Zia Mazkoor Shayari
बोल पड़ते हैं हम जो आगे से
प्यार बढ़ता है इस रवय्ये से
मैं वही हूँ यक़ीं करो मेरा
मैं जो लगता नहीं हूँ चेहरे से
हम को नीचे उतार लेंगे लोग
इश्क़ लटका रहेगा पंखे से
सारा कुछ लग रहा है बे-तरतीब
एक शय आगे पीछे होने से
वैसे भी कौन सी ज़मीनें थीं
मैं बहुत ख़ुश हूँ आक़-नामे से
ये मोहब्बत वो घाट है जिस पर
दाग़ लगते हैं कपड़े धोने से
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उसके गाँव की एक निशानी ये भी है
हर नलके का पानी मीठा होता है
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तुमको अच्छे लगे तो तुम रख लो
फूल तोड़े थे बेचने के लिए
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फ़ोन तो दूर वहाँ ख़त भी नहीं पहुँचेंगे
अब के ये लोग तुम्हें ऐसी जगह भेजेंगे
ज़िंदगी देख चुके तुझ को बड़े पर्दे पर
आज के बअ’द कोई फ़िल्म नहीं देखेंगे
मसअला ये है मैं दुश्मन के क़रीं पहुँचूँगा
और कबूतर मिरी तलवार पे आ बैठेंगे
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ऐसे उस हाथ से गिरे हम लोग
टूटते टूटते बचे हम लोग
अपना क़िस्सा सुना रहा है कोई
और दीवार के बने हम लोग
वस्ल के भेद खोलती मिट्टी
चादरें झाड़ते हुए हम लोग
उस कबूतर ने अपनी मर्ज़ी की
सीटियाँ मारते रहे हम लोग
पूछने पर कोई नहीं बोला
कैसे दरवाज़ा खोलते हम लोग
हाफ़िज़े के लिए दवा खाई
और भी भूलने लगे हम लोग
ऐन मुमकिन था लौट आता वो
उसके पीछे नहीं गए हम लोग
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Zia Mazkoor Shayari
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