Tehzeeb Hafi Shayari Hindi ग़ज़ल 1:
इस एक डर से ख़्वाब देखता नहीं
मैं जो भी देखता हूँ भूलता नहीं
माँ पर बेहतरीन शेर..
किसी मुंडेर पर कोई दिया जला
फिर इस के बाद क्या हुआ पता नहीं
अभी से हाथ काँपने लगे मिरे
अभी तो मैं ने वो बदन छुआ नहीं
मैं आ रहा था रास्ते में फूल थे
मैं जा रहा हूँ कोई रोकता नहीं
तिरी तरफ़ चले तो उम्र कट गई
ये और बात रास्ता कटा नहीं
मैं राह से भटक गया तो क्या हुआ
चराग़ मेरे हाथ में तो था नहीं
मैं इन दिनों हूँ ख़ुद से इतना बे-ख़बर
मैं मर चुका हूँ और मुझे पता नहीं
राहत इन्दौरी के बेहतरीन शेर
उस अज़दहे की आँख पूछती रही
किसी को ख़ौफ़ आ रहा है या नहीं
ये इश्क़ भी अजब कि एक शख़्स से
मुझे लगा कि हो गया हुआ नहीं
ख़ुदा करे वो पेड़ ख़ैरियत से हो
कई दिनों से उसका राब्ता नहीं
रदीफ़: नहीं
क़ाफ़िए: देखता, भूलता, पता, छुआ, रोकता, कटा, पता, या, हुआ, राबता
शाम पर शेर
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ग़ज़ल 2:
वैसे मैंने दुनिया में क्या देखा है
तुम कहते हो तो फिर अच्छा देखा है
मैं उसको अपनी वहशत तोहफ़े में दूँ
हाथ उठाए जिस ने सहरा देखा है
बिन देखे उसकी तस्वीर बना लूँगा
आज तो मैं ने उसको इतना देखा है
एक नज़र में मंज़र कब खुलते हैं दोस्त
तू ने देखा भी है तो क्या देखा है
इश्क़ में बंदा मर भी सकता है मैं ने
दिल की दस्तावेज़ में लिखा देखा है
मैं तो आँखें देख के ही बतला दूँगा
तुम में से किस किसने दरिया देखा है
आगे सीधे हाथ पे एक तराई है
मैं ने पहले भी ये रस्ता देखा है
तुमको तो इस बाग़ का नाम पता होगा
तुमने तो इस शहर का नक़्शा देखा है
रदीफ़: देखा है
क़ाफ़िए: क्या, अच्छा, सहरा, इतना, क्या, लिखा, दरिया, रस्ता, नक़्शा
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बरसात पर ख़ूबसूरत शेर
तहज़ीब हाफ़ी के बेहतरीन शेर
ग़ज़ल 3:
पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
मैं भीग जाऊँगा छतरी नहीं बनाऊँगा
अगर ख़ुदा ने बनाने का इख़्तियार दिया
अलम बनाऊँगा बर्छी नहीं बनाऊँगा
फ़रेब दे के तिरा जिस्म जीत लूँ लेकिन
मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊँगा
गली से कोई भी गुज़रे तो चौंक उठता हूँ
नए मकान में खिड़की नहीं बनाऊँगा
मैं दुश्मनों से अगर जंग जीत भी जाऊँ
तो उन की औरतें क़ैदी नहीं बनाऊँगा
तुम्हें पता तो चले बे-ज़बान चीज़ का दुख
मैं अब चराग़ की लौ ही नहीं बनाऊँगा
मैं एक फ़िल्म बनाऊँगा अपने ‘सरवत’ पर
और इस में रेल की पटरी नहीं बनाऊँगा
रदीफ़: नहीं बनाऊँगा
क़ाफ़िए: रोटी, छतरी, बर्छी, कश्ती, खिड़की, क़ैदी, ही, पटरी
________________ (Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)
साहिर लुधियानवी के बेहतरीन शेर
ग़ज़ल 4:
तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया
यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया
इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ
उसने जिस जिस को भी जाने का कहा बैठ गया
अपना लड़ना भी मुहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं
चीख़ती तुम रही और मेरा गला बैठ गया
