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सोहाग का शव- मुंशी प्रेमचंद Premchand ki kahani Suhag Ka Shav
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की कहानी “सोहाग का शव” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की कहानी “सोहाग का शव” का दूसरा भाग
भाग-3

Suhag Ka Shav Premchand
(अब तक आपने पढ़ा..केशव और सुभद्रा की शादी को एक ही साल हुए हैं और इस एक साल में भी उनका मिलना सिर्फ़ केशव की छुट्टियों के दिनों तक ही सीमित है। नागपुर में अध्यापन का काम करने वाले केशव को इंग्लैंड से आगे की पढ़ाई के लिए वृत्ति मिलती है। केशव के विदेश जाने को लेकर परिवार में बहौट उत्साह नहीं है लेकिन सुभद्रा सभी को मानकर केशव को तीन वर्ष के लिए विदा करती है। रोज़ ख़त भेजने का वादा करके गए केशव की चिट्ठियाँ जब छः महीने में ही आनी बंद हो जाती है या सिर्फ़ खानापूर्ति जितनी ही रह जाती है तो विरह से व्याकुल सुभद्रा यूरोप यात्रा का विचार बनाती है। परिवार वालों के लाख समझाने पर भी न मानकर सुभद्रा आख़िर केशव के निकट वाले होटल में ही अपना ठिकाना बनाती है। यात्रा के दौरान रास्ते में मिली भारतीय महिलाओं से हुयी मित्रता और मेहनत से सुभद्रा को कमाने-खाने की कोई कमी नहीं होती। वो वहाँ दो महिलाओं को भारतीय भाषा और संगीत सिखाने का काम करती है। बचे हुए समय में वो भारतीय महिलाओं के लिए वस्त्र सिलने का काम भी करती है। यहाँ रहते हुए सुभद्रा को एक माह हो चुका है और उसने केशव को देखा भी लेकिन ख़ुद को उससे मिलने से किसी तरह रोक लिया क्योंकि वो किसी भी तरह अपनी उपस्थिति से केशव की पढ़ाई में बाधा नहीं बनना चाहती। अब आगे..)

संध्या हो गयी थी। धुऍं में बिजली की लालटनें रोती ऑंखें की भाँति ज्योतिहीन-सी हो रही थीं। गली में स्त्री-पुरुष सैर करने जा रहे थे।
सुभद्रा सोचने लगी— इन लोगों को आमोद से कितना प्रेम है, मानो किसी को चिन्ता ही नहीं, मानो सभी सम्पन्न है, जब ही ये लोग इतने एकाग्र होकर सब काम कर सकते है। जिस समय जो काम करने है जी-जान से करते हैं। खेलने की उमंग है, तो काम करने की भी उमंग है और एक हम हैं कि न हँसते है, न रोते हैं, मौन बने बैठे रहते हैं। स्फूर्ति का कहीं नाम नहीं, काम तो सारे दिन करते हैं, भोजन करने की फ़ुर्सत भी नहीं मिलती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम में नही लगते। केवल काम करने का बहाना करते हैं। मालूम होता है, मानव जाति प्राण-शून्य हो गयी हैं।
सहसा उसने केशव को जाते देखा। हाँ, केशव ही था। कुर्सी से उठकर बरामदे में चली आयी। प्रबल इच्छा हुई कि जाकर उनके गले से लिपट जाय। उसने अगर अपराध किया है, तो उन्हीं के कारण तो। यदि वह बराबर पत्र लिखते जाते, तो वह क्यों आती? Premchand ki kahani Suhag Ka Shav

लेकिन केशव के साथ यह युवती कौन है? अरे ! केशव उसका हाथ पकड़े हुए है। दोनों मुस्करा-मुस्करा कर बातें करते चले जाते हैं। यह युवती कौन है?
सुभद्रा ने ध्यान से देखा। युवती का रंग साँवला था। वह भारतीय बालिका थी। उसका पहनावा भारतीय था। इससे ज्यादा सुभद्रा को और कुछ न दिखायी दिया। उसने तुरंत जूते पहने, द्वार बन्द किया और एक क्षण में गली में आ पहुँची। केशव अब दिखायी न देता था, पर वह जिधर गया था, उधर ही वह बड़ी तेज़ी से लपकी चली जाती थी। यह युवती कौन है? वह उन दोनों की बातें सुनना चाहती थी, उस युवती को देखना चाहती थी उसके पाँव इतनी तेज़ी से उठ रहे थे मानो दौड़ रही हो। पर इतनी जल्दी दोनो कहाँ अदृश्य हो गये? अब तक उसे उन लोगों के समीप पहुँच जाना चाहिए था। शायद दोनों किसी ‘बस’ पर जा बैठे।

अब वह गली समाप्त करके एक चौड़ी सड़क पर आ पहुँची थी। दोनों तरफ बड़ी-बड़ी जगमगाती हुई दुकानें थी, जिनमें संसार की विभूतियॉं गर्व से फूली बैठी थी। क़दम-क़दम पर होटल और रेस्तराँ थे। सुभद्रा दोनों और नेत्रों से ताकती, पगपग पर भ्रांति के कारण मचलती कितनी दूर निकल गयी, कुछ खबर नहीं।
फिर उसने सोचा— यों कहाँ तक चली जाऊँगी? कौन जाने किधर गये। चलकर फिर अपने बरामदे से देखूँ। आख़िर इधर से गये हैं, तो इधर से लौटेंगे भी। यह ख़याल आते ही वह घूम पड़ी ओर उसी तरह दौड़ती हुई अपने स्थान की ओर चली। जब वहाँ पहुँची, तो बारह बज गये थे। और इतनी देर उसे चलते ही गुज़रा ! एक क्षण भी उसने कहीं विश्राम नहीं किया।

