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कोई दुःख न हो तो बकरी ख़रीद लो- मुंशी प्रेमचंद
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..दूध की परेशानी से बचने के लिए लेखक अपने मित्र के साथ मिलकर गाय खरीदने की योजना बनाते हैं और दोनों मिलकर गाय ख़रीद लेते हैं जिसे पहले से किए समझौते के मुताबिक गाय लेखक के दोस्त के घर ही रहती है जिसके रखरखाव का पैसा तो आपस में बाँटा जाता है और दूध आधा-आधा बाँटने की बात तय होती है…कुछ दिनों तक तो दूध सही आता है लेकिन बाद में दूध ख़राब आने लगता है, इतना मिलावटी की बदबू तक आने लगती है…लेखक की पत्नी तो उन्हें बार-बार टोकती हैं लेकिन लेखक अपने दोस्त को कुछ भी नहीं कहते आखिर दोस्त के तबादले के बाद लेखक अकेले गाय का पालन नहीं कर पाते और उसे बेच देते हैं. उसी समय उन्हें बकरी खरीदने का विचार आता है और एक बकरी की तारीफ़ सुनकर वो उसे ख़रीद लाते हैं. बकरी अपने गुणों के अनुसार ही नज़र आती है. आँगन में बंधी रहती और बचाखुचा खाती..दूध निकालने के लिए ज़रूर उसका सींग पकड़ना पड़ता लेकिन दूध मिलते ही सारी तकलीफें काफूर हो जातीं…लेकिन कुछ ही दिनों में उसका दूध भी कम होने पर जब पूछ की जाती है तो उसे टहलाने और चराने की बात आती है और इस चक्कर में लेखक अपना घर बदलकर शहर से बाहर चले जाते हैं, ऑफिस जाने में तीन मील का फ़ासला तय करना होता है लेकिन अच्छे दूध के लिए लेखक को ये भी मंज़ूर होता है..अब आगे)

यहाँ मकान ख़ूब खुला हुआ था, मकान के सामने सहन था, ज़रा और बढ़कर आम और महुए का बाग़। बाग़ से निकलिए तो काछियों के खेत थे, किसी में आलू, किसी में गोभी। एक काछी से तय कर लिया कि रोज़ाना बकरी के लिए कुछ हरियाली जाया करे। मगर इतनी कोशिश करने पर भी दूध की मात्रा में कुछ ख़ास बढ़त नहीं हुई। ढाई सेर की जगह मुश्किल से सेर-भर दूध निकलता था लेकिन यह तस्कीन थी कि दूध खालिस है, यही क्या कम है!

मैं यह कभी नहीं मान सकता कि खिदमतगारी के मुकाबले में बकरी चराना ज्यादा ज़लील काम है। हमारे देवताओं और नबियों का बहुत सम्मानित वर्ग गल्ले चराया करते था। कृष्ण जी गायें चराते थे। कौन कह सकता है कि उस गल्ले में बकरियाँ न रही होंगी। हजरत ईसा और हजरत मुहम्मद दोनों ही भेड़े चराते थे। लेकिन आदमी रूढ़ियों का दास है। जो कुछ बुज़ुर्गों ने नहीं किया उसे वह कैसे करे। नये रास्ते पर चलने के लिए जिस संकल्प और दृढ़ आस्था की ज़रूरत है वह हर एक में तो होती नहीं। धोबी आपके गन्दे कपड़े धो लेगा लेकिन आपके दरवाज़े पर झाड़ू लगाने में अपनी हतक समझता है। जरायमपेशा कौमों के लोग बाजार से कोई चीज़ क़ीमत देकर ख़रीदना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। मेरे ख़ितमतगार को बकरी लेकर बाग़ में जाना बुरा मालूम होता था। घर से तो ले जाय लेकिन बाग़ में उसे छोड़कर ख़ुद किसी पेड़ के नीचे सो जाता। बकरी पत्तियां चर लेती थी।

मगर एक दिन उसके जी में आया कि ज़रा बाग़ से निकलकर खेतों की सैर करे। यों वह बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत बकरी थी, उसके चेहरे से गम्भीरता झलकती थी। लेकिन बाग़ और खेत में घुसने की आज़ादी नहीं है, इसे वह शायद न समझ सकी। एक रोज़ किसी खेत में घुस गई और गोभी की कई क्यारियाँ साफ़ कर गई। काछी ने देखा तो उसके कान पकड़ लिये और मेरे पास लाकर बोला-

