Mirza Rafi Sauda Shayari
रुबाइयाँ
Mirza Rafi Sauda Shayari
1.
गर यार के सामने मैं रोया तो क्या,
मिज़्गाँ में जो लख़्त-ए-दिल पिरोया तो क्या
ये दाना-ए-अश्क सब्ज़ होना मालूम
इस शूर ज़मीं में तुख़्म बोया तो क्या
2.
ऐ शैख़-ए-हरम तक तुझे आना जाना,
ये तौफ़ जुलाहे काहे ताना बाना
पहचानेगा वाँ क्या उसे हैराँ हूँ मैं
जिस को हरम-ए-दिल में न तीं पहचाना
3.
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे,
ज़ुल्फ़ों से तिरी दराज़-दस्ती कीजे,
साक़ी न हो जो शराब है आज वो अब्र
पानी पी पी के फ़ाक़ा-मस्ती कीजे
4.
‘सौदा’ शेर में है बड़ाई तुझको,
तशरीफ़-ए-सुख़न अर्श से आई तुझको
आलम तुझे इस फ़न में पयम्बर समझा
पूजा जुहला ने ब-ख़ुदाई तुझको
**रूबाई –रूबाई चार-चार मिसरों की ऐसी शा’इरी को कहते हैं जिनके पहले, दूसरे और चौथे मिसरों का एक ही रदीफ़, क़ाफ़िये में होना ज़रूरी है. इसमें एक बात समझनी ज़रूरी है कि ग़ज़ल के लिए प्रचलित 35-36 बह्र में से कोई भी रूबाई के लिए इस्तेमाल में नहीं लायी जाती है. रूबाइयों के लिए चौबीस छंद अलग से तय हैं, रूबाई इन चौबीस बह्रों में कही जाती है
Mirza Rafi Sauda Shayari
ग़ज़लें:
1.
आराम फिर कहाँ है जो हो दिल में जा-ए-हिर्स,
आसूदा ज़ेर-ए-ख़ाक नहीं आश्ना-ए-हिर्स
मुमकिन नहीं है ये कि भरे कासा-ए-तमअ,
दिन में करोड़ घर जो फिरा दे गद-ए-हिर्स
इंसाँ न हों ज़लील ज़माने के हाथ से,
ज़िल्लत किसी को कोई न देवे सिवा-ए-हिर्स
कर मुँह को टुक ब-सू-ए-क़नाअत ये हर्फ़ मान
रहती है लाख तरह की आफ़त क़िफ़ा-ए-हिर्स
नादाँ तलाश-ए-तुर्रा-ए-ज़र से तो बाज़ आ
जूँ शम्अ ये न हो कि तिरा सर कटाए हिर्स
अपने सिवा किसी को न पाया हरीफ़ हैफ़
की क़त्अ रोज़गार ने हम पर क़बा-ए-हिर्स
‘सौदा’ बसर हो ख़ूबी से औक़ात हर तरह
पर दरमियाँ न होवे ब-शर्त-ए-कि पा-ए-हिर्स
2.
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना,
कुछ आग बच रही थी सो आशिक़ का दिल बना
सरगर्म-ए-नाला इन दिनों मैं भी हूँ अंदलीब
मत आशियाँ चमन में मिरे मुत्तसिल बना
जब तेशा कोहकन ने लिया हाथ तब ये इश्क़
बोला कि अपनी छाती पे धरने को सिल बना
जिस तीरगी से रोज़ है उश्शाक़ का सियाह
शायद उसी से चेहरा-ए-ख़ूबाँ पे तिल बना
लब ज़िंदगी में कब मिले उस लब से ऐ कलाल
साग़र हमारी ख़ाक को मथ करके गिल बना
अपना हुनर दिखावेंगे हम तुझ को शीशागर
टूटा हुआ किसी का अगर हम से दिल बना
सुन सुन के अर्ज़ हाल मिरा यार ने कहा
‘सौदा’ न बातें बैठ के याँ मुत्तसिल बना
3.
आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें,
दो-चार घड़ी रोना दो-चार घड़ी बातें
क़ुर्बां हूँ मुझे जिस दम याद आती हैं वो बातें,
क्या दिन वो मुबारक थे क्या ख़ूब थीं वो रातें
औरों से छुटे दिलबर दिल-दार होवे मेरा,
बर-हक़ हैं अगर पैरव कुछ तुम में करामातें
कल लड़ गईं कूचे में आँखों से मिरी आँखियाँ
कुछ ज़ोर ही आपस में दो दो हुईं समघातें
कश्मीर सी जागह में ना-शुक्र न रह ज़ाहिद
जन्नत में तू ऐ गीदी मारे है ये क्यूँ लातें
इस इश्क़ के कूचे में ज़ाहिद तू सँभल चलना
कुछ पेश न जावेंगी याँ तेरी मुनाजातें
उस रोज़ मियाँ मिल कर नज़रों को चुराते थे
तुझ याद में ही साजन करते हैं मदारातें
‘सौदा’ को अगर पूछो अहवाल है ये उसका
दो-चार घड़ी रोना दो-चार घड़ी बातें (Mirza Rafi Sauda Shayari)
4.
ऐ आह तिरी क़द्र असर ने तो न जानी,
गो तुज को लक़ब हम ने दिया अर्श-मकानी
यक ख़ल्क़ की नज़रों में सुबुक हो गया लेकिन
करता हूँ मैं अब तक तिरी ख़ातिर पे गिरानी
टुक दीदा-ए-तहक़ीक़ से तू देख ज़ुलेख़ा
हर चाह में आता है नज़र यूसुफ़-ए-सानी
मामूर है जिस रोज़ से वीराना-ए-दुनिया
हर जिंस के इंसाँ की ये माटी गई छानी
इक वामिक़-ए-नौ का है समझ चाक गरेबाँ
करती है जो रख़्ना कोई दीवार पुरानी
बुलबुल ही सिसकती न थी कुछ बाग़ में तुझ बिन
शबनम गुलों के मुँह में चुवाती रही पानी
है गोश-ज़दा ख़ल्क़ मिरा क़िस्सा-ए-जाँ-काह
जब से कि न समझे था तू चिड़िया की कहानी
जूँ शम्अ मुझे शर्म है ज़ुन्नार की ऐ शैख़
माला न जपूँ रात को बे-अश्क-फ़िशानी
जिस सम्त नज़र मौज-ए-सराब आवे तो ये जान
होवेगी किसी ज़ुल्फ़-ए-चलीपा की निशानी
क्या क्या मिले लैला-मनशाँ ख़ाक में ‘सौदा’
गो अपने भी महबूब की देखी न जवानी
5.
ऐ दीदा ख़ानुमाँ तू हमारा डुबो सका
लेकिन ग़ुबार यार के दिल से न धो सका
तुझ हुस्न ने दिया न कभू मुफ़्सिदी को चैन
फ़ित्ना न तेरे दौर में फिर नींद सो सका
जो शम्अ-तन हुआ शब-ए-हिज्राँ में सर्फ़-ए-अश्क
पर जिस क़दर मैं चाहे था उतना न रो सका
किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़
ऐ रू-सियाह तुझ से तो ये भी न हो सका
‘सौदा’ क़िमार-ए-इश्क़ में शीरीं से कोहकन
बाज़ी अगरचे पा न सका सर तो खो सका (Mirza Rafi Sauda Shayari)
6.
अपने का है गुनाह बेगाने ने क्या किया,
इस दिल को क्या कहूँ कि दिवाने ने क्या किया
याँ तक सताना मुज को कि रो रो कहे तू हाए
यारो न तुम सुना कि फ़ुलाने ने क्या किया
पर्दा तो राज़-ए-इश्क़ से ऐ यार उठ चुका
बे-सूद हम से मुँह के छुपाने ने क्या किया
आँखों की रहबरी ने कहूँ क्या कि दिल के साथ
कूचे की उस के राह बताने ने क्या किया
काम आई कोहकन की मशक़्क़त न इश्क़ में
पत्थर से जू-ए-शीर के लाने ने क्या किया
टुक दर तक अपने आ मिरे नासेह का हाल देख
मैं तो दिवाना था पे सियाने ने क्या किया
चाहूँ मैं किस तरह ये ज़माने की दोस्ती
औरों से दोस्त हो के ज़माने ने क्या किया
कहता था मैं गले का तिरे हो पड़ूँगा हार
देखा न गुल को सर पे चढ़ाने ने क्या किया
‘सौदा’ है बे-तरह का नशा जाम-ए-इश्क़ में
देखा कि उस को मुँह के लगाने ने क्या किया
7.
