बृहस्पतिवार का व्रत- अमृता प्रीतम Amrita Pritam Ki Kahani Vrahaspativar ka vrat
भाग- 3
(अब तक आपने पढ़ा…बृहस्पतिवार की छुट्टी में पूजा अपने बच्चे मन्नू के साथ बिताती है, लेकिन यही दिन होता है जो उसे वर्तमान से भविष्य की आशंकाओं और अतीत की अंधेरी यादों में भी ले जाता है। पूजा जो कभी गीता श्रीवास्तव हुआ करती थी, उसका नरेंद्र से प्रेम उसे इन रास्तों तक ले आया था। प्रेम को जीवन में अपनाने की सज़ा उन्हें ग़रीबी और ठोकरों की ज़िंदगी के रूप में मिली। ग़रीबी के दिन और नरेंद्र की बीमारी ने गीता को ऐसी गलियों में ला छोड़ा की वो गीता से पूजा बन गयी। अपने अतीत की सुखद यादों के साथ-साथ मिली इन अंधेरी गलियों में भटकती हुई पूजा को, वर्तमान में लाती है उसकी सहेली शबनम, जो उसी वक़्त उसके घर आती है। अब आगे..)
‘रात की रानी—दिन में सो रही थी ?’’ दरवाज़े से अन्दर आते हुए शबनम ने हँसते-हँसते कहा, और पूजा के बिखरे हुए बालों की तरफ देखते हुए कहने लगी,
‘‘तेरी आँखों में तो अभी भी नींद भरी हुई है, रात के खसम ने क्या सारी रात जगाए रखा था ?’’
शबनम को बैठने के लिए कहते हुए पूजा ने ठण्डी साँस ली- ‘‘कभी-कभी जब रात का खसम नहीं मिलता, तो अपना दिल ही अपना खसम बन जाता है, वह कमबख़्त रात को जगाए रखता है…।’’
शबनम हँस पड़ी, और दीवान पर बैठते हुए कहने लगी- ‘‘पूजा दीदी ! दिल तो जाने कमबख़्त होता है या नहीं, आज का दिन ही ऐसा होता है, जो दिल को भी कमबख़्त बना देता है। देख, मैंने भी तो आज पीले कपड़े पहने हुए हैं और मन्दिर में आज पीले फूलों का प्रसाद चढ़ाकर आई हूँ…।’’
‘‘आज का दिन ? क्या मतलब ?’’- पूजा ने शबनम के पास दीवान पर बैठते हुए पूछा।
‘‘आज का दिन, बृहस्पतिवार का। तुझे पता नहीं ?’’
‘‘सिर्फ़ इतना पता है कि आज के दिन छुट्टी होती है’’—पूजा ने कहा, तो शबनम हँसने लगी-
‘‘देख ले। हमारे सरकारी दफ़्तर में भी छुट्टी होती है….।’’
‘‘मैं सोच रही थी कि हमारे धन्धे में इस बृहस्पतिवार को छुट्टी का दिन क्यों माना गया है…’’
‘‘हमारे संस्कार’’- शबनम के होंठ एक बल खाकर हँसने जैसे हो गए। वह कहने लगी-
‘‘औरत चाहे वेश्या भी बन जाए परन्तु उसके संस्कार नहीं मरते। यह दिन औरत के लिए पति का दिन होता है। पति व पुत्र के नाम पर वह व्रत भी रखती है, पूजा भी करती है। छः दिन धन्धा करके भी वह पति और पुत्र के लिए दुआ माँगती है…’’- पूजा की आँखों में पानी-सा भर आया—
“सच।’’ और वह धीरे से शबनम को कहने लगी—‘‘मैंने तो पति भी देखा है, पुत्र भी। तुमने तो कुछ भी नहीं देखा…’’
‘‘जब कुछ न देखा हो, तभी तो सपना देखने की जरूरत पड़ती है…’’- शबनम ने एक गहरी साँस ली, ‘‘इस धन्धे में आकर किसने पति देखा है…?’’- और कहने लगी—‘‘जिसे कभी मिल भी जाता है, वह भी चार दिन के बाद पति नहीं रहता, दलाल बन जाता है…तुझे याद नहीं, एक शैला होती थी…’’
‘‘शैला ?’’ पूजा को वह साँवली और बाँकी-सी लड़की याद हो आई, जो एक दिन अचानक हाथ में हाथी-दाँत का चूड़ा पहनकर और माँग में सिन्दूर भरकर, मैडम को अपनी शादी का तोहफा देने आई थी, और गेस्ट हाउस में लड्डू बाँट गई थी। उस दिन उसने बताया था कि उसका असली नाम कान्ता है।
शबनम कहने लगी—‘‘वही शैला, जिसका नाम कान्ता था। तुझे पता है उसका क्या हुआ ?’’
