fbpx

Main Ganga Prasaad Ki Aurat Hoon
लेखक- अरग़वान रब्बही

रोज़ की तरह अपने दफ़्तर की तरफ़ जाते 8 सीट वाले विक्रम ऑटो में मनोज जैसे ही बैठा उसकी नज़र सामने की सीट पर बैठी एक पर्दानशीं औरत पर पड़ी, लाल साड़ी में लिपटी अधेड़ उम्र की औरत का घूँघट उसकी कमर तक था और उसकी उम्र या उसके रंग का अंदाजा सिर्फ़ उसकी ज़रा-ज़रा नज़र आने वाली कलाइयों से ही लगाया जा सकता था।

मनोज ने अपनी निगाहों को दूसरी तरफ़ कर लेना ही बेहतर समझा लेकिन एक बार फिर जब नज़र पड़ी तो औरत की कलाई से लिपटी सियाही की सूखी हुई बूँदें नज़र आ गईं जो कह रही थीं,”मैं गंगा प्रसाद की औरत हूँ”।

औरत की दायीं कलाई पर लाल रंग की सियाही से लिखा ये जुमला ही जैसे उसकी पहचान बता रहा हो।उसकी कलाई पर लिखी इस तहरीर को देख न जाने क्यों मनोज के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई।

तेज़ रफ़्तार से दौड़ता ऑटो लटके-झटके लेता हुआ थाने के सामने वाले मोड़ पर किनारे अचानक से रुका, ऑटो रुकने से मनोज को हल्का झटका लगा।
“साहब, आ गया थाना..” ऑटो वाले ने मनोज की तरफ़ आवाज़ की।

मनोज को एहसास हुआ कि थाना आ गया तो वो संभल कर उतरा और उतरते समय एक बार फिर उस औरत की कलाई की ओर देखा।

पुलिस वाले ऑटो वालों को पैसे नहीं ही देते हैं.. कभी-कभी वो इस रिवाज को तोड़ना भी चाहता था लेकिन फिर जैसे चल रहा है, चलने देता था।

ऑटो वाला अपनी सवारियां ढूँढने में लग गया और मनोज सड़क के दूसरी तरफ़ स्थित अपने थाने की ओर बढ़ गया, वो थाने के गेट तक ही पहुँचा था कि एक चौंका देने की हद तक तेज़ आवाज़ हुई और उसने तुरंत पलट के देखा तो वो ऑटो जिससे वो उतरा था, सड़क पर उल्टा पड़ा था।

देखते ही देखते भीड़ जमा हो गई, थाने के दो सिपाही भागकर गए और भीड़ हटाने के बाद ज़रूरी कार्यवाई करने लगे। ऑटो में मौजूद पाँचों लोग जिनमें एक आदमी ड्राइवर, तीन पैसेंजर आदमी और एक औरत थी, को अस्पताल ले जाया गया.. सभी को बहुत चोटें आई थीं, चोटों से अंदाज़ा लग रहा था कि मुश्किल ही है कि किसी की जान बचे।

हादसे को देखकर जब वो थाने पहुँचा तो साहब ने उसकी ड्यूटी घायलों की देखरेख में लगा दी। वो अपने साथ एक और सिपाही ले गया और ज़रूरी पुलिसिया कार्यवाई होने लगी। सबके घर वालों को ख़बर दे दी गई और वो औरत जिसे सुबह ही मनोज ने ऑटो में देखा था, जिसका घूँघट आधी कमर तक था, बेज़ार सी अस्पताल में पड़ी थी लेकिन उसे पूछने वाला कोई नहीं था।

वो ख़ुद इस हालत में नहीं थी कि कुछ बता पाए.. उसकी पहचान कैसे हो, कैसे उसके घर वालों तक पहुँचा जाए.. उसके पास न तो मोबाइल था और न ही कोई काग़ज़, उसकी पहचान बस उसकी कलाई पर लिखी लिखावट ही थी।

“मैं गंगा प्रसाद की औरत हूँ”

इसके अलावा कोई और पहचान सामने नहीं थी, बस इसी से पता चल रहा था कि वो ‘गंगा प्रसाद’ की “औरत” है, यानी कि उसकी पत्नी है।