“बाबूजी, इस तरह आपकी बकरी हमारे खेत चरेगी तो हम तो तबाह हो जायेंगे। आपको बकरी रखने का शौक़ है तो इस बांधकर रखिये। आज तो हमने आपका लिहाज किया लेकिन फिर हमारे खेत में गई तो हम या तो उसकी टॉँग तोड़ देंगे या कानीहौज भेज देंगे”

अभी वह अपना भाषण ख़त्म न कर पाया था कि उसकी बीवी आ पहुंची और उसने इसी विचार को और भी ज़ोरदार शब्दों में अदा किया- “हाँ..हाँ करती ही रही मगर शैतान खेत में घुस गई और सारा खेत चौपट कर दिया, इसके पेट में भवानी बैठे! यहॉँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है। हाकिम होंगे अपने घर के होंगे। बकरी रखना है तो बांधकर रखो नहीं गला ऐंठ दूँगी!”

मैं भीगी बिल्ली बना हुआ खड़ा था। जितनी फटकार आज सहनी पड़ी उतनी ज़िन्दगी में कभी न सही। और जिस धीरज से आज काम लिया अगर उसे दूसरे मौक़ों पर काम लिया होता तो आज आदमी होता। कोई जवाब नहीं सूझता था। बस यही जी चाहता था कि बकरी का गला घोंट दूँ ओर खिदमतगार को डेढ़ सौ हण्टर जमाऊं। मेरी ख़ामोशी से वह औरत भी शेर होती जाती थी। आज मुझे मालूम हुआ कि किन्हीं-किन्हीं मौकों पर ख़ामोशी नुकसानदेह साबित होती है। खैर, मेरी बीवी ने घर में यह गुल-गपाड़ा सुना तो दरवाज़े पर आ गई और हेकड़ी से बोली-

“तू कानीहौज पहुँचा दे और क्या करेगी, नाहक टर्र-टर्र कर रही है, घण्टे-भर से। जानवर ही है, एक दिन खुल गई तो क्या उसकी जान लेगी? ख़बरदार जो एक बात भी मुँह से निकाली। क्यों नहीं खेत के चारों तरफ झाड़ लगा देती, काँटों से रूंध दे। अपनी गति तो मानती नहीं, ऊपर से लड़ने आई है। अभी पुलिस में इत्तला कर दें तो बंधे-बंधे फिरो”

बात कहने की इस शासनपूर्ण शैली ने उन दोनों को ठण्डा कर दिया। लेकिन उनके चले जाने के बाद मैंने देवी जी की ख़ूब ख़बर ली ग़रीबों का नुकसान भी करती हो और ऊपर से रौब जमाती हो। इसी का नाम इंसाफ़ है?

देवी जी ने गर्वपूर्वक उत्तर दिया- “मेरा एहसान तो न मानोगे कि शैतानों को कितनी आसानी से भगा दिया, लगे उल्टे डाँटने। गंवारों को राह बतलाने का सख्ती के सिवा दूसरा कोई तरीका नहीं। सज्जनता या उदारता उनकी समझ में नहीं आती। उसे यह लोग कमज़ोरी समझते हैं और कमज़ोर को कौन नहीं दबाना चाहता”

खिदमतगार से जवाब तलब किया तो उसने साफ़ कह दिया- “साहब, बकरी चराना मेरा काम नहीं है”

मैंने कहा- “तुमसे बकरी चराने को कौन कहता है, जरा उसे देखते रहा करो कि किसी खेत में न जाए, इतना भी तुमसे नहीं हो सकता?”

“मैं बकरी नहीं चरा सकता साहब, कोई दूसरा आदमी रख लीजिए”

आख़िर मैंने ख़ुद शाम को उसे बाग में चरा लाने का फ़ैसला किया। इतने ज़रा-से काम के लिए एक नया आदमी रखना मेरी हैसियत से बाहर थाऔर मैं अपने इस नौकर को जवाब भी नहीं देना चाहता था जिसने कई साल तक वफ़ादारी से मेरी सेवा की थी और ईमानदार था।

क्रमशः

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