो लोग समझे
Ahmad Salman Shayari
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सबने माना मरने वाला दहशत-गर्द और क़ातिल था
माँ ने फिर भी क़ब्र पे उसकी राज-दुलारा लिक्खा था
लाश के नन्हे हाथ में बस्ता और इक खट्टी गोली थी
ख़ून में डूबी इक तख़्ती पर ग़ैन-ग़ुबारा लिक्खा था
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मैं हूँ भी तो लगता है कि जैसे मैं नहीं हूँ
तुम हो भी नहीं और ये लगता है कि तुम हो
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अहमद सलमान