मनोज ने अपने साथी शकील से कहा कि पता करे कि आसपास के गाँव में कितने ‘गंगा प्रसाद’ हैं और कितने ऐसे हैं जिनकी पत्नी लापता है। एक तरफ़ जहाँ इस औरत के परिवार का पता नहीं लग पा रहा था, वहीं इसकी हालत बिगड़ती जा रही थी। बाकी के घायलों में से दो की मौत हो गई और उनकी लाश उनके घर वाले ले गए जबकि दो ख़तरे से बाहर हैं और उनके परिवार उनकी सेवा करने के लिए अस्पताल में आ गए हैं।

दो दिन तक डॉक्टरों ने कोशिश की लेकिन वो उस औरत को बचा नहीं सके। मनोज और शकील ने बहुत कोशिश की लेकिन उस औरत की पहचान का कोई पता नहीं चल सका।

3 दिन बाद..
थाने में..

थानेदार ने मनोज से पूछा, “वो जो औरत मरी थी ऑटो वाले हादसे में, उसका परिवार आया..”
“नहीं साहब”
“अच्छा.. अजीब बात है, एक औरत घर नहीं लौटी तो किसी ने रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई”
“आस-पास के इलाक़ों में मालूम किया है सर, किसी की बीवी लापता नहीं है”
“अच्छा…. तो एक काम करो.. अपने पंडित जी को कॉल करो और उसका अंतिम संस्कार करवा दो.. उसके पति का नाम गंगा प्रसाद है तो हिंदू ही है.. पंडित का जो लगेगा वो बताना मुझे…. बेचारी का अंतिम संस्कार करवा दो.. जल्दी.. अब मत करो इंतज़ार”
“जी सर..”

अगली सुबह..
शहर से सटे गाँव के क्षेत्र के पास

गाँव के बाहर कुछ लिपटस के पेड़ों के बीच ख़ाली जगह पर एक चिता जल रही है। सूरज की पहली किरणें जैसे आग की लपटों में मिलकर और तेज़ हो रही थीं। मनोज अकेला खड़ा था। उसके ज़हन में बार-बार यही सवाल गूँज रहा था-
“क्या एक औरत की पहचान सिर्फ़ उसके पति से है, किसी मर्द से है… उसकी अपनी कोई पहचान नहीं, उसका अपने नाम का होना ना होना कुछ भी नहीं?”

चिता की आँच और तेज़ होने लगती है मनोज धीरे-धीरे वापसी की ओर आगे बढ़ने लगता है।

सड़क के किनारे स्थित चाय की दुकान पर वो चाय पीने के लिए बैठ जाता है। दूर एक चिता जल रही है और मनोज चाय का गिलास उठाता ही है कि उसका फ़ोन बजने लगता है।
वो फ़ोन जेब से निकालकर देखता है कि शकील का फ़ोन है, एक तरफ़ स्वाइप करके वो फ़ोन उठाता है- “हाँ शकील”
“एक गंगा प्रसाद का पता चला है और उसकी औरत भी ग़ायब बताई जा रही है” फ़ोन के दूसरी ओर से शकील ने कहा।
“अच्छा.. ये तो अच्छी बात है.. मैं आता हूँ तो फिर उसके घर चलते हैं..”
“हाँ.. ठीक है”

दोपहर 1 बजे..
शकील और मनोज बाइक पर सवार होकर उस गाँव पहुँचते हैं जहाँ गंगा प्रसाद रहता है। पूछते पाछते वो एक दरवाज़े के पास पहुँचते हैं। मनोज लकड़ी के दरवाज़े की कुंडी को खटखट करता है। अंदर से एक औरत की आवाज़ आती है..
“कौन है जी?”
“पुलिस”
आधा दरवाज़ा खोलकर वो सवाल करती है, “पुलिस… क्या काम है साहेब”
“गंगा प्रसाद का घर यही है”
सर से लेकर कमर तक घूँघट लिए औरत ने जवाब दिया, “हाँ.. साहेब यही है”
“बुलाओ उसे..”
“वो तो नहीं हैं”
“कहाँ गया”
“खेते गए हैं साहेब.. कौनो बात है का..”
मनोज ने एक कम-उम्र की ख़ुश लड़की को दुःख में न डालना ही उचित समझा और कहा..”कोई ऐसी बात नहीं.. गंगा प्रसाद से ही बात करेंगे”
“अच्छा.. ठीक है”
“उसका मोबाइल नम्बर किसी काग़ज़ में लिखकर दे दो.. और जब आये तो उसे थाने भेजना”
“जी साहेब..”