बातिल है हम से दावा शाइर को हम-सरी का,
दीवान है हमारा कीसा जवाहरी का
चेहरा तिरा सा कब है सुल्तान-ए-ख़ावरी का,
चीरा हज़ार बाँधे सर पर जो वो ज़री का
मुँह पर ये गोश्वारा मोती का जल्वा-गर है,
जैसे क़िरान-ए-बाहम हो माह ओ मुश्तरी का
आईना-ख़ाने में वो जिस वक़्त आन बैठे
फिर जिस तरफ़ को देखो जल्वा है वाँ परी का
जुज़ शौक़-ए-दिल न पहुँचूँ हरगिज़ ब-कू-ए-जानाँ
ऐ ख़िज़्र कब हूँ तेरी मुहताज रहबरी का
जो देखता है तुझ को हँसता है क़हक़हे मार,
ऐ शैख़ तेरा चेहरा मब्दा है मस्ख़री का
तालिब हैं सीम-ओ-ज़र के ख़ूबान-ए-हिन्द ‘सौदा’
अहवाल कौन समझे आशिक़ की बे-ज़री का
8.
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो,
हवा हो अब्र हो साक़ी हो और दरिया हो
रवा है कह तू भला ऐ सिपहर-ए-ना-इंसाफ़
रिया-ए-ज़ोहद छुपे राज़-ए-इश्क़ रुस्वा हो
भरा है इस क़दर ऐ अब्र दिल हमारा भी
कि एक लहर में रू-ए-ज़मीन दरिया हो
जो मेहरबाँ हैं वो ‘सौदा’ को मुग़्तनिम जानें
सिपाही-ज़ादों से मिलता है देखिए क्या हो
9.
बार-हा दिल को मैं समझा के कहा क्या क्या कुछ,
न सुना और खोया मुझ से मिरा क्या क्या कुछ
इज़्ज़त-ओ-आबरू ओ हुरमत ओ दीन ओ ईमाँ,
रोऊँ किस किस को मैं यारो कि गया क्या क्या कुछ
सब्र ओ आराम कहूँ या कि मैं अब होश-ओ-हवास
हो गया उस की जुदाई में जुदा क्या क्या कुछ
इश्क़ किस ज़ात का अक़रब है कि लगते ही नीश
दिल के साथ आँखों से पानी हो बहा क्या क्या कुछ
सादा-रूई ने तो खोया दिल ओ दीं से देखें
ख़त के आने में है क़िस्मत का लिखा क्या क्या कुछ
दख़्ल क्या राह-ए-मोहब्बत में निको-नामी को
आया इस कूचे में जो उन ने सुना क्या क्या कुछ
वालिह-ओ-शेफ़्ता ओ ज़ार-ओ-हज़ीन ओ मजनूँ
अपने आशिक़ को कल उस ने न कहा क्या क्या कुछ
गिर्या-ए-शीशा कभी था तो कभी ख़ंदा-ए-जाम
साक़ी इस दौर में तेरे न हुआ क्या क्या कुछ
ग़र्रा मत हो जो ज़माने से तिरी बन आई
था वो क्या क्या कि न बिगड़ा न बना क्या क्या कुछ
शादी आने की न कर यार न जाने का ग़म
आया क्या क्या न कुछ इस जा न गया क्या क्या कुछ
सीना क़ानून ओ ग़िना नाला ओ दिल है मिज़राब
निकले है साज़-ए-मोहब्बत से सदा क्या क्या कुछ
दोस्तो हक़ में तरक़्क़ी ओ तनज़्ज़ुल अपने
क्या कहें हम को ज़माने से हुआ क्या क्या कुछ
ज़ोफ़ ओ ना-ताक़ती ओ सुस्ती ओ आज़ा-शिकनी
एक घंटे में जवानी के बढ़ा क्या क्या कुछ
सैर की क़ुदरत-ए-ख़ालिक़ की बुताँ में ‘सौदा’
मुश्त भर ख़ाक में जल्वा है भला क्या क्या कुछ (Mirza Rafi Sauda Shayari)
10.
बरहमन बुत-कदे के शैख़ बैतुल्लाह के सदक़े,
कहें हैं जिस को ‘सौदा’ वो दिल-ए-आगाह के सदक़े
जता दें जिस जगह हम क़द्र अपनी ना-तवानी की,
अगर कोहसार वाँ होवे तो जावे काह के सदक़े
न दे तकलीफ़ जलने की किसू के दिल को मेरे पर
असर से दूर रहती हैं मैं अपनी आह के सदक़े
अजाइब शग़्ल में थे रात तुम ऐ शैख़ रहमत है,
मैं उस रीश-ए-बुलंद और दामन-ए-कोताह के सदक़े
नहीं बे-वजह कूचे से तिरे उठना बगूले का,
हमारी ख़ाक भी जाती है तेरी राह के सदक़े
कभू वो शब भी ऐ परवाना हक़ बाहम दिखावेगा,
तू बल बल शम्अ पर जावे मैं हूँ उस माह के सदक़े
दिखाती है तुझे किस किस तरह ‘सौदा’ की नज़रों में
जो हो इंसाफ़ तो जावे तू उस की चाह के सदक़े
11.
