Meer Taqi Meer
जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए
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दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
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इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़ Meer Taqi Meer
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कहते तो हो यूँ कहते यूँ कहते जो वो आता
ये कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता
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बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो Meer Taqi Meer
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शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए
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यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
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दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके
पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ कर
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पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
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उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
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सिरहाने ‘मीर’ के कोई न बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है
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राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
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नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
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हम हुए तुम हुए कि ‘मीर’ हुए
उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए Meer Taqi Meer
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कोई तुम सा भी काश तुमको मिले
मुद्दआ हमको इंतिक़ाम से है
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आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
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अब तो जाते हैं बुत-कदे से ‘मीर’
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
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वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा
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याद उस की इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’ बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा
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‘मीर’ के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
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‘मीर’ उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है
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ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत
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इश्क़ इक ‘मीर’ भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है Meer Taqi Meer
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क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
अब तो चुप भी रहा नहीं जाता
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‘मीर’ अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे
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फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे
पर हमें उनमें तुम्हीं भाए बहुत
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दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का
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‘मीर’ बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
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मिरे सलीक़े से मेरी निभी मुहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया Meer Taqi Meer
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दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया
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यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम
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गुल हो महताब हो आईना हो ख़ुर्शीद हो मीर
अपना महबूब वही है जो अदा रखता हो
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रोते फिरते हैं सारी सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना
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गर उस के ओर कोई गर्मी से देखता है
इक आग लग उठे है अपने तो तन बदन में
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अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे
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किया था रेख़्ता पर्दा-सुख़न का
सो ठहरा है यही अब फ़न हमारा
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फिरते हैं ‘मीर’ ख़्वार कोई पूछता नहीं
इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई
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बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हमको
देर से इंतिज़ार है अपना
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ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का
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दिल मुझे उस गली में ले जा कर
और भी ख़ाक में मिला लाया
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नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया
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क्या कहूँ तुमसे मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़
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हम जानते तो इश्क़ न करते किसू के साथ
ले जाते दिल को ख़ाक में इस आरज़ू के साथ
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हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया
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गुफ़्तुगू रेख़्ते में हम से न कर
ये हमारी ज़बान है प्यारे
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बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता
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इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ
उससे आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ
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शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का
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होगा किसी दीवार के साए में पड़ा ‘मीर’
क्या रब्त मुहब्बत से उस आराम-तलब को
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‘मीर’ साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ
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सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले ‘मीर’
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
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मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
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‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुमसे प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो
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‘मीर’-साहिब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार
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शहर-ए-दिल एक मुद्दत उजड़ा बसा ग़मों में
आख़िर उजाड़ देना उस का क़रार पाया
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शम्अ जो आगे शाम को आई रश्क से जल कर ख़ाक हुई
सुब्ह गुल-ए-तर सामने हो कर जोश-ए-शर्म से आब हुआ
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अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है
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देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है