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Best Urdu Rubai रूबाई (Rubai) – रूबाई चार-चार मिसरों की ऐसी शा’इरी को कहते हैं जिनके पहले, दूसरे और चौथे मिसरों का एक ही रदीफ़, क़ाफ़िये में होना ज़रूरी है. इसमें एक बात समझनी ज़रूरी है कि ग़ज़ल के लिए प्रचलित 35-36 बह्र में से कोई भी रूबाई के लिए इस्तेमाल में नहीं लायी जाती है. रूबाइयों के लिए चौबीस छंद अलग से तय हैं, रूबाई इन चौबीस बह्रों में कही जाती है.

मीर अनीस की रूबाई (Meer Anis Ki Rubai)

अंदाज़-ए-सुख़न तुम जो हमारे समझो,
जो लुत्फ़-ए-कलाम हैं वो सारे समझो,
आवाज़ गिरफ़्ता गो है उस ज़ाकिर की,
पहरों रोओ अगर इशारे समझो

अख़्तर अंसारी की रूबाई (Akhtar Ansari Ki Raubai)

इक तीर कलेजे में पिरोया हमने
इक ज़ख़्म दिल-ए-ज़ार में बोया हमने
लूटा किए फिर उम्र भर आहों के मज़े
यूँ जन्नत-ओ-दोज़ख़ को समोया हमने

सादिक़ैन की रूबाई (Sadiqain Ki Rubai)

बचपन में तुझे याद किया था मैंने,
जब शे’र का कब लफ़्ज़ सुना था मैंने,
इस पर नहीं मौक़ूफ़ रुबाई तुझ को
हर रोज़ ही तख़्ती पे लिखा था मैंने

(मौक़ूफ़- निर्भर)

नोट- 1923 में पैदा हुए सादिक़ैन पाकिस्तान के इतिहास के सबसे शानदार पेंटर और कैलीग्राफ़र माने जाते हैं. वो एक शा’इर भी थे, बतौर शा’इर उन्होंने उमर खै़य्याम और सरमद कशानी के स्टाइल में रूबाईयाँ लिखी हैं. 10 फ़रवरी, 1987 को उनकी मृत्यु हो गयी.

इस्माइल मेरठी की रूबाई (Ismail Merathi ki Rubai)

देखा तो कहीं नज़र ना आया हरगिज़,
ढूँडा तो कहीं पता ना पाया हरगिज़,
खोना पाना है सब फ़ुज़ूली अपनी
ये ख़ब्त न हो मुझे ख़ुदाया हरगिज़

(ख़ब्त- पागलपन)

मिर्ज़ा ग़ालिब की रूबाई  (Mirza Ghalib Ki Rubai)

दुःख जी के पसंद हो गया है ‘ग़ालिब’,
दिल रुककर बन्द हो गया है ‘ग़ालिब’,
वल्लाह कि शब् को नींद आती ही नहीं,
सोना सौगंद हो गया है ‘ग़ालिब’

….
नोट- मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के सबसे महान शा’इरों में शुमार किये जाते हैं. असद उल्लाह ख़ा “ग़ालिब” का जन्म 27 दिसंबर, 1796 को उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में हुआ था. उनका देहांत 15 फ़रवरी 1869 को दिल्ली में हुआ.

फ़िराक़ गोरखपुरी की रूबाई (Firaq Gorakhpuri ki Rubai) 

आ जा कि खड़ी है शाम पर्दा घेरे,
मुद्दत हुई जब हुए थे दर्शन तेरे
मग़रिब से सुनहरी गर्द उठी सू-ए-क़ाफ़,
सूरज ने अग्नि रथ के घोड़े फेरे

(मग़रिब- पश्चिम)
नोट- रघुपति सहाय “फ़िराक़” गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 को हुआ था. वो अपने दौर के सबसे कामयाब शा’इरों में से एक थे. उनका देहांत 3 मार्च, 1982 को दिल्ली में हुआ.

 

सौदा की रूबाई (Sauda Ki Rubai)

गर यार के सामने मैं रोया तो क्या,
मिज़्गाँ में जो लख़्त-ए-दिल पिरोया तो क्या
ये दाना-ए-अश्क सब्ज़ होना मालूम
इस शूर ज़मीं में तुख़्म बोया तो क्या

………………………….

