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Father's Day Poetry In Hindi Satyajeet Ray Ki Kahani Sahpathi Satyajit Ray ki SahpathiFather's Day Poetry In Hindi

सहपाठी – सत्यजीत राय
घनी कहानी, छोटी शाखा- सत्यजीत राय की कहानी ‘सहपाठी’ का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा- सत्यजीत राय की कहानी “सहपाठी” का दूसरा भाग
भाग-3 Satyajit Ray ki Sahpathi
(अब तक आपने पढ़ा शहर में एक अच्छी नौकरी और सारी सुविधाप्राप्त मोहित सरकार से मिलने उनका स्कूल का दोस्त जयदेव बोस आता है। जयदेव के फ़ोन के बाद से जहाँ कुछ वक़्त के लिए मोहित स्कूल के दिनों की यादों में खो जाते हैं वहीं जयदेव को देखकर वो उसे पहचान भी नहीं पाते। उन्हें जयदेव में अपने स्कूल का दोस्त नज़र ही नहीं आता। जहाँ जयदेव स्कूल की अलग-अलग बातें याद करके मोहित के साथ बीते स्कूल के दिनों की यादों को अपनी सबसे अच्छी यादें बताते हैं वहीं इस पूरे वक़्त मोहित चौदह साल की उम्र में खींची गयी तस्वीर वाले अपने सहपाठी जयदेव से इस आदमी की शक्ल मिलाने की कोशिश करते हैं। वक़्त के थपेड़ों से सुरक्षित रहे मोहित को ये समझ ही नहीं आता कि किस तरह उनकी ही उम्र का जयदेव इस तरह दिख सकता है। ऐसे में ही जयदेव उनसे पैसों की मदद माँगते हैं और मोहित को मना करते नहीं बनता लेकिन वो अपनी तरह से बहाना बनाकर टालने की कोशिश करते हैं और उन्हें बाद में आने कहते हैं। अब आगे…)

आगंतुक ने आखिरी बार चाय की चुस्की ली और कप को नीचे रखा था कि कमरे में एक और सज्जन आ गए। ये मोहित के अंतरंग मित्र थे – वाणीकांत सेन। दो अन्य सज्जनों के भी आने की बात है, इसके बाद यहीं ताश का अड्डा जमेगा। उसने भले आगंतुक की तरफ़ शक की नज़रों से देखा। मोहित इसे भाँप गया। आगंतुक के साथ अपने दोस्त का परिचय कराने की बात मोहित बुरी तरह टाल गया।
“अच्छा तो फिर मिलेंगे, अभी चलता हूँ”- कह कर अजनबी आगंतुक उठ ख़ड़ा हुआ- “तू मुझ पर यह उपकार कर दे, मैं सचमुच तेरा ऋणी रहूँगा”
उस भले आदमी के चले जाने के बाद वाणीकांत ने मोहित की ओर हैरानी से देखा और पूछा, “यह आदमी तुम से ‘तू’ कह कर बातें कर रहा था – बात क्या है?”
“इतनी देर तक तो तुम ही कहता रहा था। बाद में तुम्हें सुनाने के लिए ही अचानक तू कह गया”
“कौन है यह आदमी?”
मोहित कोई जवाब दिए बिना बुक-शेल्फ की ओर बढ़ गया और उस पर से एक पुराना फोटो एलबम बाहर निकाल लाया। फिर इसका एक पन्ना उलट कर वाणीकांत को सामने बढ़ा दिया।
“यह तुम्हारे स्कूल का ग्रुप है शायद?”
“हाँ, बोटोनिक्स में हम सब पिकनिक के लिए गए थे”- मोहित ने बताया।
“ये पाँचों कौन-कौन हैं?”
“मुझे नहीं पहचान रहे?”
“रुको, ज़रा देखने तो दो”
एलबम को अपनी आँखों के थोड़ा नज़दीक ले जाते ही बड़ी आसानी से वाणीकांत ने अपने मित्र को पहचान लिया।
“अच्छा, अब मेरी बायीं ओर खड़े इस लड़के को अच्छी तरह देखो”
तस्वीर को अपनी आँखों के कुछ और नज़दीक ला कर वाणीकांत ने कहा, “हाँ, देख लिया”
“अरे, यही तो है वह भला आदमी, जो अभी-अभी यहाँ से उठ कर गया”- मोहित ने बताया।
“स्कूल से ही तो जुआ खेलने की लत नहीं लगी है इसे?” एलबम को तेज़ी से बंद कर इसे सोफ़े पर फेंकते हुए वाणीकांत ने फिर कहा, “मैंने इस आदमी को कम-से-कम तीस-बत्तीस बार रेस के मैदान में देखा है”
“तुम ठीक कह रहे हो”- मोहित सरकार ने हामी भरी और इस के बाद आगंतुक के साथ क्या-क्या बातें हुई, इस बारे में बताया।