‘‘कोई उसका ग्राहक था, जिसने उसके साथ विवाह कर लिया था…’’
‘‘ऐसे पति विवाह के मन्त्रों को भी धोखा दे देते हैं। उससे शादी करके उसे बम्बई ले गया था, यहाँ दिल्ली में उसे बहुत-से लोग जानते होंगे, बम्बई में कोई नहीं जानता, इसलिए वहाँ वे नेक ज़िन्दगी शुरू करेंगे…’’
‘‘फिर ?’’ पूजा की साँस जैसे रुक-सी गई। Amrita Pritam Ki Kahani Vrahaspativar ka vrat
‘‘अब सुना है कि वहाँ बम्बई में वह आदमी उस ‘नेक ज़िन्दगी’ से बहुत पैसे कमाता है’’…
पूजा के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, वह कहने लगी- ‘‘फिर तू मन्दिर में उस तरह का पति क्यों माँगने गई थी ?’’- शबनम चुप-सी हो गई फिर कहने लगी,
‘‘नाम बदलने से कुछ नहीं होता। मैंने नाम तो शबनम रख लिया है, परन्तु अन्दर से वही शकुन्तला हूँ, जो बचपन में किसी दुष्यन्त का सपना देखती थी…अब ये समझ लिया है कि जैसे शकुन्तला की ज़िन्दगी में वह भी दिन आया था, जब दुष्यन्त उसे भूल गया था…मेरा यह जन्म उसी दिन जैसा है।’’- पूजा का हाथ अनायास ही शबनम के कन्धे पर चला गया और शबनम ने आँखें नीची कर लीं। कहने लगी-
‘‘मैं जानती हूँ…इस जन्म में मेरा यह शाप उतर जाएगा।’’
पूजा का निचला होंठ जैसे दाँतो तले आकर कट गया। कहने लगी—‘‘तू हमेशा यह बृहस्पतिवार का वृत रखती है ?’’
‘‘हमेशा…आज के दिन नमक नहीं खाती, मन्दिर में गुण और चने का प्रसाद चढ़ाकर केवल वही खाती हूँ…बृहस्पति की कथा भी सुनती हूँ, जप का मन्त्र भी लिया हुआ है….और भी जो विधियाँ हैं…’’- शबनम कह रही थी, जब पूजा ने प्यार से उसे अपनी बाँहों में ले लिया और पूछने लगी—
‘‘और कौन-सी विधियाँ ?’’- शबनम हँस पड़ी,
‘‘यही कि आज के दिन कपड़े भी पीले ही रंग के होते हैं, उसी का दान देना और वही खाने….मन्त्र की माला जपने और वह भी सम में….इस माला के मोती दस, बारह या बीस की गिनती में होते हैं। ग्यारह, तेरह या इक्कीस की गिनती में नहीं—यानी जो गिनती—जोड़ी-जोड़ी से पूरी आए, उसका कोई मनका अकेला न रह जाए…’’ – शबनम की आँखों में आँसू आने को थे कि वह ज़ोर से हँस पड़ी और कहने लगी-
‘‘इस जन्म में तो यह ज़िन्दगी का मनका अकेला रह गया है, पर शायद अगले जन्म में इसकी जोड़ी का मनका इसे मिल जाए…’’- और पूजा की ओर देखते हुए कहने लगी, ‘‘जिस तरह दुष्यन्त की अँगूठी दिखाकर शकुन्तला ने उसे याद कराया था—उसी तरह शायद अगले जन्म में मैं इस व्रत-नियम की अँगूठी दिखाकर उसे याद करा दूँगी कि- “मैं शकुन्तला हूँ…’’
समाप्त
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “बृहस्पतिवार का व्रत” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: अमृता प्रीतम की कहानी “बृहस्पतिवार का व्रत” का अंतिम भाग
Amrita Pritam Ki Kahani Vrahaspativar ka vrat