fbpx
Ishq ki shayari Kaifi Azmi Shayari Hindi Noshi Gilani Shayari Qateel Shifai Daagh Dehlvi Hari Shankar Parsai Jaishankar Prasad Amrita Pritam Ki Kahani Vrahaspativar ka vrat ~ "बृहस्पतिवार का व्रत" Rajendra Bala Ghosh Ki Kahani Dulaiwalisahitya duniya

फंदा- आचार्य चतुरसेन शास्त्री  Acharya Chatur Sen Ki Kahani Phanda
भाग-1 

सन् १९१७ का दिसम्बर था। भयानक सर्दी थी। दिल्ली के दरीबे-मुहल्ले की एक तंग गली में एक अँधेरे और गन्दे मकान में तीन प्राणी थे। कोठरी के एक कोने में एक स्त्री बैठी हुई अपने गोद के बच्चे को दूध पिला रही थी, परन्तु यह बात सत्य नहीं है, उसके स्तनों का प्रायः सभी दूध सूख गया था और उन बे-दूध के स्तनों को बच्चा आँख बन्द किए चूस रहा था। स्त्री का मुँह परम सुन्दर होने पर भी इस वक़्त जर्द सूखा हुआ दिखाई दे रहा था। यह स्पष्ट ही मालूम होता था कि उसके पहले शरीर का सिर्फ़ अस्थि-पंजर ही रह गया है। गाल पिचक गए थे, आँखें धँस गई थीं और उनके चारों ओर नीली रेखा पड़ गई थी तथा ओंठ मुर्दे की तरह विदर्ण हो गए थे। मानो वेदना और दरिद्रता मूर्तिमयी होकर उस स्त्री के आकार में प्रकट हुई थी। ऐसी उस माता की गोद में वह कंकालाविष्ट बच्चा अध-मुर्दा पड़ा था। उसकी अवस्था आठ महीने की होगी, पर वह आठ सप्ताह का भी तो नहीं मालूम होता था। स्त्री के निकट ही एक आठ वर्ष का बालक बैठा हुआ था, जिसकी देह बिल्कुल सूख गई थी, और इस भयानक सर्दी से बचाने के योग्य उसके शरीर पर एक चिथड़ा मात्र वस्त्र था। वह चुपचाप भूखा और बदहवास माँ की बगल में बैठा टुकुर-टुकुर उसका मुँह देख रहा था।

इनसे दो हाथ के फ़ासले पर तीन साल की बालिका पेट की आग से रो रही थी। जब वह रोते-रोते थक जाती चुपचाप आँख बन्द करके पड़ जाती थी, पर थोड़ी देर बाद वह फिर तड़पने लगती थी। बेचारी असहाय अबला विमूढ़ बनी अतिशय विचलित होकर अपने प्राणों से प्यारे बच्चों की यह वेदना देख रही थी। कभी-कभी वह अत्यन्त अधीर होकर गोद के बच्चे को घूर-घूर कर देखने लगती, दो-एक बूँद आँसू ढरक जाते, और कुछ अस्फुट शब्द मुख से निकल पड़ते थे, जिन्हें सुन और कुछ-कुछ समझकर पास बैठे बालक को कुछ कहने का साहस नहीं होता था। इस छोटे से परिवार को इस मकान में आए और इस जीवन में रहते पाँच मास बीत रहे थे। Acharya Chatur Sen Ki Kahani Phanda
पाँच मास प्रथम यह परिवार सुखी और सम्पन्न था। बच्चे प्रातःकाल कलेवा कर गीत गाते, स्कूल जाते थे। इसी मुहल्ले में इनका सुन्दर मकान था, और है, पर एक ही घटना से यहाँ तक नौबत आ गई थी। इस परिवार के कर्णधार, एकमात्र स्वामी, बच्चों के पिता और दुखिया स्त्री के जीवन-धन मास्टर साहब, जिन्हें सैकड़ों अमीरों और ग़रीबों के बच्चे अभिवादन कर चुके थे, जो मुहल्ले के सुजन, हँसमुख और नगर भर के प्यारे नागरिक और सार्वजनिक नेता थे, आज जेल की दीवारों में बन्द थे, उन पर जर्मनी से षड्यन्त्र का अभियोग प्रमाणित हो चुका था और उन्हें फाँसी की सज़ा हो चुकी थी, अब अपील के परिणाम की प्रतीक्षा थी।

