Mohd Rafi Ghazals ~ इस पोस्ट में हमने उन ग़ज़लों को शामिल किया है जिन्हें महान गायक मुहम्मद रफ़ी ने गाया है। इनमें रफ़ी साहब द्वारा गायी नज़्मों को शामिल नहीं किया गया है। इस पोस्ट में हमने सिर्फ़ ग़ज़लों को ही शामिल किया है।
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कोई साग़र दिल को बहलाता नहीं
बे-ख़ुदी में भी क़रार आता नहीं
मैं कोई पत्थर नहीं इंसान हूँ
कैसे कह दूँ ग़म से घबराता नहीं
कल तो सब थे कारवाँ के साथ साथ
आज कोई राह दिखलाता नहीं
ज़िंदगी के आइने को तोड़ दो
इसमें अब कुछ भी नज़र आता नहीं
शकील बदायूँनी
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बरबाद-ए-मुहब्बत की दुआ साथ लिए जा
टूटा हुआ इक़रार-ए-वफ़ा साथ लिए जा
इक दिल था जो पहले ही तुझे सौंप दिया था
ये जान भी ऐ जान-ए-अदा साथ लिए जा
तपती हुई राहों से तुझे आँच न पहुँचे
दीवानों के अश्कों की घटा साथ लिए जा
शामिल है मिरा ख़ून-ए-जिगर तेरी हिना में
ये कम हो तो अब ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा
हम जुर्म-ए-मुहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
जो तुझसे हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा
साहिर लुधियानवी
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मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
जोश-ए-क़दह से बज़्म चराग़ाँ किए हुए
करता हूँ जम्अ’ फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त को
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़्गाँ किए हुए
फिर वज़’-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक गरेबाँ किए हुए
फिर गर्म-नाला-हा-ए-शरर-बार है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किए हुए
फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार नमक-दाँ किए हुए
फिर भर रहा हूँ ख़ामा-ए-मिज़्गाँ ब-ख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन तराज़ी-ए-दामाँ किए हुए
बाहम-दिगर हुए हैं दिल ओ दीदा फिर रक़ीब
नज़्ज़ारा ओ ख़याल का सामाँ किए हुए
दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाए है
पिंदार का सनम-कदा वीराँ किए हुए
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
अर्ज़-ए-मता-ए-अक़्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किए हुए
दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लाला पर ख़याल
सद-गुलसिताँ निगाह का सामाँ किए हुए
फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना
जाँ नज़्र-ए-दिल-फ़रेबी-ए-उनवाँ किए हुए
माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किए हुए
चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू
सुरमे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़्गाँ किए हुए
इक नौ-बहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए
फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
सर ज़ेर-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबाँ किए हुए
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए
‘ग़ालिब’ हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किए हुए
मिर्ज़ा ग़ालिब
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अमीर मीनाई के बेहतरीन शेर…
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
कसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
न दवा-ए-दर्द-ए-जिगर हूँ मैं न किसी की मीठी नज़र हूँ मैं
न इधर हूँ मैं न उधर हूँ मैं न शकेब हूँ न क़रार हूँ
मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग-रूप बिगड़ गया
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम्अ’ जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
न मैं लाग हूँ न लगाव हूँ न सुहाग हूँ न सुभाव हूँ
जो बिगड़ गया वो बनाव हूँ जो नहीं रहा वो सिंगार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ
न मैं ‘मुज़्तर’ उनका हबीब हूँ न मैं ‘मुज़्तर’ उनका रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
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बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
इक खेल है औरंग-ए-सुलैमाँ मिरे नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मिरे आगे
जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मिरे आगे
होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे
सच कहते हो ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा हूँ न क्यूँ हूँ
बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मिरे आगे
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे
नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा
क्यूँकर कहूँ लो नाम न उन का मिरे आगे
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मिरे आगे
है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश यही हो
आता है अभी देखिए क्या क्या मिरे आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
हम-पेशा ओ हम-मशरब ओ हमराज़ है मेरा
‘ग़ालिब’ को बुरा क्यूँ कहो अच्छा मिरे आगे
मिर्ज़ा ग़ालिब
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मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
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कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उनको
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
किस लिए जीते हैं हम किस के लिए जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया
कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
साहिर लुधियानवी
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बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की
दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना
वाए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना
जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना
इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना
ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात
तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना
इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना
लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना
की मिरे क़त्ल के बा’द उसने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशेमाँ का पशेमाँ होना