कुछ देर में उसने आधे खुले दरवाज़े से मनोज को मोबाइल नम्बर लिखा काग़ज़ दिया.. काग़ज़ लेते वक़्त उसकी नज़र उस औरत के हाथ पर पड़ी, उसके हाथ पर कुछ लिखा था.. हालाँकि उसने काग़ज़ लिया और शकील को नम्बर नोट करने को कहा।

मनोज बाइक की ओर आगे बढ़ने लगा लेकिन एक ख़याल ने उसे पलटने पर मजबूर किया..
उसने उस औरत से सवाल किया..
“तुम कौन हो?”
औरत ने कहा,”मैं… मैं साहेब गंगा प्रसाद की औरत हूँ”

मनोज ने एक बार चौंककर उसकी ओर देखा, औरत की कलाई पर लिखा,”मैं गंगा प्रसाद की औरत हूँ” चमकने लगा, वो सोच में पड़ गया… शकील ने बाइक स्टार्ट कर दी, मनोज को उसने इशारे से बुलाया, मनोज पीछे की सीट पर बैठ गया, दोनों शहर की ओर बढ़ गए।

उर्दू की बेहतरीन ग़ज़लें (रदीफ़ और क़ाफ़िए की जानकारी के साथ)
प्रभा खेतान: साहित्य, नारीवाद और समाज सेवा की अनूठी मिसाल

________________________ Main Ganga Prasaad Ki Aurat Hoon

“میں گنگا پرساد کی عورت ہوں”

روز کی طرح اپنے دفتر کی طرف جاتے ہوئے آٹھ سیٹوں والے وِکرَم آٹو میں منوج جیسے ہی بیٹھا، اس کی نظر سامنے کی سیٹ پر بیٹھی ایک پردہ نشین عورت پر پڑی، لال ساڑھی میں لپٹی ادھیڑ عمر کی عورت کا گھونگٹ اس کی کمر تک تھا اور اس کی عمر یا رنگ کا اندازہ صرف اس کی ذرا ذرا نظر آنے والی کلائیوں سے ہی لگایا جا سکتا تھا۔

منوج نے اپنی نظریں دوسری طرف کر لینا ہی بہتر سمجھا، لیکن ایک بار پھر جب نظر پڑی تو عورت کی کلائی سے لپٹی سیاہی کی خشک ہوئی بوندیں نظر آگئیں جو کہہ رہی تھیں، “میں گنگا پرساد کی عورت ہوں”۔ عورت کی دائیں کلائی پر لال رنگ کی سیاہی سے لکھا یہ جملہ ہی جیسے اس کی پہچان بتا رہا ہو۔

اس کی کلائی پر لکھی اس تحریر کو دیکھ کر نہ جانے کیوں منوج کے چہرے پر ہلکی سی مسکراہٹ آ گئی۔ تیز رفتار سے دوڑتا آٹو لٹکے جھٹکے لیتا ہوا تھانے کے سامنے والے موڑ پر کنارے اچانک سے رکا، آٹو رکنے سے منوج کو ہلکا جھٹکا لگا۔ “صاحب، آ گیا تھانہ..” آٹو والے نے منوج کی طرف آواز کی۔

منوج کو احساس ہوا کہ تھانہ آ گیا تو وہ سنبھل کر اترا اور اترتے وقت ایک بار پھر اس عورت کی کلائی کی طرف دیکھا۔

پولیس والے آٹو والوں کو پیسے نہیں دیتے ہیں.. کبھی کبھار وہ اس رسم کو توڑنا بھی چاہتا تھا لیکن پھر جیسے چل رہا ہے، چلنے دیتا تھا۔

آٹو والا اپنی سواریاں ڈھونڈنے میں لگ گیا اور منوج سڑک کے دوسری طرف واقع اپنے تھانے کی طرف بڑھ گیا، وہ تھانے کے گیٹ تک ہی پہنچا تھا کہ ایک چونکا دینے کی حد تک تیز آواز ہوئی اور اس نے فوراً پلٹ کر دیکھا تو وہ آٹو جس سے وہ اترا تھا، سڑک پر الٹا پڑا تھا۔