प्रातःकाल की धूप धीरे-धीरे बढ़ रही थी। स्त्री ने धीमे, किन्तु लड़खड़ाते स्वर में कहा- “बेटा विनोद…क्या तुम बहुत ही भूखे हो?”
“नहीं तो माँ…रात ही तो मैंने रोटी खाई थी?”
“सुनो-सुनो, एक-दो-तीन (इस तरह आठ तक गिनकर) आठ बज रहे हैं, किराए वाला आता ही होगा”
“मैं उसके पैरों पड़कर और दो-तीन दिन टाल दूँगा माँ। इस बार वह तु्म्हें ज़रा भी कड़ी बात न कहने पाएगा”
स्त्री ने परम करुणा-सागर की ओर क्षण-भर आँख उठाकर देखा, और उसकी आँखों से दो बूँदें ढरक गईं।
यह देखकर छोटी बच्ची रोना भूल कर माता के गले में आकर लिपट गई और बोली-“अम्माँ…अब मैं कभी रोटी नहीं माँगूँगी”
हाय रे माता का हृदय…माता ने दोनों बच्चों को गोद में छिपाकर एक बार अच्छी तरह आँसू निकाल डाले।
इतने ही में किसी ने कर्कश शब्द से पुकारा-“कोई है न?”
बच्चे को छाती में छिपाकर काँपते-काँपते स्त्री ने कहा- “सर्वनाश…वह आ गया”
एक पछैयाँ जवान लट्ठ लेकर दरवाज़ा ठेलकर भीतर घुस आया।
उसे देखकर ही स्त्री ने अत्यन्त कातर होकर कहा- “मैं तुम्हारे आने का मतलब समझ गई हूँ”
“समझ गई हो तो लाओ किराया दो”
“थोड़ा और सब्र करो”
बालक ने कहा-“दो-तीन दिन में हम किराया दे देंगे”
बालक को ढकेलते हुए उद्धतपन से उसने कहा- “सब्र गया भाड़ में, अभी मकान से निकलो। मकान क्या दिया, जान का बवाल मोल ले लिया, पुलिस ने घर को बदनाम कर दिया है। लोग नाम धरते हैं, सरकार के दुश्मन को घर में छिपा रक्खा है। निकलो, अभी निकलो”
स्त्री खड़ी हो गई। धक्का खाकर बच्चा गिर गया था। उसे उठा कर उसने कहा- “भाई, मुसीबत वालों पर दया करो, तुम भी बाल-बच्चेदार हो”
“मैं दया-मया कुछ नहीं जानता, मैं तुमसे कहे जाता हूँ कि आज दिन छिपने से पहले-पहले यदि भाड़ा न चुका दिया गया तो आज रात को ही निकाल दूँगा”
इतना कह कर वह व्यक्ति एक बार कड़ी दृष्टि से तीनों अभागे प्राणियों को घूरता हुआ ज़ोर से दरवाज़ा बन्द करके चला गया।
दुखिया स्त्री इसके बाद ही धरती में धड़ाम से गिरकर मूर्च्छित हो गई।

उपरोक्त घटना के कुछ ही मिनट बाद एक अधेड़ अवस्था के सभ्य पुरुष धीरे-धीरे मकान में घुसे। इनके आधे बाल पककर खिचड़ी हो गए थे-दाँत सोने की कमानी से बँधे थे, साफ ऊनी वस्त्रों पर एक दुशाला पड़ा था। हाथ में चाँदी की मूँठ की पतली-सी एक बेंत थी। रंग गोरा, कद ठिगना और चाल गम्भीर थी।
उन्होंने पान कचरते-कचरते बड़ा घरौआ जताकर बालक का नाम लेकर पुकारा- “बेटा विनोद…”
विनोद ने गरदन उठा कर देखा, बच्चे की माता ने सावधानी से उठकर अपने वस्त्र ठीक कर लिए।
आगन्तुक ने बिना प्रश्न किए ही कहा– “देखो अपील का क्या नतीजा निकलता है, हम विलायत तक लड़ेंगे, आगे भगवान की मर्ज़ी”
स्त्री चुपचाप बैठी रही, सब सुन कर न बोली, न हिली-डुली। इस पर आगन्तुक ने अनावश्यक प्रसन्नता मुख पर लाकर कहा- “क्यों रे विनोद, तेरा मुँह क्यों उतर रहा है? क्यों बहू, क्या बात है-बच्चों का यह हाल बना रखा है, अपना तो जो कुछ किया सो किया। इस तरह जान खोने से क्या होगा? तुमसे इतना कहा, मगर तुमने घर छोड़ दिया। मानो हम लोग कुछ हैं ही नहीं। भाई सुनेंगे तो क्या कहेंगे? मैं परसों जेल में मिला था, बहुत ख़ुश थे। अपील की उन्हें बड़ी आशा है। तुम्हें भी ख़ुश रहना उचित है। दिन तो अच्छे-बुरे आते हैं और जाते हैं, इस तरह सोने की काया को मिट्टी तो नहीं किया जाता”

इतनी लम्बी वक्तृता सुन कर भी गृहिणी न बोली, न हिली-डुली। वह वैसी ही अचल बैठी रही।
आगन्तुक ने कुछ रुककर दो रुपए निकाल कर बच्चे के हाथ पर धर दिए और कहा- “लो बेटा, जलेबियाँ खाना।”
बच्चे ने क्षण भर माता के मुख की ओर देखा और तत्काल हाथ खींच लिया। रुपये धरती पर खन्न से बज उठे। बच्चा पीछे हटकर माँ का आँचल पकड़ कर खड़ा हो गया।
आगन्तुक रुपए उठा कर उन्हें फिर से देने को आगे बढ़ा। गृहिणी ने बाधा देकर कहा- “रहने दीजिए, वह जलेबी नहीं खाता। हम ग़रीब विपत्ति के मारे लोग हैं, एक टुकड़ा रोटी ही बहुत है। पर आप कृपा करें तो या तो उनके बैंक के हिसाब में से, मकान के हिस्से को आड़ करके कुछ रुपए मुझे उधार दे दीजिए”
“उनके बैंक के हिसाब में तो बिना उनके दस्तख़त के कुछ मिलेगा नहीं, फिर मुझे मालूम हुआ है कि वहाँ ऐसी कुछ रकम है भी नहीं। रहा मकान, सो उसका तुम्हारा वाला हिस्सा रहन रखकर ही तो मुक़दमा लड़ाया है, मुक़दमें में क्या कम रकम खर्च हुई है?”

गृहिणी चुप बैठी रही।

क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी “फंदा” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी “फंदा” का अंतिम भाग
Acharya Chatur Sen Ki Kahani Phanda

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *