Rehman Faris Shayari
यही दुआ है यही है सलाम इश्क़ ब-ख़ैर
मिरे सभी रुफ़क़ा-ए-किराम इश्क़ ब-ख़ैर
ये रह ज़रूर तुम्हारे ही घर को जाती है
लिखा हुआ है यहाँ गाम गाम इश्क़ ब-ख़ैर
शजर ने पूछा कि तुझमें ये किसकी ख़ुशबू है
हवा-ए-शाम-ए-अलम ने कहा उदासी की
तुम तो दरवाज़ा खुला देख के दर आए हो
तुमने देखा नहीं दीवार को दर होने तक
वो पहले सिर्फ़ मिरी आँख में समाया था
फिर एक रोज़ रगों तक उतर गया मुझमें
तेरे बिन घड़ियाँ गिनी हैं रात दिन
नौ बरस ग्यारह महीने सात दिन
मुझको ख़ुद में जगह नहीं मिलती
तू है मौजूद इस क़दर मुझमें
मिरी तो सारी दुनिया बस तुम्ही हो
ग़लत क्या है जो दुनिया-दार हूँ मैं
कहानी ख़त्म हुई और ऐसी ख़त्म हुई
कि लोग रोने लगे तालियाँ बजाते हुए
क्यूँ तिरे साथ रहीं उम्र बसर होने तक
हम न देखेंगे इमारत को खंडर होने तक
तुम तो दरवाज़ा खुला देख के दर आए हो
तुमने देखा नहीं दीवार को दर होने तक
दश्त-ए-ख़ामोश में दम साधे पड़ा रहता है
पाँव का पहला निशाँ राह-गुज़र होने तक
रगों तलक उतर आई है ज़ुल्मत-ए-शब-ए-ग़म
सो अब चराग़ नहीं दिल जलाना बनता है
पराई आग मिरा घर जला रही है सो अब
ख़मोश रहना नहीं ग़ुल मचाना बनता है
बिछड़ने वाले तुझे किस तरह बताऊँ मैं
कि याद आना नहीं तेरा आना बनता है
रहमान फ़ारिस
Rehman Faris Shayari
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