अनीस की रूबाई (Anis Ki Rubai)

ऐ शाह के ग़म में जान खोने वालो,
ऐ इब्न-ए-अली के सदक़े होने वालो,
इस अज्र-ए-अज़ीम को न दो हाथों से
अब दो ही शबें और हैं रोने वालो
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मिर्ज़ा ग़ालिब की रूबाई (Mirza Ghalib Ki Rubai)

कहते हैं कि अब वो मर्दम-आज़ार नहीं
उशशाक़ की पुरसिश से उसे आर नहीं
जो हाथ कि ज़ुल्म से उठाया होगा
क्यूँकर मानूँ कि उसमें तलवार नहीं

(मर्दम-आज़ार: इंसानों को सताने वाला,उशशाक़- प्रेमियों, पुरसिश- पूछताछ, आर- अनबन)

नोट- मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के सबसे महान शा’इरों में शुमार किये जाते हैं. असद उल्लाह ख़ा “ग़ालिब” का जन्म 27 दिसंबर, 1796 को उत्तर प्रदेश के
आगरा शहर में हुआ था. उनका देहांत 15 फ़रवरी 1869 को दिल्ली में हुआ.

……
फ़िराक़ गोरखपुरी की रूबाई (Firaq Gorakhpuri Ki Rubai)

चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
पिघली हुई बिजली है कि बल खाती है
पहलू में लहक के भेंच लेती है वो जब
क्या जाने कहाँ बहा ले जाती है

नोट- रघुपति सहाय “फ़िराक़” गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 को हुआ था. वो अपने दौर के सबसे कामयाब शा’इरों में से एक थे. उनका देहांत 3 मार्च, 1982 को दिल्ली में हुआ.

 

मीर तक़ी मीर की रूबाई (Meer Taqi Meer Ki Rubai) 

तुम तो ऐ महरबान अनूठे निकले
जब आन के पास बैठे रूठे निकले
क्या कहिए वफ़ा एक भी वअ’दा न किया
ये सच है कि तुम बहुत झूठे निकले

…..

सादिक़ैन की रूबाई (Sadiqain Ki Rubai) 

इस शाम वो सर में दर्द सहना उसका,
मैं पास हुआ तो दूर रहना उसका
मुझसे ज़रा शर्मा के तबीअत मेरी
कुछ आज है ना-साज़ ये कहना उसका

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शाद अज़ीमाबादी की रूबाई (Shad Azeemabadi ki Rubai)

सौ तरह का मेरे लिए सामान क्या
पूरा इक उम्र का अरमान क्या
सय्यद से मिला प मदरसा भी देखा
‘हाली’ ने अजब तरह का एहसान किया

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जोश मलीहाबादी की रूबाई (Josh Ki Rubai)

साहिल, शबनम, नसीम, मैदान-ए-तुयूर
ये रंग ये झूठ-पुटा ये ख़ुनकी ये सुरूर
ये रक़्स-ए-हयात और दरिया के उधर
टूटी हुई क़ब्रों पे सितारों का ये नूर

 

जोश मलीहाबादी की रूबाई (Josh Ki Rubai)

ग़ुंचे तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है,
सिर्फ़ एक तबस्सुम के लिए खिलता है
ग़ुंचे ने कहा कि इस चमन में बाबा
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है

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नरेश कुमार शाद की रूबाई (Naresh Kumar Shad ki Rubai)

चेहरे की तब-ओ-ताब में कौंद लपके,
आँखों में हसीन रात पलकें झपके,
एहसास की उँगलियाँ जो छू लें उनको
भीगे हुए अन्फ़ास से अमृत टपके

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अल्ताफ़ हुसैन हाली की रुबाई (Altaf Hussain Hali Ki Rubai)

हैं जहल में सब आलिम ओ जाहिल हम-सर,
आता नहीं फ़र्क़ इस के सिवा उन में नज़र
आलिम को है इल्म अपनी नादानी का
जाहिल को नहीं जहल की कुछ अपने ख़बर

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फ़ानी बदायूँनी की रूबाई (Fani Budayuni Ki Rubai)

अब ये भी नहीं कि नाम तो लेते हैं
दामन फ़क़त अश्कों से भिगो लेते हैं
अब हम तिरा नाम ले के रोते भी नहीं
सुनते हैं तिरा नाम तो रो लेते हैं

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शाद अज़ीमाबादी की रूबाई (Shad Azeemabadi Ki Rubai) 

चालाक हैं सब के सब बढ़ते जाते हैं
अफ़्लाक-ए-तरक़्क़ी पे चढ़ते जाते हैं
मकतब बदला किताब बदली लेकिन
हम एक वही सबक़ पढ़ते जाते हैं
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भारतेंदु हरीश्चन्द्र की रूबाई (Bhartendu Hareeshchandra Ki Rubai)

रहमत का तेरे उम्मीद-वार आया हूँ
मुँह ढाँपे कफ़न में शर्मसार आया हूँ
आने न दिया बार-ए-गुनह ने पैदल
ताबूत में काँधों पे सवार आया हूँ

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