Jinke Liye Apne To YooN Jaan Nikalte Hain- Meer Taqi Meer
जिनके लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं
क्या तीर-ए-सितम उसके सीने में भी टूटे थे
जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
किसका है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं
गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से
या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं
करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं
जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर
वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं
सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है
बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं
उन आईना-रूयों के क्या ‘मीर’ भी आशिक़ हैं
जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं
नोट- मीर की इस ग़ज़ल में “निकलते हैं” रदीफ़ है जबकि “जान, अंजान, पैकान, इंसान, दीवान, आन, अरमान, शायान, आन, हैरान” क़ाफ़िए हैं.
Jinke Liye Apne To YooN Jaan Nikalte Hain- Meer Taqi Meer