शाम पर शेर

Shaam Shayari

शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा

शहरयार (Shaharyar)
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उसकी आँखों में उतर जाने को जी चाहता है
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

कफ़ील आज़र अमरोहवी (Kafeel Aazar Amrohvi)
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घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़ (Iftikhar Arif)

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शाम को आओगे तुम अच्छा अभी होती है शाम
गेसुओं को खोल दो सूरज छुपाने के लिए

क़मर जलालवी (Qamar Jalalwi)

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तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे

क़ैसर-उल जाफ़री (Qaiser Ul Jafri)
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शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं

वसीम बरेलवी (Waseem Barelvi)
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शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं

फ़िराक़ गोरखपुरी (Firaq Gorakhpuri)
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वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उसका मगर कुछ सोच कर करते रहे

परवीन शाकिर (Parveen Shakir)
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यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

शकील बदायूनी (Shakeel Budayuni)

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अब उदास फिरते हो सर्दियों की शामों में
इस तरह तो होता है इस तरह के कामों में

शोएब बिन अज़ीज़ (Shoeb Bin Azeez)

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बस एक शाम का हर शाम इंतिज़ार रहा
मगर वो शाम किसी शाम भी नहीं आई

अजमल सिराज (Ajmal Siraj)
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तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद
शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो

इरफ़ान सिद्दीक़ी (Irfan Siddiqui)

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अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे

मोहम्मद अल्वी (Muhammad Alvi)

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कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए

बशीर बद्र (Bashir Badr)

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नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

शकील बदायूनी (Shakeel Budayuni)

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ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब’अद बहुत याद घर की आएगी

राजेन्द्र मनचंदा बानी (Rajendra Manchanda Bani)

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शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ज़िंदगी मैं तुझे नाकाम न होने दूँगा

साबिर ज़फ़र (Sabir Zafar)
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न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
कई साल ब’अद मिले हैं हम तेरे नाम आज की शाम है

बशीर बद्र (Bashir Badr)

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अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या

मुनीर नियाज़ी (Munir Niazi)

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कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते

बशीर बद्र (Bashir Badr)

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मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ

बशीर बद्र (Bashir Badr)
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हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते

इक़बाल अज़ीम (Iqbal Azeem)
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गुज़र गई है मगर रोज़ याद आती है
वो एक शाम जिसे भूलने की हसरत है

ज़ीशान साहिल (Zeeshan Sahil)

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भीगी हुई इक शाम की दहलीज़ पे बैठे
हम दिल के सुलगने का सबब सोच रहे हैं

शकेब जलाली (Shakeb Jalali)

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