बेचैन जो रखती है तुम्हें चाह किसू की,
शायद कि हुई कारगर अब आह किसू की
उस चश्म का ग़म्ज़ा जो करे क़त्ल-ए-दो-आलम
गोशे को निगह के नहीं परवाह किसू की
ज़ुल्फ़ों की सियाही में कुछ इक दाम थे अपने
क़िस्मत कि हुई रात वो तनख़्वाह किसू की
क्या मसरफ़-ए-बेजा से फ़लक को है सरोकार
वो शय किसू को दे जो हो दिल-ख़्वाह किसू की
दुनिया से गुज़रना ही अजब कुछ है कि जिस में
कोई न कभू रोक सके राह किसू की
छीने से ग़म-ए-इश्क़ शकेबाई ओ आराम
ऐ दिल ये पड़ी लुटती है बुंगाह किसू की
12.
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना,
कोई दम को फूलता है ये गुलज़ार देखना
नर्गिस की तरह ख़ाक मेरी उगें हैं चश्म,
टुक आन के ये हसरत-ए-दीदार देखना
खींचे तो तेग़ है हरम-ए-दिल के सैद पर
ऐ इश्क़ पर भला तू मुझे मार देखना
है नक़्स-ए-जान दीद तिरा पर यही है धुन
जी जाओ यार हो मुझे यक-बार देखना
ऐ तिफ़्ल-ए-अश्क है फ़लक-ए-हफ़्तमीं प अर्श
आगे क़दम न रखियो तू ज़िन्हार देखना
पूछे ख़ुदा सबब जो मिरे इश्तियाक़ का
मेरी ज़बाँ से हो यही इज़हार देखना
हर नक़्श-ए-पा पे तड़पे है यारो हर एक दिल
टुक वास्ते ख़ुदा के ये रफ़्तार देखना
करता तो है तू आन के ‘सौदा’ से इख़्तिलात
कोई लहर आ गई तो मिरे यार देखना
तुझ बिन अजब मआश है ‘सौदा’ का इन दिनों
तू भी टुक उस को जा के सितमगार देखना
ने हर्फ़ ओ ने हिकायत ओ ने शेर ओ ने सुख़न
ने सैर-ए-बाग़ ओ ने गुल-ओ-गुलज़ार देखना
ख़ामोश अपने कल्बा-ए-अहज़ाँ में रोज़ ओ शब
तन्हा पड़े हुए दर-ओ-दीवार देखना
या जा के उस गली में जहाँ था तिरा गुज़र
ले सुब्ह ता-ब-शाम कई बार देखना
तस्कीन-ए-दिल न इस में भी पाई तो बहर-ए-शग़्ल
ढ़ना ये शेर गर कभू अशआर देखना
कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
पर जो ख़ुदा दिखाए सो नाचार देखना
13.
बुलबुल ने जिसे जा के गुलिस्तान में देखा,
हम ने उसे हर ख़ार-ए-बयाबान में देखा
रौशन है वो हर एक सितारे में ज़ुलेख़ा,
जिस नूर को तू ने सर-ए-कनआन में देखा
बरहम करे जमइय्यत-ए-कौनैन जो पल में,
लटका वो तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशान में देखा
वाइज़ तू सुने बोले है जिस रोज़ की बातें
उस रोज़ को हम ने शब-ए-हिज्रान में देखा
ऐ ज़ख़्म-ए-जिगर सूदा-ए-अल्मास से ख़ू कर
कितना वो मज़ा था जो नमक-दान में देखा
‘सौदा’ जो तिरा हाल है इतना तो नहीं वो
क्या जानिए तू ने उसे किस आन में देखा
14.