उसकी मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने
इस पे क्या लड़ना फुलाँ मेरी जगह बैठ गया
बात दरियाओं की सूरज की न तेरी है यहाँ
दो क़दम जो भी मिरे साथ चला बैठ गया
बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस
जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया
रदीफ़: बैठ गया,
क़ाफ़िए: क्या, गला, गया, कहा, गला, जगह (जगा की तरह से इस्तेमाल), चला, गया
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उर्दू के 100 फ़ेमस शेर
ग़ज़ल 5 :
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है
अजीब दुख है हम उसके हो कर भी उसको छूने से डर रहे हैं
अजीब दुख है हमारे हिस्से की आग औरों में बंट रही है
मैं उसको हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है
मुझ ऐसे पेड़ों के सूखने और सब्ज़ होने से क्या किसी को
ये बेल शायद किसी मुसीबत में है जो मुझसे लिपट रही है
ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है
सो इस तअ’ल्लुक़ में जो ग़लत-फ़हमियाँ थीं अब दूर हो रही हैं
रुकी हुई गाड़ियों के चलने का वक़्त है धुंद छंट रही है
रदीफ़: रही है
क़ाफ़िए: कट, लिपट, बंट , कट, लिपट, पलट, छंट
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ग़ज़ल 6:
ये एक बात समझने में रात हो गई है
मैं उससे जीत गया हूँ कि मात हो गई है
मैं अब के साल परिंदों का दिन मनाऊँगा
मिरी क़रीब के जंगल से बात हो गई है
बिछड़ के तुझसे न ख़ुश रह सकूँगा सोचा था
तिरी जुदाई ही वज्ह-ए-नशात हो गई है
बदन में एक तरफ़ दिन तुलूअ’ मैं ने किया
बदन के दूसरे हिस्से में रात हो गई है
मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है
रहेगा याद मदीने से वापसी का सफ़र
मैं नज़्म लिखने लगा था कि ना’त हो गई है
रदीफ़: हो गई है
क़ाफ़िए: रात, मात, बात, वज्ह-ए-नशात, रात, साथ (सात की तरह से इस्तेमाल किया गया है), ना’त
हिन्दी व्याकरण: बिंदु और चंद्रबिंदु का प्रयोग..
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ग़ज़ल 7:
जब उसकी तस्वीर बनाया करता था
कमरा रंगों से भर जाया करता था
पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था
थक जाता था बादल साया करते करते
और फिर मैं बादल पे साया करता था
बैठा रहता था साहिल पे सारा दिन
दरिया मुझसे जान छुड़ाया करता था
बिंत-ए-सहरा रूठा करती थी मुझसे
मैं सहरा से रेत चुराया करता था
रदीफ़: करता था,
क़ाफ़िए: बनाया, जाया, लाया, साया, छुड़ाया, चुराया
______ (Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)
ग़ज़ल 8:
शोर करूँगा और न कुछ भी बोलूँगा
ख़ामोशी से अपना रोना रो लूँगा
सारी उम्र इसी ख़्वाहिश में गुज़री है
दस्तक होगी और दरवाज़ा खोलूँगा
तन्हाई में ख़ुद से बातें करनी हैं
मेरे मुँह में जो आएगा बोलूँगा
रात बहुत है तुम चाहो तो सो जाओ
मेरा क्या है मैं दिन में भी सो लूँगा
तुमको दिल की बात बतानी है लेकिन
आँखें बंद करो तो मुट्ठी खोलूँगा
नोट: ये एक ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल है. ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़लें वो होती हैं जिनमें रदीफ़ नहीं होती.
