Usha Priyamvada Kahani Waapsi वापसी (उषा प्रियम्वदा)
घनी कहानी, छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी ‘वापसी’ का पहला भाग..
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..अपनी रेलवे की नौकरी के कारण वर्षों परिवार से दूर अकेले रहते गजाधर बाबू, रिटायरमेंट के बाद परिवार के साथ ख़ुशनुमा वक़्त बिताने के सपने लिए घर पहुँचते हैं। लेकिन परिवार से सालों की दूरी रिश्तों में भी अपनी पैठ बना चुकी थी। इस एहसास से बार-बार गुज़रते गजाधर बाबू को साथ था तो पत्नी का, जो भी परिवार के सदस्यों की शिकायतों का पुलिंदा लिए तैयार थीं। परिवार का साथ होते हुए भी, रह-रहकर गजाधर बाबू अपनी नौकरी के दिनों की याद में डूब जाते। अब आगे..)
घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब अपना प्रबंध किया था। उनकी पत्नी के पास अंदर एक छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर के मर्तबान, दाल-चावल के कनस्तर और घी के डिब्बों से घिरा था; दूसरी ओर पुरानी रज़ाइयाँ, दरियों में लिपटी और रस्सी से बँधी रखी थीं; उसके पास एक बड़े-से टीन के बक्स में घर भर के गरम कपड़े थे। बीच में एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्रायः बसंती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था।तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था, बैठक था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर की ससुराल से आया बेंत की तीन कुरसियों का सेट पड़ा था, कुरसियों पर नीली गद्दियाँ और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।
जब कभी उनकी पत्नी को काई लंबी शिकायत करनी होती, तो अपनी चटाई बैठक में डाल पड़ जाती थीं। वह एक दिन चटाई ले कर आ गईं। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की बातें छेड़ीं, वह घर का रवैया देख रहे थे। बहुत हल्के-से उन्होंने कहा कि “अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ ख़र्च कम होना चाहिए”
“सभी ख़र्च तो वाजिब-वाजिब हैं, किसका पेट काटूँ? यही जोड़-गाँठ करते-करते बूढ़ी हो गई, न मन का पहना, न ओढ़ा”
गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करतीं। यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उनसे यदि राय-बात की जाए कि प्रबंध कैसे हो, तो उन्हें चिंता कम, संतोष अधिक होता, लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही ज़िम्मेदार थे।
“तुम्हें किस बात की कमी है अमर की माँ – घर में बहू है, लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता”- गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया। यह उनकी आंतरिक अभिव्यक्ति थी – ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकती।
“हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्या होता है?”
कह कर पत्नी ने आँखें मूँदीं और सो गईं। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए। यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने संपूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हें लगा कि लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई है और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितांत अपरिचित है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी का भारी-सा शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था, चेहरा श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्संग दृष्टि से पत्नी को देखते रहे और फिर लेट कर छत की और ताकने लगे।
अंदर कुछ गिरा और उनकी पत्नी हड़बड़ा कर उठ बैठींऔर वह अंदर भागीं। थोड़ी देर में लौट कर आईं तो उनका मुँह फूला हुआ था- “देखा बहू को?..चौका खुला छोड़ आई, बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को हैं, अब क्या खिलाऊँगी?”- वह साँस लेने को रुकींऔर बोलीं,“एक तरकारी और चार पराँठे बनाने में सारा डिब्बा घी उँड़ेल कर रख दिया, ज़रा-सा दर्द नहीं है, कमाने वाला हाड़ तोड़े और यहाँ चीज़ें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं है”
गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और बोलेगी तो उनके कान झनझना उठेंगे। होंठ भींच, करवट ले कर उन्होंने पत्नी की ओर पीठ कर ली।
क्रमशः
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घनी कहानी,छोटी शाखा: उषा प्रियम्वदा की कहानी “वापसी” का तीसरा भाग
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