Satyajit Ray ki Sahpathi

“अरे, थाने में खबर कर दो”- वाणीकांत ने उसे सलाह दी- “कलकत्ता अब ऐसे ही चोरों, लुटेरों और उचक्कों का डिपो हो गया है। इस तस्वीर वाले लड़के का ऐसा पका जुआड़ी बन जाना नामुमकिन है; असंभव”
मोहित हौले-से मुस्कुराया और फिर बोला, “रविवार को जब मैं उसे घर पर नहीं मिलूँगा तो पता चलेगा। मुझे लगता है इस के बाद यह इस तरह की हरकतों से बाज़ आएगा”
अपने बारूइपुर वाले मित्र के यहाँ पोखर की मच्छी, पॉल्टरी के ताज़े अंडे और पेड़ों में लगे आम, अमरूद, जामुन डाब और सीने से तकिया लगा ताश खेल कर, तन-मन की सारी थकान और जकड़न दूर कर मोहित सरकार रविवार की रात ग्यारह बजे जब अपने घर लौटा तो अपने नौकर विपिन से उसे खबर मिली कि उस दिन शाम को जो सज्जन आए थे – वे आज सुबह भी घर आए थे।
“कुछ कह कर गए हैं?”
“जी नहीं”- विपिन ने बताया।
चलो जान बची। एक छोटी-सी जुगत से बड़ी बला टली। अब वह नहीं आएगा। पिंड छूटा।
लेकिन नहीं। आफत रात भर के लिए ही टली थी। दूसरे दिन सुबह यही कोई आठ बजे, मोहित जब अपनी बैठक में अख़बार पढ़ रहा था तो विपिन ने उस के सामने एक और तहाया हुआ पुर्ज़ा लाकर रख दिया। मोहित ने उसे खोल कर देखा। वह तीन लाइनों वाली चिट्ठी थी — “भाई मोहित, मेरे दाएँ पैर में मोच आ गई है, इसलिए बेटे को भेज रहा हूँ। सहायता के तौर पर जो थोड़ा-बहुत बन सके, इसके हाथ में दे देना, बड़ी कृपा होगी। निराश नहीं करोगे, इस आशा के साथ, इति।’ – तुम्हारा जय”
मोहित समझ गया अब कोई चारा नहीं हैं। जैसे भी हो, थोड़ा-बहुत दे कर जान छुड़ानी है – यह तय कर उसने नौकर को बुलाया और कहा, “ठीक है, छोकरे को बुलाओ”
थोड़ी देर बाद ही, एक तेरह-चौदह साल का लड़का दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ। मोहित के पास आ कर उसने उसे प्रणाम किया और फिर कुछ क़दम पीछे हटकर चुपचाप खड़ा हो गया।
मोहित उसकी तरफ़ कुछ देर तक बड़े गौर से देखता रहा। इसके बाद कहा, “बैठ जाओ”
लड़का थोड़ी देर तक किसी उधेड़बुन में पड़ा रहा, फिर सोफ़े के एक किनारे अपने दोनों हाथों को गोद में रख कर बैठ गया।
“मैं अभी आया”
मोहित ने दूसरे तल्ले पर जा कर अपनी घरवाली के आँचल से चाबियों का गुच्छा खोला। इसके बाद अलमारी खोलकर पचास रुपए के चार नोट बाहर निकाल, इन्हें एक लिफ़ाफ़े में भरा और अलमारी बंद कर नीचे बैठकखाने में वापस आया।
“क्या नाम है तुम्हारा?”
“जी, संजय कुमार बोस”
“इसमें रुपए हैं। बड़ी सावधानी से ले जाना होगा”
लड़के ने सिर हिला कर हामी भरी।
“कहाँ रखोगे?”
“इधर, ऊपर वाली जेब में”
“ट्राम से जाओगे या बस से?”
“जी, पैदल”
“पैदल? तुम्हारा घर कहाँ है?”
“मिर्ज़ापुर स्ट्रीट में”
“भला इतनी दूर पैदल जाओगे?”
“पिताजी ने पैदल ही आने को कहा है”
“अच्छा तो फिर एक काम करो। तुम एक घंटा यहीं बैठो..ठीक है। नाश्ता कर लो। यहाँ ढेर सारी किताबें हैं, इन्हें देखो। मैं नौ बजे दफ़्तर निकलूँगा। मुझे दफ़्तर छोड़ने के बाद मेरी गाड़ी तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देगी। तुम ड्राइवर को अपना रास्ता बता सकोगे न?”- मोहित ने पूछा।
लड़के ने सिर हिला कर कहा- “जी हाँ”
मोहित ने विपिन को बुलाया और इस लड़के संजय बोस के लिए चाय वगैरह लाने का आदेश दिया। फिर दफ़्तर के लिए तैयार होने ऊपर अपने कमरे में चला आया।
आज वह अपने को बहुत ही हल्का महसूस कर रहा था। और साथ ही बहुत ही खुश।
जय को देख कर पहचान न पाने के बावजूद, उस के बेटे संजय में उसने अपना तीस साल पुराना सहपाठी पा लिया था।

____
समाप्त

Satyajit Ray ki Sahpathi

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