क़ाफ़िए: बोलूँगा, लूँगा, खोलूँगा, बोलूँगा, लूँगा, खोलूँगा
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ग़ज़ल 9:
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरज़ी है मुझे
एक साया मिरे तआक़ुब में
एक आवाज़ ढूँढती है मुझे
मेरी आँखों पे दो मुक़द्दस हाथ
ये अंधेरा भी रौशनी है मुझे
मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शाइरी है मुझे
इन परिंदों से बोलना सीखा
पेड़ से ख़ामुशी मिली है मुझे
मैं उसे कब का भूल-भाल चुका
ज़िंदगी है कि रो रही है मुझे
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे
रदीफ़: है मुझे
क़ाफ़िए: दाइमी, आरज़ी, ढूँढती, रौशनी, शाइरी, मिली, रही, आख़िरी
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शायरी सीखें: क्या होती है ज़मीन, रदीफ़, क़ाफ़िया….
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ग़ज़ल 10:
इस एक डर से ख़्वाब देखता नहीं
जो देखता हूँ मैं वो भूलता नहीं
किसी मुंडेर पर कोई दिया जिला
फिर इस के बाद क्या हुआ पता नहीं
मैं आ रहा था रास्ते मैं फूल थे
मैं जा रहा हूँ कोई रोकता नहीं
तिरी तरफ़ चले तो उम्र कट गई
ये और बात रास्ता कटा नहीं
इस अज़दहे की आँख पूछती रही
किसी को ख़ौफ़ आ रहा है या नहीं
मैं इन दिनों हूँ ख़ुद से इतना बे-ख़बर
मैं बुझ चुका हूँ और मुझे पता नहीं
ये इश्क़ भी अजब कि एक शख़्स से
मुझे लगा कि हो गया हुआ नहीं
रदीफ़: नहीं
क़ाफ़िए: देखता, भूलता, पता, रोकता, कटा, या, पता, हुआ
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ग़ज़ल 11:
बिछड़ कर उसका दिल लग भी गया तो क्या लगेगा
वो थक जाएगा और मेरे गले से आ लगेगा
मैं मुश्किल में तुम्हारे काम आऊँ या न आऊँ
मुझे आवाज़ दे लेना तुम्हें अच्छा लगेगा
मैं जिस कोशिश से उसको भूल जाने में लगा हूँ
ज़ियादा भी अगर लग जाए तो हफ़्ता लगेगा
मिरे हाथों से लग कर फूल मिट्टी हो रहे हैं
मिरी आँखों से दरिया देखना सहरा लगेगा
मिरा दुश्मन सुना है कल से भूका लड़ रहा है
ये पहला तीर उसको नाश्ते में जा लगेगा
कई दिन उसके भी सहराओं में गुज़रे हैं ‘हाफ़ी’
सो इस निस्बत से आईना हमारा क्या लगेगा
रदीफ़: लगेगा
क़ाफ़िए: क्या, आ, अच्छा हफ़्ता, सहरा, जा, क्या
_______ (Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)
ग़ज़ल 12:
इक हवेली हूँ उसका दर भी हूँ
ख़ुद ही आँगन ख़ुद ही शजर भी हूँ
अपनी मस्ती में बहता दरिया हूँ
मैं किनारा भी हूँ भँवर भी हूँ
आसमाँ और ज़मीं की वुसअत देख
मैं इधर भी हूँ और उधर भी हूँ
ख़ुद ही मैं ख़ुद को लिख रहा हूँ ख़त
और मैं अपना नामा-बर भी हूँ
दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
तू जो सुन ले तो मुख़्तसर भी हूँ
एक फलदार पेड़ हूँ लेकिन
वक़्त आने पे बे-समर भी हूँ
रदीफ़: भी हूँ
क़ाफ़िए: दर, शजर, भँवर, उधर, नामा-बर, मुख़्तसर, बे-समर
