Bulati hai magar jaane ka naiN
बुलाती है मगर जाने का नईं
वो दुनिया है उधर जाने का नईं
सितारे नोच कर ले जाऊँगा
मैं ख़ाली हाथ घर जाने का नईं
मिरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुज़र जाने का नईं
वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर ज़ालिम से डर जाने का नईं
वबा फैली हुई है हर तरफ़
अभी माहौल मर जाने का नईं
~ राहत इंदौरी (Rahat Indori)
Bulati hai magar jane ka naiN
ग़ज़ल की रदीफ़ ‘जाने का नईं’ है, बहुत सी वेब्सायट पर ‘जाने का नहीं’ रदीफ़ के साथ ग़ज़ल लिखी गई है जोकि सही नहीं है।
इस ग़ज़ल का मत’ला नौजवान तबक़े में ख़ासा मशहूर है। शेर का पहला मिसरा ‘बुलाती है मगर जाने का नईं’ सोशल मीडिया वेब्सायट पर काफ़ी फ़ेमस हुआ। ये ग़ज़ल राहत इंदौरी की सबसे पॉप्युलर ग़ज़लों में से एक है। मुशाइरों में उनकी इस ग़ज़ल को ख़ूब दाद मिलती थी।
राहत इंदौरी का जन्म १ जनवरी १९५० को मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ। उनका पैदाइशी नाम राहत क़ुरैशी था, उर्दू शाइरी में एक मक़ाम हासिल करने के बाद उन्हें राहत इंदौरी के नाम से जाना जाने लगा। उन्होंने शाइरी की दुनिया में तो नाम कमाया ही, साथ ही उन्होंने फ़िल्मी दुनिया पर भी अपनी छाप छोड़ी। ११ अगस्त २०२० को उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया।
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