Ghar Shayari : उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा ‘ग़ालिब’
हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है
मिर्ज़ा ग़ालिब
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पुराने मुहल्ले का सुनसान आँगन
मुझे पा के था कितना हैरान आँगन
इशरत आफ़रीं
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घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
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कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
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पता अब तक नहीं बदला हमारा
वही घर है वही क़िस्सा हमारा
अहमद मुश्ताक़
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अब कौन मुंतज़िर है हमारे लिए वहाँ
शाम आ गई है लौट के घर जाएँ हम तो क्या
मुनीर नियाज़ी
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सुना रफ़्ता रफ़्ता खंडर हो रहे हैं
वो आबाद गलियाँ वो गुंजान आँगन
इशरत आफ़रीं
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मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो’तबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
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ये दश्त वो है जहाँ रास्ता नहीं मिलता
अभी से लौट चलो घर अभी उजाला है
अख़्तर सईद ख़ान
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तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद
शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो
इरफ़ान सिद्दीक़ी
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कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
मिर्ज़ा ग़ालिब
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अपना घर आने से पहले
इतनी गलियाँ क्यूँ आती हैं
मुहम्मद अल्वी
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ढलेगी शाम जहाँ कुछ नज़र न आएगा
फिर इस के ब’अद बहुत याद घर की आएगी
राजेन्द्र मनचंदा बानी
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कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते
बशीर बद्र
Ghar Shayari
Subah Shayari : सुबह पर ख़ूबसूरत शायरी
प्रेरणादायक शायरी