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ग़ज़ल 13:
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
तेरे जाने का ग़म किया गया है
ता-क़यामत हरे भरे रहेंगे
इन दरख़्तों पे दम किया गया है
इस लिए रौशनी में ठंडक है
कुछ चराग़ों को नम किया गया है
क्या ये कम है कि आख़िरी बोसा
उस जबीं पर रक़म किया गया है
पानियों को भी ख़्वाब आने लगे
अश्क दरिया में ज़म किया गया है
उनकी आँखों का तज़्किरा कर के
मेरी आँखों को नम किया गया है
धूल में अट गए हैं सारे ग़ज़ाल
इतनी शिद्दत से रम किया गया है
रदीफ़: किया गया है
क़ाफ़िए: कम, घम, दम, नम, रक़म, ज़म, नम, रम
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ग़ज़ल 14:
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
कि उससे हम ने तुझे देखने की करनी है
किसी दरख़्त की हिद्दत में दिन गुज़ारना है
किसी चराग़ की छाँव में रात करनी है
वो फूल और किसी शाख़ पर नहीं खुलना
वो ज़ुल्फ़ सिर्फ़ मिरे हाथ से सँवरनी है
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
समुंदरों से अकेले में बात करनी है
हमारे गाँव का हर फूल मरने वाला है
अब उस गली से वो ख़ुश्बू नहीं गुज़रनी है
तिरे ज़ियाँ पे मैं अपना ज़ियाँ न कर बैठूँ
कि मुझ मुरीद का मुर्शिद ‘उवैस-क़रनी’ है
रदीफ़: है
क़ाफ़िए: भरनी, करनी, करनी, संवरनी, करनी, गुज़रनी, उवैस-क़रनी
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ग़ज़ल 15:
चेहरा देखें तेरे होंट और पलकें देखें
दिल पे आँखें रक्खें तेरी साँसें देखें
सुर्ख़ लबों से सब्ज़ दुआएँ फूटी हैं
पीले फूलों तुम को नीली आँखें देखें
साल होने को आया है वो कब लौटेगा
आओ खेत की सैर को निकलें कूजें देखें
थोड़ी देर में जंगल हमको आक़ करेगा
बरगद देखें या बरगद की शाख़ें देखें
मेरे मालिक आप तो सब कुछ कर सकते हैं
साथ चलें हम और दुनिया की आँखें देखें
हम तेरे होंटों की लर्ज़िश कब भूले हैं
पानी में पत्थर फेंकें और लहरें देखें
रदीफ़: देखें
क़ाफ़िए: पलकें, साँसें, आँखें, कूजें, शाख़ें, आँखें, लहरें
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ग़ज़ल 16:
तू ने क्या क़िंदील जला दी शहज़ादी
सुर्ख़ हुई जाती है वादी शहज़ादी
शीश-महल को साफ़ किया तिरे कहने पर
आइनों से गर्द हटा दी शहज़ादी
अब तो ख़्वाब-कदे से बाहर पाँव रख
लौट गए हैं सब फ़रियादी शहज़ादी
तेरे ही कहने पर एक सिपाही ने
अपने घर को आग लगा दी शहज़ादी
मैं तेरे दुश्मन लश्कर का शहज़ादा
कैसे मुमकिन है ये शादी शहज़ादी
रदीफ़: शहज़ादी
क़ाफ़िए: दी, वादी, दी, फ़रियादी, दी, शादी
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ग़ज़ल 17:
सो रहेंगे कि जागते रहेंगे
हम तिरे ख़्वाब देखते रहेंगे
तू कहीं और ढूँढता रहेगा
हम कहीं और ही खिले रहेंगे
राहगीरों ने रह बदलनी है