वह ऊपर पहुँची, तो गृह-स्वामिनी ने कहा— “तुम्हारे लिए बड़ी देर से भोजन रखा हुआ है”
सुभद्रा ने भोजन अपने कमरे में मँगा लिया पर खाने की सुध किसे थी ! वह उसी बरामदे मे उसी तरफ टकटकी लगाये खड़ी थी, जिधर से केशव गया।

एक बज गया, दो बजा, फिर भी केशव नहीं लौटा। उसने मन में कहा— “वह किसी दूसरे मार्ग से चले गये। मेरा यहाँ खड़े रहना व्यर्थ है। चलूँ, सो रहूँ। लेकिन फिर ख़याल आ गया, कहीं आ न रहे हों।
मालूम नहीं, उसे कब नींद आ गयी। Premchand ki kahani Suhag Ka Shav

दूसरे दिन प्रात:काल सुभद्रा अपने काम पर जाने को तैयार हो रही थी कि एक युवती रेशमी साड़ी पहने आकर खड़ी हो गयी और मुस्कराकर बोली— “क्षमा कीजिएगा, मैंने बहुत सबेरे आपको कष्ट दिया। आप तो कहीं जाने को तैयार मामूल होती हैं”

सुभद्रा ने एक कुर्सी बढ़ाते हुए कहा- “हाँ, एक काम से बाहर जा रही थी। मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ?”
यह कहते हुए सुभद्रा ने युवती को सिर से पाँव तक उसी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा, जिससे स्त्रियाँ ही देख सकती हैं। सौंदर्य की किसी परिभाषा से भी उसे सुन्दरी न कहा जा सकता था। उसका रंग साँवला, मुँह कुछ चौड़ा, नाक कुछ चिपटी, कद भी छोटा और शरीर भी कुछ स्थूल था। ऑंखों पर ऐनक लगी हुई थी। लेकिन इन सब कारणों के होते हुए भी उसमें कुछ ऐसी बात थी, जो ऑंखों को अपनी ओर खींच लेती थी। उसकी वाणी इतनी मधुर, इतनी संयमित, इतनी विनम्र थी कि जान पड़ता था किसी देवी के वरदान हों। एक-एक अंग से प्रतिमा विकीर्ण हो रही थी। सुभद्रा उसके सामने हलकी एवं तुच्छ मालूम होती थी। युवती ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा—

“अगर मैं भूलती हूँ, तो मुझे क्षमा कीजिएगा। मैंने सुना है कि आप कुछ कपड़े भी सीती हैं, जिसका प्रमाण यह है कि यहाँ सीविंग मशीन मौजूद है”
सुभद्रा— “मैं दो लेडियों को भाषा पढ़ाने जाया करती हूँ, शेष समय में कुछ सिलाई भी कर लेती हूँ। आप कपड़े लायी हैं”
युवती— “नहीं, अभी कपड़े नहीं लायी। यह कहते हुए उसने लज्जा से सिर झुका कर मुस्काराते हुए कहा—”बात यह है कि मेरी शादी होने जा रही है। मैं वस्त्राभूषण सब हिंदुस्तानी रखना चाहती हूँ। विवाह भी वैदिक रीति से ही होगा। ऐसे कपड़े यहाँ आप ही तैयार कर सकती हैं”

सुभद्रा ने हँसकर कहा— “मैं ऐसे अवसर पर आपके जोड़े तैयार करके अपने को धन्य समझूँगी। वह शुभ तिथि कब है?”
युवती ने सकुचाते हुए कहा— “वह तो कहते हैं, इसी सप्ताह में हो जाए पर मैं उन्हें टालती आती हूँ। मैंने तो चाहा था कि भारत लौटने पर विवाह होता, पर वह इतने उतावले हो रहे हैं कि कुछ कहते नहीं बनता। अभी तो मैंने यही कह कर टाला है कि मेरे कपड़े सिल रहे हैं”
सुभद्रा— “तो मैं आपके जोड़े बहुत जल्द दे दूँगी”
युवती ने हँसकर कहा— “मैं तो चाहती थी आप महीनों लगा देतीं”
सुभद्रा— “वाह, मैं इस शुभ कार्य में क्यों विघ्न डालने लगी? मैं इसी सप्ताह में आपके कपड़े दे दूँगी, और उनसे इसका पुरस्कार लूँगी”

युवती खिलखिलाकर हँसी। कमरे में प्रकाश की लहरें-सी उठ गयीं। बोलीं— “इसके लिए तो पुरस्कार वह देंगे, बड़ी खुशी से देंगे और तुम्हारे कृतज्ञ होंगे। मैंने प्रतिज्ञा की थी कि विवाह के बंधन में पड़ूँगी ही नही; पर उन्होंने मेरी प्रतिज्ञा तोड़ दी। अब मुझे मालूम हो रहा है कि प्रेम की बेड़ियाँ कितनी आनंदमय होती है। तुम तो अभी हाल ही में आयी हो। तुम्हारे पति भी साथ होंगे?”

सुभद्रा ने बहाना किया। बोली— “वह इस समय जर्मनी में हैं। संगीत से उन्हें बहुत प्रेम है। संगीत ही का अध्ययन करने के लिए वहाँ गये हैं”
“तुम भी संगीत जानती हो?”
“बहुत थोड़ा”
“केशव को संगीत बहुत प्रेम है”
केशव का नाम सुनकर सुभद्रा को ऐसा मालूम हुआ, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। वह चौंक पड़ी।

क्रमशः
Premchand ki kahani Suhag Ka Shav

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