دیکھتے ہی دیکھتے بھیڑ جمع ہو گئی، تھانے کے دو سپاہی دوڑ کر گئے اور بھیڑ ہٹانے کے بعد ضروری کارروائی کرنے لگے۔ آٹو میں موجود پانچوں لوگ جن میں ایک آدمی ڈرائیور، تین مسافر مرد اور ایک عورت تھی، کو اسپتال لے جایا گیا.. سب کو بہت چوٹیں آئی تھیں، چوٹوں سے اندازہ لگ رہا تھا کہ مشکل ہی ہے کہ کسی کی جان بچے۔

حادثہ دیکھ کر جب وہ تھانے پہنچا تو صاحب نے اس کی ڈیوٹی زخمیوں کی دیکھ بھال میں لگا دی۔ وہ اپنے ساتھ ایک اور سپاہی لے گیا اور ضروری پولیس کارروائی ہونے لگی۔ سب کے گھر والوں کو خبر دے دی گئی اور وہ عورت جسے صبح ہی منوج نے آٹو میں دیکھا تھا، جس کا گھونگٹ آدھی کمر تک تھا، بے زار سی اسپتال میں پڑی تھی لیکن اسے پوچھنے والا کوئی نہیں تھا۔

وہ خود اس حالت میں نہیں تھی کہ کچھ بتا پاتی.. اس کی شناخت کیسے ہو، کیسے اس کے گھر والوں تک پہنچا جائے.. اس کے پاس نہ تو موبائل تھا اور نہ ہی کوئی کاغذ، اس کی شناخت بس اس کی کلائی پر لکھی تحریر ہی تھی۔

“میں گنگا پرساد کی عورت ہوں”

اس کے علاوہ کوئی اور شناخت سامنے نہیں تھی، بس اسی سے پتہ چل رہا تھا کہ وہ ‘گنگا پرساد’ کی “عورت” ہے، یعنی کہ اس کی بیوی ہے۔

منوج نے اپنے ساتھی شکیل سے کہا کہ پتا کرے کہ آس پاس کے گاؤں میں کتنے ‘گنگا پرساد’ ہیں اور کتنے ایسے ہیں جن کی بیوی غائب ہے۔ ایک طرف جہاں اس عورت کے خاندان کا پتا نہیں لگ پا رہا تھا، وہیں اس کی حالت بگڑتی جا رہی تھی۔ باقی کے زخمیوں میں سے دو کی موت ہو گئی اور ان کی لاشیں ان کے گھر والے لے گئے، جبکہ دو خطرے سے باہر ہیں اور ان کے خاندان والے ان کی خدمت کرنے کے لیے اسپتال میں آ گئے ہیں۔

دو دن تک ڈاکٹروں نے کوشش کی لیکن وہ اس عورت کو بچا نہ سکے۔ منوج اور شکیل نے بہت کوشش کی لیکن اس عورت کی شناخت کا کوئی پتہ نہ چل سکا۔

3 دن بعد..
تھانے میں..

تھانے دار نے منوج سے پوچھا، “وہ جو عورت مری تھی آٹو والے حادثے میں، اس کا خاندان آیا؟” “نہیں صاحب” “اچھا.. عجیب بات ہے، ایک عورت گھر نہیں لوٹی تو کسی نے رپورٹ بھی نہیں لکھوائی” “آس پاس کے علاقے میں معلوم کیا ہے سر، کسی کی بیوی غائب نہیں ہے” “اچھا…. تو ایک کام کرو.. اپنے پنڈت جی کو کال کرو اور اس کا آخری سفر کروا دو.. اس کے شوہر کا نام گنگا پرساد ہے تو ہندو ہی ہے.. پنڈت کا جو لگے گا وہ بتانا مجھے…. بیچاری کا آخری سفر کروا دو.. جلدی.. اب مت کرو انتظار” “جی سر..”