पेड़ अपनी जगह खड़े रहे हैं
बर्फ़ पिघलेगी और पहाड़ों में
सालहा-साल रास्ते रहेंगे
सभी मौसम हैं दस्तरस में तिरी
तूने चाहा तो हम हरे रहेंगे
लौटना कब है तूने पर तुझको
आदतन ही पुकारते रहेंगे
तुझको पाने में मसअला ये है
तुझको खोने के वसवसे रहेंगे
तू इधर देख मुझसे बातें कर
यार चश्मे तो फूटते रहेंगे
रदीफ़: रहेंगे
क़ाफ़िए: जागते, देखते, खिले, खड़े, रास्ते, हरे, पुकारते, वसवसे, फूटते
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ग़ज़ल 18:
दिल मुहब्बत में मुब्तला हो जाए
जो अभी तक न हो सका हो जाए
तुझ में ये ऐब है कि ख़ूबी है
जो तुझे देख ले तिरा हो जाए
ख़ुद को ऐसी जगह छुपाया है
कोई ढूँढे तो लापता हो जाए
मैं तुझे छोड़ कर चला जाऊँ
साया दीवार से जुदा हो जाए
बस वो इतना कहे मुझे तुमसे
और फिर कॉल मुंक़ता’ हो जाए
दिल भी कैसा दरख़्त है ‘हाफ़ी’
जो तिरी याद से हरा हो जाए
रदीफ़: हो जाए,
क़ाफ़िए: मुब्तला, सका, तिरा, लापता, जुदा, मुंक़ता, हरा
_____
ग़ज़ल 19:
अजीब ख़्वाब था उसके बदन में काई थी
वो इक परी जो मुझे सब्ज़ करने आई थी
वो इक चराग़-कदा जिस में कुछ नहीं था मिरा
जो जल रही थी वो क़िंदील भी पराई थी
न जाने कितने परिंदों ने इस में शिरकत की
कल एक पेड़ की तक़रीब-ए-रू-नुमाई थी
किसी सिपाह ने ख़ेमे लगा दिए हैं वहाँ
जहाँ पे मैं ने निशानी तिरी दबाई थी
गले मिला था कभी दुख भरे दिसम्बर से
मिरे वजूद के अंदर भी धुँद छाई थी
रदीफ़: थी
क़ाफ़िए: काई, आई, पराई, नुमाई, दबाई, छाई
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ग़ज़ल 20:
बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
हमारे गाँव में बरसात क्यूँ नहीं करता
महाज़-ए-इश्क़ से कब कौन बच के निकला है
तू बच गया है तो ख़ैरात क्यूँ नहीं करता
वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
वो पेड़ मुझसे कोई बात क्यूँ नहीं करता
मैं जिसके साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ
वो मेरे साथ बसर रात क्यूँ नहीं करता
मुझे तू जान से बढ़ कर अज़ीज़ हो गया है
तो मेरे साथ कोई हाथ क्यूँ नहीं करता
रदीफ़: क्यूँ नहीं करता
क़ाफ़िए: मुसावात, बरसात, ख़ैरात, बात, रात, हाथ (हात की तरह से इस्तेमाल)
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ग़ज़ल 21:
सहरा से आने वाली हवाओं में रेत है
हिजरत करूँगा गाँव से गाँव में रेत है
ऐ क़ैस तेरे दश्त को इतनी दुआएँ दीं
कुछ भी नहीं है मेरी दुआओं में रेत है
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
हाथों में फूल हैं मिरे पाँव में रेत है
मुद्दत से मेरी आँख में इक ख़्वाब है मुक़ीम
पानी में पेड़ पेड़ की छाँव में रेत है
मुझ सा कोई फ़क़ीर नहीं है कि जिस के पास
कश्कोल रेत का है सदाओं में रेत है
रदीफ़: में रेत है
क़ाफ़िए: हवाओं, गाँव, दुआओं, पाँव, छाँव, सदाओं