चेहरे पे ना ये नक़ाब देखा,
पर्दे में था आफ़्ताब देखा
क्यूँ कर न बिकूँ मैं हाथ उस के
यूसुफ़ की तरह मैं ख़्वाब देखा
कुछ मैं ही नहीं हूँ, एक आलम,
उस के लिए याँ ख़राब देखा
दिल तू ने अबस लिखा था नामा
जो उन ने दिया जवाब देखा
बे-जुर्म ओ गुनाह क़त्ल-ए-आशिक़
मज़हब में तिरे सवाब देखा
कुछ होवे तो हो अदम में राहत
हस्ती में तो हम अज़ाब देखा
जिस चश्म ने मुझ तरफ़ नज़र की
उस चश्म को मैं पुर-आब देखा
हैरान वो तेरे इश्क़ में है
याँ हम ने जो शैख़ ओ शाब देखा
भूला है वो दिल से लुत्फ़ उस का
‘सौदा’ ने ये जब इताब देखा
15.
दामन सबा ना छू सके जिस शह-सवार का,
पहुँचे कब उस को हाथ हमारे ग़ुबार का
मौज-ए-नसीम आज है आलूदा गर्द से,
दिल ख़ाक हो गया है किसी बे-क़रार का
ख़ून-ए-जिगर शराब ओ तरश्शह है चश्म-ए-तर
साग़र मिरा गिरो नहीं अब्र-ए-बहार का
चश्म-ए-करम से आशिक़-ए-वहशी असीर हो
उल्फ़त है दाम-ए-आहू-ए-दिल के शिकार का
सौंपा था क्या जुनूँ ने गरेबान को मिरे
लेता है अब हिसाब जो ये तार तार का
‘सौदा’ शराब-ए-इश्क़ न कहते थे हम, न पी
पाया मज़ा ना तू ने अब उस के ख़ुमार का (Mirza Rafi Sauda Shayari)
16.
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़,
जूँ सैद वक़्त ज़बह के सय्याद की तरफ़
ने दाना हम क़यास किया ने लिहाज़ना-ए-दाम
धँस गए क़फ़स में देख के सय्याद की तरफ़
साबित न होवे ख़ून मिरा रोज़-ए-बाज़-पुर्स
बोलेंगे अहल-ए-हश्र सो जल्लाद की तरफ़
पत्थर की लेख था सुख़न उस का हज़ार हैफ़
ली ज़बान-ए-तेशा न फ़रहाद की तरफ़
तुर्रा के तेरे वास्ते सद-चोब-ए-शानादार
क़ुमरी गई है काटने शमशाद की तरफ़
‘सौदा’ तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
होना है तुझ को ‘मीर’ से उस्ताद की तरफ़
17.
धूम से सुनते हैं अब की साल आती है बहार,
देखिए क्या कुछ हमारे सर पे लाती है बहार
शायद अज़्म-ए-यार की गुलशन में पहुँची है ख़बर
गिल के पैराहन में फूली नईं समाती है बहार
देखने दे बाग़बाँ अब गुलसिताँ अपना मुझे
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में मेहमाँ बुलाती है बहार
शोर ये ग़ुंचों के वा-शुद का नहीं ऐ अंदलीब
अब चमन में तुमतराक़ अपना दिखाती है बहार
क्यूँ फँसा गुलशन में यूँ जा कर अबस सौदा तू अब
में न कहता था तुझे वो देख आती है बहार
18.
दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है,
हम भी ये समझते हैं कि जी है तो जहाँ है
हर एक के दुख-दर्द का अब ज़िक्र-ओ-बयाँ है
मुझ को भी हो रुख़्सत मिरे भी मुँह में ज़बाँ है
इस इश्क़ के है तू ही सज़ा-वार कि हर एक
दिल दे के तिरे नाम को जूया-ए-निशाँ है
जूइन्दा-ए-हर-चीज़ है याबिंदा जहाँ में
जुज़ उम्र-ए-गुज़िश्ता कि वो ढूँडो तो कहाँ है
पीरी जो तू जावे तो जवानी से ये कहना
ख़ुश रहियो मरी जान तू जीधर है जहाँ है
पहुँचा न कोई मुर्ग़ कभू अपने चमन तक
जुज़ ताइर-ए-हसरत कि वो याँ बाल-फ़िशाँ है
तुझ से तो किसू तरह मिरा कुछ नहीं चलता
जुज़ ख़ून कि आँखों से शब ओ रोज़ रवाँ है
साक़ी तू नज़र कीजियो टुक सुब्ह-ए-चमन को
इस पीर के जल्वे का भला कोई जवाँ है
‘सौदा’ का तिरे दश्त में तिफ़्लाँ से है ये हाल
जीधर वो खड़ा होवे तो जूँ संग-ए-निशाँ है
Mirza Rafi Sauda Shayari