Usha Priyamvada Kahaani Waapsi वापसी (उषा प्रियम्वदा)
घनी कहानी, छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी ‘वापसी’ का पहला भाग..
घनी कहानी,छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी “वापसी” का दूसरा भाग
भाग-3
(अब तक आपने पढ़ा..रिटायरमेंट के बाद अपने परिवार के साथ रहने पहुँचे गजाधर बाबू को परिवार में अपनी वो जगह नहीं मिलती, जिसकी वो आस लिए वापस आए हैं। किसी तरह परिवार में अपनी जगह बनाते गजाधर बाबू को पत्नी से भी वो अपनापन नहीं मिलता, जिसके लिए वो सालों तरसते रहे। पत्नी को इस उम्र में घर के कामों से ज़रा निजात दिलाकर वो चाहते हैं कि कुछ पल को आपस में सुख-दुःख बाँट सकें, लेकिन पत्नी घर- गृहस्थी से बाहर ही नहीं आना चाहती। अपनों के बीच इस अपरिचितता भरे वातावरण से गजाधर बाबू का मन खिन्न हो उठा है। अब आगे..)
रात का भोजन बसंती ने जान-बूझ कर ऐसा बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके। गजाधर बाबू चुपचाप खा कर उठ गए, पर नरेंद्र थाली सरका कर उठ खड़ा हुआ और बोला- “मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता”
बसंती तुनक कर बोली, “तो न खाओ, कौन तुम्हारी खुशामद करता है”
“तुमसे खाना बनाने को कहा किसने था?” नरेंद्र चिल्लाया।
“बाबूजी ने”
“बाबूजी को बैठे-बैठे यही सूझता है”
बसंती को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बना कर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्नी से कहा, “इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का शऊर नहीं आया”
“अरे, आता तो सब कुछ है, करना नहीं चाहती”- पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई में देख, कपड़े बदल कर बसंती बाहर आई, तो बैठक से गजाधर बाबू ने टोक दिया-
“कहाँ जा रही हो?”
“पड़ोस में शीला के घर”- बसंती ने कहा।
“कोई ज़रूरत नहीं है, अंदर जा कर पढ़ो” गजाधर बाबू ने कड़े स्वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रह कर बसंती अंदर चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज टहलने चले जाते थे, लौट कर आए तो पत्नी ने कहा- “क्या कह दिया बसंती से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया”
गजाधर बाबू खिन्न हो आए। पत्नी की बात का उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि बसंती की शादी जल्दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसंती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना होता तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर मिला- “रूठी हुई है”
गजाधर बाबू को रोष हुआ। लड़की के इतने मिज़ाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर उनकी पत्नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग रहने की सोच रहा है।
“क्यों?” गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा।
पत्नी ने साफ-साफ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थीं। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई आने-जानेवाला हो तो कहीं बिठाने को जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं।
“हमारे आने से पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?”- गजाधर बाबू ने पूछा। पत्नी ने सिर हिला कर बताया कि नहीं। पहले अमर घर का मालिक बन कर रहता था, बहू को कोई रोक-टोक न थी, अमर के दोस्तों का प्रायः यहीं अड्डा जमा रहता था और अंदर से नाश्ता चाय तैयार हो कर जाता रहता था। बसंती को भी वही अच्छा लगता था। Usha Priyamvada Kahaani Waapsi
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, “अमर से कहो, जल्दबाजी की कोई जरूरत नहीं है”
अगले दिन वह सुबह घूम कर लौट तो उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं है। अंदर जा कर पूछने ही वाले थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अंदर बैठी पत्नी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झाँका तो अचार, रज़ाइयाँ और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने को दीवार पर नजर दौड़ाई। फिर उसे मोड़कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसका कर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए।
कुछ भी हो, तन आख़िरकार बूढ़ा ही था। सुबह-शाम कुछ दूर टहलने अवश्य चले जाते, पर आते-जाते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा क्वार्टर याद आ गया। निश्चित जीवन, सुबह पैसेंजर ट्रेन आने पर स्टेशन की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट-खट, जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी। तूफान और डाक गाड़ी के इंजनों की चिंघाड़ उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजीमल की मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वही उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्हें एक खोयी निधि-सा प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह जिंदगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा, उसमें से उन्हें एक बूँद भी न मिली।
लेटे हुए वह घर के अंदर से आते विविध स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बाल्टी पर खुले नल की आवाज़, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में दो गौरैयों का वार्तालाप और अचानक ही उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह नहीं है, तो यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे।
यदि बच्चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्थान नहीं, तो अपने ही घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे… और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र रुपए माँगने आया तो बिना कारण पूछे उसे रुपए दे दिए। बसंती काफी अँधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही तो भी उन्होंने कुछ नहीं कहा – पर उन्हें सबसे बड़ा गम यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्य नहीं किया। वह मन-ही-मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान ही बनी रहीं। बल्कि उन्हें पति के घर के मामले में हस्तक्षेप न करने के कारण शांति ही थी। कभी-कभी कह भी उठतीं, “ठीक ही है, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था, कर रहे हैं। पढ़ा रहे हैं, शादी कर देंगे”
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी और बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र हैं।
क्रमशः
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(इस कहानी के सर्वाधिकार लेखिका के पास सुरक्षित हैं। इस कहानी को यहाँ शामिल करने का एकमात्र उद्देश्य इसे ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों के पास पहुँचाना है। इससे किसी की भी भावना को ठेस पहुँचाने का हमारा कोई इरादा नहीं है। अगर आपको किसी भी तरह की कोई आपत्ति हो तो हमें sahitydunia@gmail.com पर सम्पर्क करें।) Usha Priyamvada Kahaani Waapsi
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