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ग़ज़ल 22:
ज़ख़्मों ने मुझ में दरवाज़े खोले हैं
मैंने वक़्त से पहले टाँके खोले हैं
बाहर आने की भी सकत नहीं हम में
तूने किस मौसम में पिंजरे खोले हैं
बरसों से आवाज़ें जमती जाती थीं
ख़ामोशी ने कान के पर्दे खोले हैं
कौन हमारी प्यास पे डाका डाल गया
किस ने मश्कीज़ों के तस्मे खोले हैं
वर्ना धूप का पर्बत किस से कटता था
उसने छतरी खोल के रस्ते खोले हैं
ये मेरा पहला रमज़ान था उसके बग़ैर
मत पूछो किस मुँह से रोज़े खोले हैं
यूँ तो मुझको कितने ख़त मौसूल हुए
इक दो ऐसे थे जो दिल से खोले हैं
मन्नत मानने वालों को मालूम नहीं
किस ने आ कर पेड़ से धागे खोले हैं
दरिया बंद किया है कूज़े में ‘तहज़ीब’
इक चाबी से सारे ताले खोले हैं
रदीफ़: खोले हैं
क़ाफ़िए: दरवाज़े, टाँके, पिंजरे, पर्दे, तस्मे, रस्ते, रोज़े, से, धागे, ताले
______ (Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)
ग़ज़ल 23:
तारीकियों को आग लगे और दिया जले
ये रात बैन करती रहे और दिया जले
उसकी ज़बाँ में इतना असर है कि निस्फ़ शब
वो रौशनी की बात करे और दिया जले
तुम चाहते हो तुमसे बिछड़ के भी ख़ुश रहूँ
या’नी हवा भी चलती रहे और दिया जले
क्या मुझसे भी अज़ीज़ है तुमको दिए की लौ
फिर तो मेरा मज़ार बने और दिया जले
सूरज तो मेरी आँख से आगे की चीज़ है
मैं चाहता हूँ शाम ढले और दिया जले
तुम लौटने में देर न करना कि ये न हो
दिल तीरगी में घेर चुके और दिया जले
रदीफ़: और दिया जले
क़ाफ़िए: लगे, रहे, करे, रहे, बने, ढले, चुके
_______
ग़ज़ल 24:
अश्क ज़ाएअ’ हो रहे थे देख कर रोता न था
जिस जगह बनता था रोना मैं उधर रोता न था
सिर्फ़ तेरी चुप ने मेरे गाल गीले कर दिए
मैं तो वो हूँ जो किसी की मौत पर रोता न था
मुझ पे कितने सानहे गुज़रे पर इन आँखों को क्या
मेरा दुख ये है कि मेरा हम-सफ़र रोता न था
मैंने उसके वस्ल में भी हिज्र काटा है कहीं
वो मिरे काँधे पे रख लेता था सर रोता न था
प्यार तो पहले भी उससे था मगर इतना नहीं
तब मैं उसको छू तो लेता था मगर रोता न था
गिर्या-ओ-ज़ारी को भी इक ख़ास मौसम चाहिए
मेरी आँखें देख लो मैं वक़्त पर रोता न था
रदीफ़: रोता न था
क़ाफ़िए: कर, उधर, पर, सफ़र, सर, मगर, पर
_______________
ग़ज़ल 25:
जाने वाले से राब्ता रह जाए
घर की दीवार पर दिया रह जाए
इक नज़र जो भी देख ले तुझको
वो तिरे ख़्वाब देखता रह जाए
इतनी गिर्हें लगी हैं इस दिल पर
कोई खोले तो खोलता रह जाए
कोई कमरे में आग तापता हो
कोई बारिश में भीगता रह जाए
नींद ऐसी कि रात कम पड़ जाए
ख़्वाब ऐसा कि मुँह खुला रह जाए
झील सैफ़-उल-मुलूक पर जाऊँ
और कमरे में कैमरा रह जाए
रदीफ़: रह जाए
क़ाफ़िए: राब्ता, दिया, देखता, खोलता, भीगता, खुला, कैमरा
__________ (Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)
ग़ज़ल 26:
क़दम रखता है जब रस्तों पे यार आहिस्ता आहिस्ता
तो छट जाता है सब गर्द-ओ-ग़ुबार आहिस्ता आहिस्ता
भरी आँखों से हो के दिल में जाना सहल थोड़ी है
चढ़े दरियाओं को करते हैं पार आहिस्ता आहिस्ता
नज़र आता है तो यूँ देखता जाता हूँ मैं उसको
कि चल पड़ता है जैसे कारोबार आहिस्ता आहिस्ता
उधर कुछ औरतें दरवाज़ों पर दौड़ी हुई आईं
इधर घोड़ों से उतरे शहसवार आहिस्ता आहिस्ता
किसी दिन कारख़ाना-ए-ग़ज़ल में काम निकलेगा
पलट आएँगे सब बे-रोज़गार आहिस्ता आहिस्ता
तिरा पैकर ख़ुदा ने भी तो फ़ुर्सत में बनाया था
बनाएगा तिरे ज़ेवर सुनार आहिस्ता आहिस्ता
मिरी गोशा-नशीनी एक दिन बाज़ार देखेगी
ज़रूरत कर रही है बे-क़रार आहिस्ता आहिस्ता
रदीफ़: आहिस्ता आहिस्ता
क़ाफ़िए: यार, ग़ुबार, पार, कारोबार, शहसवार, रोज़गार, सुनार, क़रार
_______
ग़ज़ल 27:
चीख़ते हैं दर-ओ-दीवार नहीं होता मैं
आँख खुलने पे भी बेदार नहीं होता मैं
ख़्वाब करना हो सफ़र करना हो या रोना हो
मुझमें ख़ूबी है बेज़ार नहीं होता में
अब भला अपने लिए बनना सँवरना कैसा
ख़ुद से मिलना हो तो तैयार नहीं होता मैं
कौन आएगा भला मेरी अयादत के लिए
बस इसी ख़ौफ़ से बीमार नहीं होता मैं
मंज़िल-ए-इश्क़ पे निकला तो कहा रस्ते ने
हर किसी के लिए हमवार नहीं होता मैं
तेरी तस्वीर से तस्कीन नहीं होती मुझे
तेरी आवाज़ से सरशार नहीं होता मैं
लोग कहते हैं मैं बारिश की तरह हूँ ‘हाफ़ी’
अक्सर औक़ात लगातार नहीं होता मैं
रदीफ़: नहीं होता मैं
क़ाफ़िए: दीवार, बेदार, बेज़ार, तैयार, बीमार, हमवार, सरशार, लगातार
_______
ग़ज़ल 28:
ख़ुद पे जब दश्त की वहशत को मुसल्लत करूँगा
इस क़दर ख़ाक उड़ाऊँगा क़यामत करूँगा
हिज्र की रात मिरी जान को आई हुई है
बच गया तो मैं मुहब्बत की मज़म्मत करूँगा
जिसके साए में तुझे पहले पहल देखा था
मैं इसी पेड़ के नीचे तिरी बै’अत करूँगा
अब तिरे राज़ सँभाले नहीं जाते मुझसे
मैं किसी रोज़ अमानत में ख़यानत करूँगा
तेरी यादों ने अगर हाथ बटाया मेरा
अपने टूटे हुए ख़्वाबों की मरम्मत करूँगा
लैलतुल-क़द्र गुज़ारूँगा किसी जंगल में
नूर बरसेगा दरख़्तों की इमामत करूँगा
रदीफ़: करूँगा
क़ाफ़िए: मुसल्लत, क़यामत, मज़म्मत, बै’अत, ख़यानत, मरम्मत, इमामत
_________ (Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)
ग़ज़ल 29:
जब किसी एक को रिहा किया जाए
सब असीरों से मशवरा किया जाए
रह लिया जाए अपने होने पर
अपने मरने पे हौसला किया जाए
इश्क़ करने में क्या बुराई है
हाँ किया जाए बारहा किया जाए
मेरा इक यार सिंध के उस पार
ना-ख़ुदाओं से राब्ता किया जाए
मेरी नक़लें उतारने लगा है
आईने का बताओ क्या किया जाए
ख़ामुशी से लदा हुआ इक पेड़
इस से चल कर मुकालिमा किया जाए
रदीफ़: किया जाए
क़ाफ़िए: रिहा, मशवरा, हौसला, बारहा, राब्ता, क्या, मुकालिमा
__________
(Tehzeeb Hafi Shayari Hindi)