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’
जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना
मिर्ज़ा ग़ालिब
मीर के मशहूर शेर
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नुक्ता-चीं है! ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने
मैं बुलाता तो हूँ उसको मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने
खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाए न बने
मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने
बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
मिर्ज़ा ग़ालिब
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छलके तिरी आँखों से शराब और ज़ियादा
खिलते रहें होंठों के गुलाब और ज़ियादा
क्या बात है जाने तिरी महफ़िल में सितमगर
धड़के है दिल-ए-ख़ाना-ख़राब और ज़ियादा
इस दिल में अभी और भी ज़ख़्मों की जगह है
अबरू की कटारी को दो आब और ज़ियादा
तू इश्क़ के तूफ़ान को बाँहों में जकड़ ले
अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़ियादा
हसरत जयपुरी
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न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
तिरा वजूद है अब सिर्फ़ दास्ताँ के लिए
पलट के सू-ए-चमन देखने से क्या होगा
वो शाख़ ही न रही जो थी आशियाँ के लिए
ग़रज़-परस्त जहाँ में वफ़ा तलाश न कर
ये शय बनी थी किसी दूसरे जहाँ के लिए
साहिर लुधियानवी
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ग़ज़ब किया तिरे वा’दे पे ए’तिबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया
किसी तरह जो न उस बुत ने ए’तिबार किया
मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया
हँसा हँसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लियाँ मुझे दे दे के बे-क़रार किया
ये किस ने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा हाए बे-क़रार किया
सुना है तेग़ को क़ातिल ने आब-दार किया
अगर ये सच है तो बे-शुब्ह हम पे वार किया
न आए राह पे वो इज्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैंने तो इंतिज़ार किया
तुझे तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उमीद-वार किया
ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआल-अंदेश
उन्हों ने वा’दा किया इस ने ए’तिबार किया
कहाँ का सब्र कि दम पर है बन गई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आश्कार किया
तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादाँ कि ग़ैर कहते हैं
अख़ीर कुछ न बनी सब्र इख़्तियार किया
मिले जो यार की शोख़ी से उस की बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया
भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहाँ
छुपा छुपा के मोहब्बत को आश्कार किया
न उसके दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक परेशाँ मिरा ग़ुबार किया
हम ऐसे महव-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होश्यार किया
हमारे सीने में जो रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उसको न हम-कनार किया
रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुम ने ए’तिबार किया
ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया
तिरी निगह के तसव्वुर में हमने ऐ क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया
ग़ज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैंने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया
हुआ है कोई मगर उसका चाहने वाला
कि आसमाँ ने तिरा शेवा इख़्तियार किया
न पूछ दिल की हक़ीक़त मगर ये कहते हैं
वो बे-क़रार रहे जिस ने बे-क़रार किया
जब उनको तर्ज़-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होश्यार किया
फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उनको इक कहानी थी
कुछ ए’तिबार किया कुछ न ए’तिबार किया
असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया
कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मिरे कहने का ए’तिबार किया
किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बद-गुमानी थी
कि डरते डरते ख़ुदा पर भी आश्कार किया
फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
अख़ीर अब तुझे आशोब-ए-रोज़गार किया
वो बात कर जो कभी आसमाँ से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तू ने इफ़्तिख़ार किया
बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी एक ख़ाल-ए-सियाह
जो चेहरा ‘दाग़’-ए-सियह-रू ने आश्कार किया
दाग़ देहलवी
जिगर मुरादाबादी के 100 बेहतरीन शेर…
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दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ
याद रह जाएगी ये रात क़रीब आ जाओ
एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की
आज बस में नहीं जज़्बात क़रीब आ जाओ
सर्द झोंकों से भड़कते हैं बदन में शो’ले
जान ले लेगी ये बरसात क़रीब आ जाओ
इस क़दर हमसे झिझकने की ज़रूरत क्या है
ज़िंदगी भर का है अब साथ क़रीब आ जाओ
साहिर लुधियानवी
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मिले न फूल तो काँटों से दोस्ती कर ली
इसी तरह से बसर हमने ज़िंदगी कर ली
अब आगे जो भी हो अंजाम देखा जाएगा
ख़ुदा तलाश लिया और बंदगी कर ली
नज़र मिली भी न थी और उनको देख लय्या
ज़बाँ खुली भी न थी और बात भी कर ली
वो जिनको प्यार है चाँदी से इश्क़ सोने से
वही कहेंगे कभी हमने ख़ुद-कुशी कर ली
कैफ़ी आज़मी
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दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
हुआ रक़ीब तो हो नामा-बर है क्या कहिए
ये ज़िद कि आज न आवे और आए बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिए
रहे है यूँ गह-ओ-बे-गह कि कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिए कि दुश्मन का घर है क्या कहिए
ज़हे करिश्मा कि यूँ दे रक्खा है हम को फ़रेब
कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है क्या कहिए
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल
हमारे हाथ में कुछ है मगर है क्या कहिए
उन्हें सवाल पे ज़ोम-ए-जुनूँ है क्यूँ लड़िए
हमें जवाब से क़त-ए-नज़र है क्या कहिए
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे
सितम बहा-ए-मता-ए-हुनर है क्या कहिए
कहा है किस ने कि ‘ग़ालिब’ बुरा नहीं लेकिन
सिवाए इस के कि आशुफ़्ता-सर है क्या कहिए
मिर्ज़ा ग़ालिब
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Mohd Rafi Ghazals