اگلی صبح..
شہر سے سٹے گاؤں کے علاقے کے پاس

گاؤں کے باہر کچھ لپٹاس کے درختوں کے درمیان خالی جگہ پر ایک چتا جل رہی ہے۔ سورج کی پہلی کرنیں جیسے آگ کی لپٹوں میں مل کر اور تیز ہو رہی تھیں۔ منوج اکیلا کھڑا تھا۔ اس کے ذہن میں بار بار یہی سوال گونج رہا تھا-
“کیا ایک عورت کی شناخت صرف اس کے شوہر سے ہے، کسی مرد سے ہے… اس کی اپنی کوئی شناخت نہیں، اس کا اپنے نام کا ہونا نہ ہونا کچھ بھی نہیں؟”

چتا کی آگ اور تیز ہونے لگتی ہے منوج دھیرے دھیرے واپسی کی طرف آگے بڑھنے لگتا ہے۔

سڑک کے کنارے واقع چائے کی دکان پر وہ چائے پینے کے لیے بیٹھ جاتا ہے۔ دور ایک چتا جل رہی ہے اور منوج چائے کا گلاس اٹھاتا ہی ہے کہ اس کا فون بجنے لگتا ہے۔ وہ فون جیب سے نکال کر دیکھتا ہے کہ شکیل کا فون ہے، ایک طرف سوائپ کر کے وہ فون اٹھاتا ہے- “ہاں شکیل” “ایک گنگا پرساد کا پتہ چلا ہے اور اس کی عورت بھی غائب بتائی جا رہی ہے” فون کے دوسری طرف سے شکیل نے کہا۔ “اچھا.. یہ تو اچھی بات ہے.. میں آتا ہوں تو پھر اس کے گھر چلتے ہیں..” “ہاں.. ٹھیک ہے”

دوپہر 1 بجے..
شکیل اور منوج بائیک پر سوار ہو کر اس گاؤں پہنچتے ہیں جہاں گنگا پرساد رہتا ہے۔ پوچھتے پوچھتے وہ ایک دروازے کے پاس پہنچتے ہیں۔ منوج لکڑی کے دروازے کی کنڈی کو کھٹکھٹ کرتا ہے۔ اندر سے ایک عورت کی آواز آتی ہے.. “کون ہے جی؟” “پولیس” آدھا دروازہ کھول کر وہ سوال کرتی ہے، “پولیس… کیا کام ہے صاحب” “گنگا پرساد کا گھر یہی ہے” سر سے لے کر کمر تک گھونگٹ لیے عورت نے جواب دیا، “ہاں.. صاحب یہی ہے” “بلاؤ اسے..” “وہ تو نہیں ہیں” “کہاں گئے” “کھیتوں گئے ہیں صاحب.. کوئی بات ہے کا..” منوج نے ایک کم عمر کی خوش لڑکی کو دکھ میں نہ ڈالنا ہی مناسب سمجھا اور کہا..”کوئی ایسی بات نہیں.. گنگا پرساد سے ہی بات کریں گے” “اچھا.. ٹھیک ہے” “اس کا موبائل نمبر کسی کاغذ میں لکھ کر دے دو.. اور جب آئے تو اسے تھانے بھیجنا” “جی صاحب..”

کچھ دیر میں اس نے آدھے کھلے دروازے سے منوج کو موبائل نمبر لکھا کاغذ دے دیا.. کاغذ لیتے وقت اس کی نظر اس عورت کے ہاتھ پر پڑی، اس کے ہاتھ پر کچھ لکھا تھا.. حالانکہ اس نے کاغذ لیا اور شکیل کو نمبر نوٹ کرنے کو کہا۔

منوج بائیک کی طرف آگے بڑھنے لگا لیکن ایک خیال نے اسے پلٹنے پر مجبور کیا.. اس نے اس عورت سے سوال کیا.. “تم کون ہو؟” عورت نے کہا، “میں… میں صاحب گنگا پرساد کی عورت ہوں”

منوج نے ایک بار چونک کر اس کی طرف دیکھا، عورت کی کلائی پر لکھا، “میں گنگا پرساد کی عورت ہوں” چمکنے لگا، وہ سوچ میں پڑ گیا… شکیل نے بائیک اسٹارٹ کر دی، منوج کو اس نے اشارے سے بلایا، منوج پیچھے کی سیٹ پر بیٹھ گیا، دونوں شہر کی طرف بڑھ گئے۔

Main Ganga Prasaad Ki Aurat Hoon

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *